जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेट (भाग-३ )
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण , अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमे हमारा केवल एक उद्देश्य था क़ि किसी प्रकार , आप सब के समक्ष उस करुना सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदहारण पेश करके आपको कन्विंस करूं , आपको विश्वास दिला सकूं क़ि हमारा - आपका , इस विश्व में,एक मात्र हितेषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाज़ी में कहीं भी असत्य का सहारा नही लिया है.
इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये,कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमे. पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं. और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की . कृपया यकीन करिये क़ि मुझको कानपूर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया.और ...मैं नहीं जानता था क़ि श्री श्री माँ उन दिनों कानपूर में ही थीं,यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपूर जाकर उनके दर्शन कर सकता था.यह भी सोचने की बात है क़ि उस खास दिन मैं आगरे से,कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है -("बा बहू और बेबी" की मीनाक्षी की तरह), "भाई मैंने कुछ भी नह़ी किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई आप माने या न माने मेरा तो एक ही उत्तर है जो भी हुआ वह-मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया "प्रियजन, यह सच है ,सारी क़ि सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे..
अब आप दूसरी तरफ की कहानी सुनिए.:
माँ बिना कोई पूर्व सूचना दिए,अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपूर पहुंची थी.वह कानपूर के अपने होस्ट परिवार के, अति रुग्ण पितामह को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का भी विचार बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुचाने का आग्रह किया. होस्ट परिवार के युवराज उन्हें स्टेशन ले तो आये. पर अब माँ से पूछे कौन क़ि कहां का टिकट बनवाया जाये .इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था.उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी.अटकलें लग रहीं थीं ---
माँ शायद ,दिल्ली या देहरादून ,पश्चिम दिशा में कहीं जाना चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफोर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी..
पर जब श्री माँ ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा क़ि पूर्व की ओर जानेवाली एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है.माँ को वहाँ पहुंचना होग़ा .पर माँ आँख बंद किये बैठी रहीं ,चुपचाप, समझने वाले जान गये क़ि माँ वहा से उठना नहीं चाहतीं थीं. स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया , बमुश्किल तमाम राजी हो गये क़ि तूफ़ान को ६ के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ .
अब आपही बताएं मेरे प्रियजनों,ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है .ऎसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु ह्म सब का प्यारा प्रभू ही कर सकता है .उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है,और किसको हानि होती है,,यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग.कर कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो,नाम जपते रहो.कम से कम यह पढ़ते समय तो उनको याद कर लो, और फिर देखो रिद्धिसिद्धि कैसे आपको पुरुस्कृत करती है. अब तो मेरे प्यारे स्वजनों माँ की जयकारबोलो..
"सारे बोलो , मिल के बोलो , प्रेम से बोलो जय माँ , जय माँ"
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेट (भाग-३ )
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण , अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमे हमारा केवल एक उद्देश्य था क़ि किसी प्रकार , आप सब के समक्ष उस करुना सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदहारण पेश करके आपको कन्विंस करूं , आपको विश्वास दिला सकूं क़ि हमारा - आपका , इस विश्व में,एक मात्र हितेषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाज़ी में कहीं भी असत्य का सहारा नही लिया है.
इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये,कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमे. पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं. और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की . कृपया यकीन करिये क़ि मुझको कानपूर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया.और ...मैं नहीं जानता था क़ि श्री श्री माँ उन दिनों कानपूर में ही थीं,यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपूर जाकर उनके दर्शन कर सकता था.यह भी सोचने की बात है क़ि उस खास दिन मैं आगरे से,कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है -("बा बहू और बेबी" की मीनाक्षी की तरह), "भाई मैंने कुछ भी नह़ी किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई आप माने या न माने मेरा तो एक ही उत्तर है जो भी हुआ वह-मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया "प्रियजन, यह सच है ,सारी क़ि सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे..
अब आप दूसरी तरफ की कहानी सुनिए.:
माँ बिना कोई पूर्व सूचना दिए,अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपूर पहुंची थी.वह कानपूर के अपने होस्ट परिवार के, अति रुग्ण पितामह को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का भी विचार बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुचाने का आग्रह किया. होस्ट परिवार के युवराज उन्हें स्टेशन ले तो आये. पर अब माँ से पूछे कौन क़ि कहां का टिकट बनवाया जाये .इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था.उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी.अटकलें लग रहीं थीं ---
माँ शायद ,दिल्ली या देहरादून ,पश्चिम दिशा में कहीं जाना चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफोर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी..
पर जब श्री माँ ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा क़ि पूर्व की ओर जानेवाली एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है.माँ को वहाँ पहुंचना होग़ा .पर माँ आँख बंद किये बैठी रहीं ,चुपचाप, समझने वाले जान गये क़ि माँ वहा से उठना नहीं चाहतीं थीं. स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया , बमुश्किल तमाम राजी हो गये क़ि तूफ़ान को ६ के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ .
अब आपही बताएं मेरे प्रियजनों,ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है .ऎसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु ह्म सब का प्यारा प्रभू ही कर सकता है .उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है,और किसको हानि होती है,,यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग.कर कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो,नाम जपते रहो.कम से कम यह पढ़ते समय तो उनको याद कर लो, और फिर देखो रिद्धिसिद्धि कैसे आपको पुरुस्कृत करती है. अब तो मेरे प्यारे स्वजनों माँ की जयकारबोलो..
"सारे बोलो , मिल के बोलो , प्रेम से बोलो जय माँ , जय माँ"
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",
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