बुधवार, 28 जुलाई 2010

JAI MAA JAI MAA

जय माँ   जय माँ
श्रीश्री माँ आनंदमयी से अंतिम मिलन (भाग - २ )

कानपूर सेंट्रल के आउटर सिग्नल (पश्चमी) पर तूफ़ान जितनी देर खड़ी रही मैं बेचैनी से कूपे में इधर से उधर चहल कदमी करता रहा. बार बार ब्रीफ केस खोलता ,फेस-नेपकिन से चेहरा पोंछता ,शीशे में मुंह देखता हुआ अपने (तब के) काले घने बालों पर कंघी फेरता (अब की न पूंछो ,अब तो वे काले घुंघराले केश ,९९ प्रतिशत काल कलवित हो चुके हैं ,और जो १--२ प्रतिशत बचे हैं , वे भी अब गये, तब गये कर रहे हैं ).निज स्वभावानुसार मैं फिर भटक गया, मुआफ करना पाठकों. अब सम्हल गया हूँ ,चलिए विषय विशेष पर बढ़ें .

थोड़ी देर में कंडक्टर महोदय,जो आगरे पर ही अंतर्ध्यान हो गये थे सहसा प्रगट हो गये. "सर, क्या बताएँ ,सब सोते ही रहते हैं,स्टेशन पर कोई लाइन देने वाला नही. घंटे भर से तूफान खड़ी है किसी को फ़िक्र ही नही". वो टले तो कोच अटेंडेंट ,हाथ में झाडन फहराते मेरी सीट की सफाई में जुट गया. मैं उसका मकसद समझ गया और उसकी जवाबी सेवा मैंने भी कर दी.खुश हो कर बोला,"साहेब, इहाँ तो सबे क्न्फुस हैं , लाइन मैनो चक्कर मैं पड़ा है ,उसको स्टेशन से कोई बताता ही नही है क़ी कौन प्लेटफोर्म की लाइन बनावे ,रोज़ तो ६ नम्बर पर जाती है आज ,दहिने घूमी ,एक नम्बर पर जाने वाली है शायद , दहिने दरवज्जे उतरियेगा साहेब". अटेंन्देंट की "जी के" कंडक्टर साहेब से ज़्यादा अच्छी थी

खरामा खरामा ,जनवासे की चाल से रेंगती तूफ़ान कानपूर सेंट्रल के प्लेटफार्म नम्बर एक में दाखिल हुई.शुरू से आखिर तक सारा प्लेटफॉर्म बिलकुल सुनसान था , न कोई कुली ,न कोई पसिंजर ,न पान बीडी सिगरेट वाले ,न चाय वालों की आवाज़.,ऐसा लगा जैसे किसी करफ्यू लगे शहर में आ गये हैं. मैं हाथ में ब्रीफ केस लिए,पहले खिडकी से फिर दरवाजे पर खड़ा होगया. प्लेटफोर्म खतम होने को आया , जी आर पी , गुड्स बुकिंग शेड के सामने हमारा डिब्बा रुका. मैं खिडकी से दांये बाएं , आगे पीछे देखता रहा, कहीं कुछ न दिखा . बड़ी निराशा हुई , मैं,कानपुर का सपूत , एक अमेरिकन देश के विकास की चेष्टा सम्पन्न करके ३-४ वर्ष के बाद अपने शहर आया हूँ, और बाजा गाजा तो दूर, यहा एक प्राणी  भी पुष्प माला लिए मेरे स्वागत के लिए नहीं आया है. ( यह है  ,मानव के चारित्रिक दुर्बलता का एक ज्वलंत उदाहरण - चार वर्ष पूर्व ही ,श्री श्री माँ आनंदमयी ने जिस व्यक्ति को अहंकार शून्य करने की दीक्षा दी थी, वह व्यक्ति आज पुनः अहंकार के दलदल में धंसा जा रहा था )

अनमने भाव से मैं धीरे धीरे सम्हल कर कोच के बाहर आया. बाएं दायें वही सूनापन था गेट की ओर जाने को घूमाँ तो नजर आयीं , अँधेरे में,बिलकुल अकेली ,आराम कुर्सी पर आँख बंद किये बैठी , एक ऊंचे बंगाली परिवार की , असाधारण आकर्षक व्यक्तित्व वाली दीदी माँ - ठाकुर माँ (दादी माँ -नानी माँ  )सरीखी महिला. ठिठक कर जहाँ था वही खड़ा रह गया. कौन हो सकतीं हैं यह ? सेन परिवार की अथवा गांगुली परिवार की? क्यों अकेले ही हैं वह यहाँ ? कुछ पलों को मैं इन्ही प्रश्नों में उलझा रहा. क़ि अचानक बिजली सी चमकी--मुह से अनायास ही निकलने लगा "जय माँ, जय माँ , जय माँ"

प्रियजन, वह कोई अन्य नहीं था , वह माँ ही थी.श्री श्री माँ आनंदमयी ही थीं . मैंने बिलकुल हाथ भर की दूरी से उन्हें देखा .हाथ जोड़ कर उनके आगे खड़ा रहा. उनकी पार्थिव आँखे बंद थीं .पर उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से अवश्य मुझको पहचान लिया था (आगे खुलेगा क़ि कैसे पता चला हमे यह.). इसी स्थिति में मेरे कुछ पल बीते , धीरे धीरे थोड़े ,बहुत थोड़े बस ५-७ लोग वहा आये. सिंघानिया परिवार के युवराज दिखायी दिए अपने स्टाफ के साथ स्वयम दौड़ धूप करके माँ की यात्रा सुखद बनाने की व्यवस्था करते हुए.हा तभी कोई टिकट लाने गया, कोई स्टेशन मास्टर से मिलकर अच्छी बर्थ रिजर्व करवाने. तभी माँ के परम भक्त सेवक , स्वामी निर्मलानंद जी (वही जिन्होंने १९७४ के मुंबई समारोह में हमे माँ की सेवा में भजन कीर्तन गाने का सौभाग्य दिलाया था) माँ का असबाब लिए आते दिखे. किसी ने उनका नाम पुकारा , इस प्रकार मैंने तो उन्हें पहचान लिया  ,उन्होंने हमे पहचाना , या नहीं कहना मुश्किल है.

अब सबसे चमत्कार की बात सुने ,स्वामी जी ने माँ का बिस्तर उसी कोच में उसी बर्थ पर बिछाया जिस पर मेरा यह अधम शरीर दिन में ६-७ घंटे बैठा था. जिस पर बैठे बैठे मैंने भजन गा गा कर सफर का समय काटा था मैंने निश्चय किया क़ि गाड़ी छूटने तक वहीं रहूं. सो रुका रहा. आश्चर्य हुआ जब स्वामी जी ने मुझसे कान में कहा "माँ डाक्चेन आपोनाय " (माँ आपको बुला रहीं हैं )

मुझको और क्या चाहिए था,जिनके दर्शन के लिए वर्षों से ह्म तरस रहे थे वही माँ बुला रहीं थीं . .मैं दौड़ कर कोच पर माँ के पास उनके कूपे में पहुँच गया. स्वामी जी पीछे पीछे आये.. माँ ने एक पर्चा उन्हें दिया जिसे पढ़ कर वह हमसे बोले "माँ पूछ रही हैं आपका विदेश का प्रवास कैसा रहा? परिवार कैसा है?"  मेरे मुह पर जैसे ताला लग गया हो , आँखे झर झर बरस पडीं कंठ अवरुद्ध हो गया. क्या बोलता ? माँ की दोनों चमकदार आँखें और उनके हाथों की वह आशीर्वादी मुद्रा अभी भी रोमांचित कर रही है हमे

प्रियजन मेरे साथ आप भी मन ही मन माँ का आवाहन कर उन्हें नमन करें और जय माँ ,जय माँ, कर के सम्पूर्ण जगत को आनंद से भर दें .

कल कुछ और बातें बताउँगा आज से ही सम्बंधित..

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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