हनुमत् कृपा - निज अनुभव
मै अपनी मन की उड़ान में अपने साथ आपको भी कहाँ कहाँ भटका रहा हूं ।दिल्ली से "परम धाम' (डलहोजी ) तक की यात्रा में अब तक मेरे साथ साथ आपने भी अनायास ही तन से मन तक की ,स्थूल् से सूक्ष्म तक की ,साकार से निराकार तक की ,तथा शून्य से शब्द तक की यात्रा कर ली ।
प्रियजन ! पर नोएडा के अस्पताल में आपात सेवा प्राप्त कर रहे मेरे अचेत शरीर की बन्द आन्खो के रजतपट पर प्रदर्शित हो रहे चलचित्र में मै जिस विशालकाय सिंहद्वार के संमुख खड़ा था वहाँ खड़ा का खड़ा ही रह गया !, भौचक्का सा ,मन्त्र मुग्ध हो मैं ,उस तेजोमय ज्योति पुन्ज का दिव्य दर्शन करता रहा । मेरी दशा उस प्यासे राही के समान थी जिसे तपते मरुस्थल में दूर से ही एक हरा भरा ओसीस दिखायी पड़ रहा हो ,पर उसके पग इतने शक्तिहीन हो कि आगे बढ़ पाना उसे दुष्कर हो रहा हो।
उठते नहीं चरन , निर्बल मै , कैसे आ पाऊँगा अन्दर
में हूं वह, प्यासा राही जो, मूर्छित हुआ द्वार पर आकर !!
प्रीतम प्यारे आगे आओ , गिर जाऊँगा हाथ बढ़ाओ
भरलो मुझे अङ्क में अपने जनम जनम की प्यास बुझाओ
उस बुलन्द दरवाजे के आगे में निर्बल बेबस निराश्रय प्राणी अवाक् खडा प्रासाद मे प्रवेश पाने को व्याकुल हो रहा था। मै उस दूधिया प्रकाश पुन्ज को निकट से देखना चाहता था और उस मे समाहित सात रन्गी किरणो से अपने रोम रोम को नहला देना चाहता था l
प्रियजन,पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।आप तो जानते ही हैं कि "वो ही होता है जो मन्ज़ूरे खुदा होता है "।अपने तुलसी दासजी भी तो कह गये है कि" होइहि सोई जो राम रचि राखा " और फ़िर् नाना जी जनाब् "राद" साहेब मरहुम ने भी तो कहा है
इक वख्त मुकर्रर है हर एक काम का अय दिल
बेकार तेरी फ़िक्र है बेकार तेरा सोच !!
अल्लाह के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या सोच !!
देखो मेरे प्यारे स्वजनो ,मै स्वयम् यह संदेश लिख रहा हूं । आप सबको इतना तो विश्वास हो ही गया होगा कि मैं आप सब के बीच हूं ,स्वस्थ भी हूं , इसलिये चिन्ता करने की कोईबात ह़ी नहीं है ।आज नहीं तो कल तक शायद मुझ को उस महेल् में प्रवेश मिल ही जायेगा । थोडी प्रतीक्षा और कर ले।
निवेदक : वही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
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