हनुमत् कृपा - निज अनुभव
गतान्क से आगे
अस्थिर बाह्य जगत का क्षणभन्गुर वैभव और सौन्दर्य निहारने मे व्यस्त हमारी ये स्थूल आंखे उस "परम" को सामने देख कर भी न तो उसे जान सकती है न उसे पहचान ही सकती है। उसे जानने,देखने और पहचाने के लिये हमे अपने अन्तर के दिव्य चक्षु खोलने का यत्न करना पड़ेगा ।
यह कठिन तो है पर असंभव नही
सदगुरु की कृपा के अतिरिक्त हमारे पूर्व जन्म की कमाई तथा इस जन्म मे किये सुकर्म-कुकर्मो का लेखा जोखा और ह्मारे वर्तमान जीवन के माता-पिता और पूर्वजों की पुन्याई , हमारे आत्म ज्ञान को जाग्रत करने में सहायक होते है!
अपने पूर्व जन्म के कर्म
और अपने माता पिता के की पुण्याई पर अब हमारा कोई भी नियंत्रण नही है पर इस जन्म मे तो हमे अपने कर्मो पर पूरा कंट्रोल है ही !
निश्चय ही उत्तम कर्म करने से कोई भी प्रभु का प्रेम पात्र बन सकता है! प्रभु की कृपा से साधक का भाग्योदय हो जाता है जिससे उसको संत महात्माओं का दर्शन होता है तथा सतत सत्संग का लाभ मिलता है ! गुरुदेव श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के शब्दो मे
पथ मे प्रगटे सद्गुरु हस्त पकड़ कर आप
ताप तप्त को शान्त कर दिया नाम का जाप !
भ्रम भू ल मे भटकते उदय हुए जब भाग
मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग !
सच्चे संत की शरण मे ,बैठ मिले विश्राम
मन माँगा फल तब मिले जपे राम का नाम !
श्री गुरु की कृपा से साधक के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं! वह बाह्य जगत से अधिक अपने "अंतर" की दिव्य सुन्दरता निरखने लगता है ! अन्तःस्थल में ,साधक के सन्मुख वह सूक्ष्म "परम" उसी क्षण अवतरित हो जाता है ! गुरु कृपा से कैसा चमत्कार हो गया. ?
अब प्रश्न यह है क़ि किसी साधक को ऎसी गुरु कृपा कैसे प्राप्प्त हो सकती है ?. अगले अंक में बताऊंगा !
निवेदक: व्ही. एन.. श्रीवास्तव "
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें