शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR (Sep.2,'10)

हनुमत कृपा -निज अनुभव

गतांक से आगे


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुक्खः (गीता : ६/१७ )

पिछले ५ - ६ वर्षों से ,बिना नागा ,प्रतिदिवस दर्जन भर शक्तिशाली विलायती औषधियों और नियंत्रित खान -पान व्यायाम ने मुझे खड़ा तो कर दिया है पर ऐसा लगता है क़ी इनके कारण मेरा शरीर अधिक कमजोर हो गया है और मेरी स्मरण शक्ति भी अति क्षीण हो गयी है.

प्रियजन,मुझे एक विचित्र अनुभव हो रहा है अभी मुझे वर्षों पुरानी घटनाएँ तो भली भांति याद आती रहतीं हैं पर ऐसा लगता है जैसे हाल की घटनाएँ पूर्णतः विस्मृत हो रहीं हैं

२००८ के हॉस्पिटल प्रवास के दौरान क्या क्या हुआ मुझे अब वो भी पूरा पूरा याद नहीं है. ह्मारे वे प्रियजन जो उनदिनों वहाँ हमारी देखभाल कर रहे थे, वे कभी कभी कुछ ऎसी घटनाओं की याद दिलाते रहते हैं जिनकी चर्चा मैं उनसे अपनी उन दिनों की लम्बी तन्द्रा टूटने पर (बेहोशी से जागने के बाद ) किया करता था..

उन कृपा दृष्टान्तों में से एक आपको यहाँ बता रहा हूँ.आपसे एक प्रार्थना है क़ी मेरे इस कथन को"मेरा (निज) अनुभव" मान कर पढ़ें .इस पर कोई अनावश्यक चर्चा न करें मैं ये अनुभव इस लिए बता रहा हूँ क़ी इष्ट-कृपा पर भरोसा रखने वाले मेरे प्रियजन भी अपने अपने इष्ट के उतने ही कृपा पात्र बन सकें जितना यह अति साधारण नामानुरागी दासानुदास बन पाया है.

होस्पिटल प्रवास के दौरान अपनी अचेतन अवस्था में एक दिन मैंने देखा क़ी मैं एक राज प्रासाद के विशाल सिंहद्वार के बाहर खडा हूँ. रात का समय है ,प्रासाद की प्राचीर के बाहर घनघोर अँधेरा है . हाथ को हाथ नहीं सूझता है. लेकिन खुले द्वार के आगे इतना प्रकाश है क़ी आखें चका चौंध हो रहीं हैं. एक उज्वल ज्योति पुंज के अतिरिक्त , वहाँ पर मुझे और कुछ भी नहीं दिखायी दिया

कौतूहल वश यह जानने के लिए क़ी वह महल किसका है मैं उसमे प्रवेश पाने के लिए अति उत्सुक हो रहा था लेकिन एक बिलकुल अनजान और सूनसान महल में घुसने का साहस मैं नह़ी कर पा रहा था. जितना विलम्ब होता रहा मेरी उत्सुकता उतनी ही बढती गयी.

प्रियजन !
श्री कृष्ण जन्म का समय हो गया. बधाई हो .
यहीं समाप्त करता हूँ.


निवेदक: व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"

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