जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेंट. (भाग एक )
मुंबई की रासलीला में हुए श्री श्री माँ के दर्शन के साथ मेरे दफ्तर,घरबार और परिवार की सभी समस्याएं एक एक कर,आप ही आप सुलझ गयीं यह समझ में आया क़ी जिस व्यक्ति के माथे पर उसके माता -पिता एवं गुरुजन के आशीर्वाद की शीतल अमृत वर्षा सतत हो रही हो उस व्यक्ति को किसी प्रकार का सांसारिक ताप कैसे सता सकता.है. जो व्यक्ति ईश कृपा का सुरक्षा कवच धारण किये हो उसे बलवान से बलवान शत्रु घायल नहीं कर सकता,उसे परास्त होने का तो सवाल ही नहीं है.
मेरे विभाग वाले,मुंम्बई से मेरा तबादला किसी कष्टप्रद स्थान में करवाना चाहते थे,पर हरि इच्छा देखिये;भारत सरकार ने मुझे ,साऊथ अमेरिका के एक पिछड़े देश के ओउद्योगिक विकास हेतु,उस देश की सरकार का सलाहकार नियुक्त करवा दिया. यह एक सम्मानजनक पोस्ट थी. मुझे शीघ्रातशीघ्र वहाँ जाना पड़ा .अस्तु ह्म १९७५ में ,२-३ वर्ष के डेपुटेशन पर मुंबई से, परिवार सहित वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना हो गये..
लगभग ३ वर्ष बाद वेस्ट इंडीज़ से भारत लौटने पर,१९७८ में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हो गयी .यहाँ मैं अपने विभाग में उत्तर भारत क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त हुआ. इसमें हमे निरीक्षण के लिए काफी टूर करने पड़ते थे.
भारत आ कर ह्मारे मन में श्री माँ के दर्शन की लालसा दिनों दिन प्रबल होने लगी.एक बार ह्म कालकाजी में श्री माँ के आश्रम गये भी पर इस बार माँ का जन्म दिवस बेंगलूर में मनाया जा रहा था, माँ वहाँ गयीं थी. अस्तु माँ के दर्शन नहीं हुए. ह्म अशोक विहार से कालका जी गये थे , दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर पर. बड़ी निराशा हुई
अगली सुबह मुझ को टूर पर आगरा जाना था .शाम की निराशा से मन दुख़ी था जाने को मन नहीं कर रहा था.पर जाना तो था ही.विचार किया, व्यक्ति एक निराशा के कारण अपने कर्म तो नही छोड़ सकता. अस्तु सबेरे ७ बजे , ताज से रवाना हुआ, १० बजे पहुंचा, १२ बजे तक निरीक्षण पूरा करके आगे कानपूर ऑफिस का आकस्मिक निरीक्षण करने का . कार्यक्रम बना लिया. आगरे से कानपूर तक की रेल यात्रा की व्यवस्था हो .गयी और मैं तूफान मेल पर सवार हो गया
पहले दर्जे की कोच एकदम जर्जर दशा में थी. दरवाजे बंद नही होते थे खिडकियों में शीशे नहीं थे. कंडक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया "सर,माफ़ करे, विदयारथियों का राज है सर आप दरवाज़ा लोक कर के बैठें. खोलिएगा नहीं,चाहे लाख खटखताएं, कानपूर में ही दरवाज़ा खोलियेगा". कुछ जुगाड़ कर के उसने कूपे बंद करवा दिया .
मैं नीचे बर्थ पर बैठता,लेटता कभी कुछ पढ़ कर कभी कोई भजन गुनगुना कर समय काटता रहा.स्वामी जी के भजनों की पुस्तिका पॉकेट में थी, उसमे का यह भजन कल से ही पूरे जोर शोर से कंठ से फूट रहा था .बंद रेल के डिब्बे को मैं इसी धुन से गुंजाता रहा .
कानपूर के आउटर सिग्नल पर गाड़ी रुक गयी. और उसके बाद जो कुछ भी हुआ कल सुनाऊंगा. तब तक आप भी जयकारे में शमिल हो जाइये
जय माँ, जय माँ, जय जय जय जय माँ..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेंट. (भाग एक )
मुंबई की रासलीला में हुए श्री श्री माँ के दर्शन के साथ मेरे दफ्तर,घरबार और परिवार की सभी समस्याएं एक एक कर,आप ही आप सुलझ गयीं यह समझ में आया क़ी जिस व्यक्ति के माथे पर उसके माता -पिता एवं गुरुजन के आशीर्वाद की शीतल अमृत वर्षा सतत हो रही हो उस व्यक्ति को किसी प्रकार का सांसारिक ताप कैसे सता सकता.है. जो व्यक्ति ईश कृपा का सुरक्षा कवच धारण किये हो उसे बलवान से बलवान शत्रु घायल नहीं कर सकता,उसे परास्त होने का तो सवाल ही नहीं है.
"जाको राखे साइयां मार सके ना कोय
बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय "
मेरे विभाग वाले,मुंम्बई से मेरा तबादला किसी कष्टप्रद स्थान में करवाना चाहते थे,पर हरि इच्छा देखिये;भारत सरकार ने मुझे ,साऊथ अमेरिका के एक पिछड़े देश के ओउद्योगिक विकास हेतु,उस देश की सरकार का सलाहकार नियुक्त करवा दिया. यह एक सम्मानजनक पोस्ट थी. मुझे शीघ्रातशीघ्र वहाँ जाना पड़ा .अस्तु ह्म १९७५ में ,२-३ वर्ष के डेपुटेशन पर मुंबई से, परिवार सहित वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना हो गये..
लगभग ३ वर्ष बाद वेस्ट इंडीज़ से भारत लौटने पर,१९७८ में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हो गयी .यहाँ मैं अपने विभाग में उत्तर भारत क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त हुआ. इसमें हमे निरीक्षण के लिए काफी टूर करने पड़ते थे.
भारत आ कर ह्मारे मन में श्री माँ के दर्शन की लालसा दिनों दिन प्रबल होने लगी.एक बार ह्म कालकाजी में श्री माँ के आश्रम गये भी पर इस बार माँ का जन्म दिवस बेंगलूर में मनाया जा रहा था, माँ वहाँ गयीं थी. अस्तु माँ के दर्शन नहीं हुए. ह्म अशोक विहार से कालका जी गये थे , दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर पर. बड़ी निराशा हुई
अगली सुबह मुझ को टूर पर आगरा जाना था .शाम की निराशा से मन दुख़ी था जाने को मन नहीं कर रहा था.पर जाना तो था ही.विचार किया, व्यक्ति एक निराशा के कारण अपने कर्म तो नही छोड़ सकता. अस्तु सबेरे ७ बजे , ताज से रवाना हुआ, १० बजे पहुंचा, १२ बजे तक निरीक्षण पूरा करके आगे कानपूर ऑफिस का आकस्मिक निरीक्षण करने का . कार्यक्रम बना लिया. आगरे से कानपूर तक की रेल यात्रा की व्यवस्था हो .गयी और मैं तूफान मेल पर सवार हो गया
पहले दर्जे की कोच एकदम जर्जर दशा में थी. दरवाजे बंद नही होते थे खिडकियों में शीशे नहीं थे. कंडक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया "सर,माफ़ करे, विदयारथियों का राज है सर आप दरवाज़ा लोक कर के बैठें. खोलिएगा नहीं,चाहे लाख खटखताएं, कानपूर में ही दरवाज़ा खोलियेगा". कुछ जुगाड़ कर के उसने कूपे बंद करवा दिया .
मैं नीचे बर्थ पर बैठता,लेटता कभी कुछ पढ़ कर कभी कोई भजन गुनगुना कर समय काटता रहा.स्वामी जी के भजनों की पुस्तिका पॉकेट में थी, उसमे का यह भजन कल से ही पूरे जोर शोर से कंठ से फूट रहा था .बंद रेल के डिब्बे को मैं इसी धुन से गुंजाता रहा .
जगन मात जगदम्बे तेरे जयकारे
तू शक्ती भगवती भवानी ,महिमा मय महामाया बखानी,
विश्व रचे पाले संघारे
जगन मात जगदम्बे तेरे जय कारे
जय माँ, जय माँ, जय जय जय जय माँ..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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