हनुमत कृपा - अनुभव                                                                                (३०५)
साधक साधन साधिये   
                                                     साधना के पथ प्रदर्शक -                    
         "हमारे सदगुरु"
                पिछले अंकों में मैंने आत्मकथा द्वारा अपने ऊपर हुई एक महत्वपूर्ण "गुरु कृपा"
               (उस्ताद जी की नजरे इनायत) का वर्णन किया !
              औपचारिक रीति से उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान साहेब मेरे पहले 'विद्या गुरु' थे !
               इसके बाद १९५९ में मेरे परम सौभाग्य से मुझे मेरे आध्यात्मिक -धर्मगुरु 
       श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के दर्शन हुए!
जीवन का एक एक पल  मानव को प्रभु की अहेतुकी कृपा का अनुभव कराता हैं ! इन्सान को आनंद ,विषाद, पीड़ा , व्यथा , सुख-दुःख के सभी अनुभव "हरि-इच्छा" से होते हैं ! पर साधारण मानव (जिन पर उनके दुर्भाग्यवश गुरुजन की कृपा दृष्टी  नहीं होती ) वे नाना प्रकार की भ्रांतियों में भटकते रहते हैं ! ऐसे प्राणी आनंद और सुख के अनुभव का श्रेय  तो  अपने आप को देते हैं पर अपनी पीड़ा दुःख और विषाद के लिए ईश्वर को दोषी ठहराते हैं !
मैंने पहले कहीं कहा  है , एक बार फिर कहने को जी कर रहा है की मनुष्य को मानवजन्म प्रदान कर धरती पर भेजता तो परमेश्वर है लेकिन उसको इन्सान बनाता है ,उसको मुक्ति मोक्ष का मार्ग दिखाता है उसका "सद्गुरु" ! और यह सद्गुरु भी उसे उसके परम सौभाग्य 
से एकमात्र उस परमेश्वर की कृपा से ही मिलता है !
युवावस्था में लगभग २५ वर्ष की आयु में "स्वर द्वारा" 'ईश्वर सिमरन' करने की शिक्षा पा कर , प्रातः सायं के कंठ संगीत का रियाज़ करते समय  प्रत्येक "षड्ज" के उच्चारण में उस परम प्रभु परमेश्वर को पुकारते रहने का जो अभ्यास मुझे उन ५-७ वर्षों में हुआ , उसके  फल स्वरूप मैं रेडिओ आर्टिस्ट या फिल्मो में प्ले बेक सिंगर तो नहीं बन सका पर मुझे जो अन्य उत्कृष्ट उपलब्धि हुई वह अविस्मरणीय है ,उससे मेरा जीवन धन्य हो गया सच पूछो तो मेरा यह जन्म सार्थक हो गया !
वह उत्कृष्ट उपलब्धि थी "सद्गुरु दर्शन" एवं उनके "कृपा पात्र" बन पाने का सौभाग्य !
१९५६ में मेरा विवाह एक ऐसे नगर मे हुआ जिसके लगभग सभी  प्रतिष्ठित निवासी परम संत श्री स्वामी सत्यानंदजी महाराज के शिष्य थे तथा उनके परिवार के सभी व्यस्क जन महाराज जी से दीक्षित थे तथा "राम नाम" के उपासक थे !मेरा परम सौभाग्य था यह !
                      भ्रम  भूल   में   भटकते  उदय  हुए  जब  भाग ! 
                      मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग!!
स्वामी सत्यानन्द जी उस युग के महानतम धर्मवेत्ताओं में से एक थे ! लगभग ६५ वर्षों तक जैन धर्म तथा आर्य समाज से सघन सम्बन्ध रखने पर भी जब उन्हें उस आनंद का अनुभव नहीं हुआ जो परमेश्वर मिलन से होना चाहिए तो उन्होंने इन दोनों मतों के प्रमुख प्रचारक बने रहना निरर्थक जाना और १९२५ में हिमालय की सुरम्य एकांत गोद में उस निराकार ब्रह्म की (जिसकी महिमा वह आर्य समाज के प्रचार मंचों पर लगभग ३० वर्षों से अथक गाते रहे थे)  इतनी सघन उपासना की कि वह निर्गुण "ब्रह्म" स्वमेव उनके सन्मुख "नाद" स्वरूप में प्रगट हुआ और उसने स्वामीजी को " परम तेजोमय , प्रकाश रूप , ज्योतिर्मय,परमज्ञानानंद स्वरूप , देवाधिदेव श्री "राम नाम" के महिमा गान एवं एक मात्र उस "राम नाम" के प्रचार प्रसार में लग जाने  की दिव्य प्रेरणा दी "
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शेष अगले अंक में
निवेदक:   व्ही . एन . श्रीवास्तव  "भोला"
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