अनुभवों का रोजनामचा
आत्म कथा
रोम रोम श्री राम बिराजें धनुष बाण ले हाथ
अप्रेल २०१0 से शुरू कर आजतक अपने ३२४ संदेशों में मैंने एकेवाद्वितीय परमेश्वर परमकृपालु देवाधिदेव की ऎसी महती कृपाओं का विवरण दिया है जिसे
स्वयम मैंने तथा मेरे निकटतम उन विशिस्ट परिजनों ने अनुभव किया है जिन पर मैं अपने आप से भी अधिक विश्वास करता हूँ !
मेरी न पूछिये ,मैंने तो अपने अस्सी-दो-बयासी वर्ष के जीवन का एक एक पल केवल " प्रभु की करुणा " के सहारे ही जिया है ! मैंने अपने जीवन में मात्र संकट की घड़ी में ही नहीं वरन हर पल ही " उनका" वरद हस्त अपने मस्तक पर फिरता महसूस किया है !
लेकिन कृपा अनुभवों की अगली कथा अब मैं कहाँ से शुरू करूँ मुझे अभी समझ में नहीं आ रहा है !
प्रतीक्षा कर रहा हूँ "उनकी" एक ऎसी "प्रेरणा" की , जो अभी ही मेरी स्मृति पटल पर मेरे जीवन की कोई एक ऎसी विशेष घटना अंकित कर दे जिसका जग जाहिर हो जाना अब "उन्हें" मंजूर है ! जब तक उनका इशारा होता है चलो ---
आपको याद दिला दूँ : वह कहानी नवेम्बर २००८ की है ! प्रियजनों ! निश्चय ही आप मेरी पत्नी तथा अन्य निकटतम स्वजनों के समान ही कहोगे कि मुझे उस घटना की याद बार बार नहीं करनी चाहिए ! पिछले २ वर्षो से इन सब को समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि मानव को यह सत्य एक पल को भी नहीं भुलाना चाहिए कि आज नहीं तो कल हम सब को यह नश्वर मानव तन त्याग कर परम धाम जाना ही है ! मैंने अनेकों संत महात्माओं से ऐसा सुना है ! मेरी अपनी नासमझ बुद्धि तो इसे मान गयी है ! चलिए छोड़ें यह विषय !
मैंने उस सन्देश में छोटी सी भूमिका के बाद एक रचना की केवल प्रथम पंक्ति लिखी थी ! आज वह पूरी रचना बता रहा हूँ जिससे आपको मेरी तत्कालिक मन:स्थिति का ज्ञान हो जायेगा ! शायद आपको याद हो लम्बे कोमा के दौरान होश आने पर मैंने होस्पिटल के आई सी यूं में इसकी प्रथम दो पंक्तियाँ बड़बड़ाईं थीं :-
मात जानकी लखन लाल औ महाबीर के साथ
वंदन करते राम चरण अति हर्षित मन हनुमान
आतुर रक्षा करने को सज्जन भगतन के प्रान
अभय दान दे रहे हमे करुणा सागर रघुनाथ
रोम रोम श्री राम बिराजें धनुष बाण ले हाथ
मुझको भला कष्ट हों कैसे क्यूँ कर पीर सताये
साहस कैसे करें दुष्टजन मुझ पर हाथ उठाये
अंग संग जब मेरे हैं मारुति नंदन के नाथ
रोम रोम श्री राम बिराजे धनुष बाण ले हाथ
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निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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3 टिप्पणियां:
आपने उस हालत में भी अच्छा सोचा । निसंदेह यह प्रभुकृपा ही है
यह हृदय से निकले उद्दगार थे ...बहुत सुन्दर
गुरूजी ..मनुष्य जैसी आदत जीवन में अंगीकार कर लेता है , वैसी ही भाषा उसके उदगार से प्रवाहित होते है !
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