गुरुवार, 23 सितंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 169

सब हनुमत कृपा से ही क्यों ?
निज अनुभव 

मैं विमान की कुर्सी पर बेल्ट बांधे अपनी दोनों आँखे बंद किये इष्टदेव को मनाता रहा !थोड़ी देर में यान के एनजिन चालू हो गये. प्रोपेलर घूमने लगे और वायुयान उसी तरह हिलता डुलता  नाना प्रकार की आवाजें करता हुआ अपनी लड्खडाती टेढ़ी चाल से रनवे पर सरकने लगा ! मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं पिछली शताब्दी के १९३०-४0 वर्षों मे छोटी लाइन की रेलगाड़ी (B&NWR) के सुरेमनपुर स्टेशन से अपने पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर तक की यात्रा अपनी खानदानी खटारा घोड़ागाड़ी से कर रहा हूँ ! 

इस बीच मेरे मन में श्री हनुमान चालीसा का पाठ चलता रहा और मैंने कितनी ही बार यात्रा का सगुन बनाने के लिए बुजुर्गों से सुना हुआ संत  तुलसी का वह दोहा गुनगुनाया जो ह्मारे पूर्वज ह्म बच्चों को आशीर्वाद स्वरुप हमारी यात्राओं  की सफलता की कामना करते हुए प्रस्थान से पहले एक सिद्ध मंत्र की तरह बोलते थे ! वह दोहा था :-


राम लखन कौशिक सहित   सुमिरौ  करो पयान!
लच्छि लाभ जय जगत यश मंगल सगुन प्रमान!!


आधुनिक जेट विमानों पर सफर कर चुके यात्रिओं को उस मालवाहक डकोटा पर सफर करने मे कैसा लग रहा होगा आप समझ रहे होंगे! प्रियजन जरा आप मेरी दशा भी  सोचिए मैंने तो वह डिफ्लेट हो रहा पहिया भी देखा था! मेरा हाल बेहाल हो रहा था ! 


"Should I confess ? Dear Swajans!  At that time I was much younger. Till then my FAITH in GODs GRACE and KINDNESS  had  not grown so strong as it is now."


अब कल देखियेगा आगे क्या हुआ !


निवेदक:- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"





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