रविवार, 5 सितंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR (Sep.5,'10 )

हनुमत कृपा -निज अनुभव
गातांक  से आगे

मेरी बंद आँखों के आगे था  वह दिव्य प्रकाश जिसने कुरुक्षेत्र में  महारथी अर्जुन को चकाचौंध कर दिया था. मेरी और अर्जुन की स्थिति में अन्तर केवल यह था क़ि अर्जुन को उस विराट रूप के साथ साथ अपने निकटतम स्वजन  भी युद्ध क्षेत्र में उसके आस पास दिखयी दे रहे थे पर मुझे  उस  दूधिया उज्ज्वल  प्रकाश पुँज के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था.दूर दूर तक मेरा (मेरे इस  मानव तन का ) कोई सम्बन्धी मुझे उस झांकी में नहीं दिख रहा था.  पर मुझे जो दिखाई दिया उसके विषय में यही कहूँगा क़ि:


जो नहि देखा  नहि  सुना ,जो   मनहू  न समाइ ,
सो सब अद्भुत  देखेउ ,बरनि कवनि  बिधि जाइ !!  (मानस उत्तर -८०-क -)


उस धवल प्रकाश पुँज में मैंने सूर्य की आभा,चंद्रमा की शीतलता  तथा सप्त महांसागरों से उठीं पावसीय श्वेत श्यामल घटाओं को हिमाच्छ्दित पर्वत शिखरों से आलिंगन की प्यास बुझाने को  बेचैनी से अनंत नीलाकाश  में मंडराते देखा. .  .


पर वह मनमोहक सौम्य स्वरूप मुझे नहीं दिखा जो मेरी जांनकारी के अनुसार अनेकानेक  सौभाग्यशाली भक्तों को दिखाई दिया है .प्रियजन ! मुझे इस बात से  कोई दुःख नहीं ,कोई  निराशा नहीं हुई. मुझे तो इस बात का ही संतोष है क़ि आप सब की साधना ,शुभकामना, और प्रार्थना के फलस्वरूप मुझे  सृष्टि के कण कण में व्याप्त सर्वशक्तिमान सर्वज्ञं  प्रभु का मंगलमय स्वरूप उस "ज्योति पुंज" में  देखने को मिला  .  शेष कथा कल.


निवेदक :- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला".

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