बुधवार, 14 जुलाई 2010

SRI MAA ANANDAMAYIs GRACE

श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा 
गतांक से आगे   


लगभग आधे घंटे तक की बेतहाशा दौड़ धूप के बाद प्रभु ने ह्म सब पर कृपा की और फिर जब ह्म चिंता मुक्त हो कर पंडाल  में बैठ गये ,मुझे नाना जी मरहूम जनाब  'राद" साहब  का ये कलाम याद आया ,


अय राद न कर फ़िक्र न कर दिल में ज़रासोच,
भगवान के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या  सोच 


इक वख्त  मुकररर है हर इक काम का अय दिल,
बेकार तेरी फ़िक्र है  बेकार तेरी सोच

मै सोच रहा था ,काश मेरा विश्वास अपनी कुर्सी और अपने ओहदे,के बजाय  प्रभु कृपा पर होता तो हमे इतनी चिंता और इतनी निराशा का सामना नह़ी करना पड़ता.मुझे उस समय यकीन हो गया क़ी अहंकार ने मेरा दामन अभी भी नहीं छोड़ा है. मेरे परिवार के अन्य सभी सदस्यों में मुझसे कहीं अधिक परमात्मा की अहैतुकी कृपा पर श्रद्धा और विश्वास   है .Thanks to the influence of our Rev. late Hon. Chief Justice Shivdayaal ji, who mentored our entire family by eplaining  spiritualism (true BHAKTI) to children from their early childhood  शैशव से ही हमारे बच्चे अपनी दैनिiक प्रार्थना में संत तुलसीदास जी की ये चौपाइयां गाते थे .-


मैं शिशु प्रभु सनेह प्रति पालामंदरु मेरु क़ी ले हि  मराला .
मोरे सबई एक तुम स्वामी , दीन बन्धु उर अन्तर जामी
मोरे तुम प्रभु गुरु पितुमाँता,जाऊं कहाँ तजि पग जलजाता 
बालक ज्ञान बुद्धि बल हीना राखहु सरन जान जन दीना. 


पूरे परिवार की इस समवेत प्रार्थना से प्रसन्न हो कर प्रभु ने हमारी उस शाम की मनो कामना पूरी की.पर भाई ऐसा न सोचिये क़ी मैं यह प्रार्थना नहीं जानता था . जानता तो था लेकिन मैं अपनी प्रार्थना में वह समर्पण का भाव ,वह अहंकार शून्यता मन की निर्मलता शायद नहीं ला पाता था जितना प्यारे प्रभु को चाहिए. तुलसी के राम ने मानस में स्वयम कहा है:-:
निर्मल मन जन सो मोही पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा. 
जो निर्मलताऔर जो निष्कामता प्रभु श्री राम को प्रिय है वह शायद  मेरी  निजी विनती में नहीं थी .यह़ी कारण था क़ी कुर्सी और अधिकार के अहंकार से प्रेरित मेरी यह कामना क़ी कोई सेठ एक्सपोर्टर मुझे पंडाल में बैठाये ,प्रभु ने  नहीं पूरी होने दी .और इस प्रकार प्रभु ने मुझे  एक अनैतिक और गलत काम करने से  बचा लिया.


प्यारे प्रभु ने निष्काम एवं निरहंकारी भाव से की हुई  हमारे परिवार क़ी  प्रार्थना स्वीकार करके हमे न  केवल पंडाल के भीतर पहुंचाया , हमे माँ का अलौकिक दर्शन करवाया. हमे  माँ के  दर्शन मात्र से जो दिव्य आनंद=प्रसाद  मिला  उसका स्वाद ह्म आज तक भूल नहीं पाए हैं..आज भी उस शाम के आंनद और श्री श्री माँ के मुखारविंद से निकले उनके  अमृत वचनों की याद आने पर हमे जिस  आनंद की  अनुभूति होती है,उसकी स्मृति  मात्र से हमारा  सारा तन  रोमांचित हो जाता है.और मन एक अलौकिक प्रकाश  से भर जाता  है . .


क्रमशः    


निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"

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