गुरुवार, 22 जुलाई 2010

JAI MAA JAI MAA

जय माँ  जय माँ
श्री श्री माँ  आनंदमयी की कृपा 

श्री माँ के लिए सभी पुरुष "पिताजी" ,सब स्त्रियाँ "देवी माँ"सदृश्य और बाल वृन्द "कन्हैया  के गोप - गोपी मंडल " के सदस्य थे. स्वयम उनका निजी अहम् उनके शैशव से ही शून्य हो गया था. उन्होंने अपनी काया को आजीवन "मैं" की संज्ञा नहीं दी. उन्होंने "मैं और मेरा" जाना ही नहीं. बंगला भाषा में जिन्हें  "आमी आर आमार" कहते हैं , उसके लिए वह कहतीं थीं, "आमार" में से "आ" निकाल लें  और फिर जो बचा - क्या ? "मार",बस  वह ही हमारा तुम्हारा है. बंगला में "मार"  शब्द का अर्थ है "माँ का" .इस कथन से माँ समझातीं थीं क़ी संसार में जो कुछ भी है वह सब उस " परमेश्वरी, जग जननी माँ " का है ,तुम्हारा कुछ भी नही है फिर क्यों मेरा तेरा के चक्कर में पड़े हो.?"

याद आया ,उस शाम माँ के आगे हमने ,संत कबीरदासजी की ,पारम्परिक शैली क़ी एक रचना प्रस्तुत की थी.

हरि बिनु तेरो ,मेरे मनुआ, अपना कोई नही 
महल बनायो ,किला बनायो,तू कहे घर मेरा ,
पर ये तन भी तेरा नाही , चार दिनों का डेरा रे .  अपना कोई नहीं ..

श्री श्री माँ कहतीं थीं .

संसारिकता में लिप्त साधारण मानव जो कर्म करता है ,अधिकतर वह निज स्वार्थ सिद्धि जैसे -नाम,धन,धाम कमाने के लिए होता है .ऐसे कर्म मनुष्यों की निजी इच्छा से होते हैं.और उनकी चेष्टाओं के अनुरूप उनको सफलता अथवा असफलता मिलती रहती है 

शरणागत मनुष्यों को कर्म की प्रेरणा प्रभु स्वयम देता है. परमपिता परमात्मा स्वयम एक अदृश्य प्रेरणा-शक्ति स्रोत बन कर  उस कार्य के शुभारम्भ से समापन तक ,उस व्यक्ति का हाथ थामे उसका कार्य करवाता रहता है और अंततः उसे सफल बना देता है. पर प्रभु से 
सहयोग पाने के इच्छुक व्यक्ति को एक पल के लिए भी उस अदृश्य प्रेरणा,बुद्धि, शक्ति प्रदायक श्रोत (सर्व शक्ति सम्पन्न परमात्मा )की सुधि नहीं बिसरानी चाहिए.अपना कार्य करते समय उसे मन ही मन अपने इष्ट का सिमरन करते रहना चाहिए .हाथ काम करे 
पर मन में प्रार्थना चलती रहे.

राम अपनी कृपा से हमे शक्ति दो,
राम अपनी कृपा से हमे भक्ति दो ,
नाम जपता रहूं ,काम करता रहूँ 
तन से सेवा करूं मन से सय्य्म करूं 
नाम जपता रहूँ काम करता रहूँ 
श्री राम  जय राम जय जय राम

निवेदक:
व्ही , एन, श्रीवास्तव "भोला" 

  

कोई टिप्पणी नहीं: