बाबा दादी की तीर्थ यात्रा
श्री हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन
"काया का पिन्जरा डोळे रे ,
इक सान्स का पन्छी बोले रे"
इक सान्स का पन्छी बोले रे"
अभी एक अन्तरा ही गाया था उन्होने कि बाबाजी ने टोक कर कहा "इ का चालु कइल बडे बाबु ,रोये धोने वाला गाना. अभीन हम पिन्जरा ना छोरब , काहे देरात बाड। हम लौट के आयिब बाबु , चिन्ता मत कर।" बाबाजी क्या सोच कर ऐसा कह् रहे थे , उस समय वहां कोई कैसे जानता।
गाडी आयी , इन्टर क्लास के डिब्बे मे बाबा-दादी सवार हुए, और तीसरे क्लास मे मिसिर जी अप्नी फ़ेमिली के साथ । बेण्ड बाजे वाले और परिवार के लोग वापस चले गये। स्टेशन की बत्ती बुझ गयी ।
तीर्थ यात्रा उन दिनो बडी दुर्गम होती थी। भाग्यशाली ही जा पाते थे । जो सकुशल लौट आता था . परम भाग्यशाली और सच्चा भगत माना जाता था। इसकारण यात्री गण और उनके परिवार वाले चिन्तित और आशन्कित रहते थे। घर मे पूजा पाठ की मात्रा अधिक हो जाती थी। मनौतिया मानी जाती थी। प्रति मास की जगह प्रति सप्ताह सत्य नारायण देव की कथा चालू हो जाती थी। वैसी ही आशंका हरवन्श भवन वालो को भी हो रही थी।
आशंका का विशेष कारण था , यात्रा के कार्यक्रम मे अन्तिम क्षण का हेर फेर, एकाएक दादीजी तथा मनेजर मिसिर जी और मिसिराइन को साथ लेने का निश्चय, और सबसे महत्वपूर्ण बात थी गन्गोत्री न जा कर गङ्गासागर जाने का संकल्प। बाबाजी जैसे दृढ निश्चयी व्यक्ति अपना महीनो पहले बना कार्यक्रम रद्द कर के तुरन्त ही नयी योजना बना कर चल भी दिये। इस बात पर विश्वास करना कठिन था , परिवार वालो से अधिक गाँव और टोले-मुहल्ले वालो के लिये।
कुछः लोगो को तो विदाई के समय उस विचित्र स्वरूपवाले अजनबी के अचानक आने और फिर उतनी ही शीघ्रता से गायब हो जाने की बात रहस्यमयी लग रही थी । उन्हे यह लगता था कि उस अजनबी के कारण ही शायद बाबाजी ने अपना कार्यक्रम बदला। उस अजनबी ने न जाने क्या बाबा जी से कह् दिया था ।
जो भी कारण रहा हो , बाबा दादी तो अब जा ही चुके थे। अब क्या हो सकता था? केवल प्रार्थना और शुभकामनाये के सिवाय !
क्रमशः
निवेदक: व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"