हनुमत कृपा -अनुभव                                           
साधक साधन साधिये                               साधन -"भजन कीर्तन"
प्रियजन ! मुझे मेरे इष्ट ने कृपा करके यह सौभाग्य दिया कि मैं सूरदास जी की भक्ति रचनाओं के अथाह सागर के तट पर ,गहरे जल से दूर बैठे बैठे ,अपनी ओर स्वतः आयी लहरों की बूंदों में भींग पाया ! मैंने कोई निजी प्रयास नहीं किया उस जल में डुबकी लगाने का ! जो भजन आकाशवाणी लखनऊ  से छोटी बहिन माधुरी के गाने के लिए आते थे हमारा ज्ञान उन तक ही सीमित  था ! हाँ कभी कभी अवश्य यह लिख कर आजाता था कि "सूरदास जी के"विनय  एवं  प्रेम" विषयक तीन भजन"! उस स्थिति में हमे "सूरसागर" के तट पर गहरे जल के थोड़े और निकट जाना पड़ता था ! पुस्तकों से भजन चुनने पड़ते थे और उन भजनों के शब्दार्थ और भावार्थ भली भांति समझने पड़ते थे जिससे उन भजनों के भावानुकूल  राग रागिनियों में उनकी धुन बना  सकूँ  !
इस प्रकार प्रभु की विशेष कृपा से मुझे भक्त महात्माओं की भाव भरी रचनाओं को बार बार पढने का अवसर मिलता था जिससे मैं उनके "प्रभुप्रेम" , विरह वेदना एवं दीनता के भाव अपनी तथा सीखने वालों की गायन शैली में उतार सकूँ !
प्रियजन ! रियाज़ के दौरान ,भजनों में आये "प्रभु" के नाम का उच्चारण हमे बार बार करना पड्ता था और "नाम जाप" की कोई औपचारिकता निभाए बिना , अनजाने मे ही हमारी भाव भरी "नाम जाप" की प्रक्रिया घंटों चलती रहती थी ! सूरदास जी का वैसा ही एक पद है यह ,जिसे ह्म लोग बहुत गाते थे :-
इस पद को गाते गाते हरि नाम की धुन लग जाती थी और हमारा सिमरन, जाप, कीर्तन सब का सब बस एक इसी भजन के रियाज़ से हो जाता था !
सूरदास जी का एक और पद जिसे पढ़ कर मन में विश्वास के साथ "प्रभु" के प्रति "श्रद्धा" के भाव जागृत होते थे -------"अजामिल, गणिका, गजराज जैसे पापियों का उद्धार करने वाले तथा द्रोपदी , ध्रुव एवं प्रह्लाद के कष्ट हरने वाले कृपा निधान "श्री हरि" क्या मेरी सहायता नहीं करेंगे ?--
"योगेश्वर ! आप इतनी दूर ,द्वारका से द्रौपदी बहेन की लाज बचाने आये , मैं तो आपके द्वार पर ही खड़ा हूं , मुझ पर भी कृपा करो हे नाथ !"
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इनके अतिरिक्त अन्य भक्त कवियों की रचनाएँ भी ह्म लोगों ने गायीं जिनमें तुलसी
का यह भजन हमे अतिशय प्रिय लगता था :
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प्रियजन उपरोक्त भजनों मे से एकाध को भी आपने यदि भाव सहित पढ़ लिया है तो आपके हृदय में अपने "उनके" (इष्ट देव के ) लिए श्रद्धा अवश्य उमड़ेगी और निश्चय ही "वह" आप पर कृपा वर्षा करेंगे !
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
इस प्रकार प्रभु की विशेष कृपा से मुझे भक्त महात्माओं की भाव भरी रचनाओं को बार बार पढने का अवसर मिलता था जिससे मैं उनके "प्रभुप्रेम" , विरह वेदना एवं दीनता के भाव अपनी तथा सीखने वालों की गायन शैली में उतार सकूँ !
प्रियजन ! रियाज़ के दौरान ,भजनों में आये "प्रभु" के नाम का उच्चारण हमे बार बार करना पड्ता था और "नाम जाप" की कोई औपचारिकता निभाए बिना , अनजाने मे ही हमारी भाव भरी "नाम जाप" की प्रक्रिया घंटों चलती रहती थी ! सूरदास जी का वैसा ही एक पद है यह ,जिसे ह्म लोग बहुत गाते थे :-
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो !
हरि चरणारविन्द उर धरो !!
हरि की कथा होय जब जहाँ , गंगा हूँ चलि आवे तहां !!
जमुना सिन्धु सरस्वती  आवे , गोदावरी विलम्ब न लावे !
सर्व तीर्थ को बासा तहाँ !  सूर हरि कथा होवे जहाँ !!
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो !!
इस पद को गाते गाते हरि नाम की धुन लग जाती थी और हमारा सिमरन, जाप, कीर्तन सब का सब बस एक इसी भजन के रियाज़ से हो जाता था !
सूरदास जी का एक और पद जिसे पढ़ कर मन में विश्वास के साथ "प्रभु" के प्रति "श्रद्धा" के भाव जागृत होते थे -------"अजामिल, गणिका, गजराज जैसे पापियों का उद्धार करने वाले तथा द्रोपदी , ध्रुव एवं प्रह्लाद के कष्ट हरने वाले कृपा निधान "श्री हरि" क्या मेरी सहायता नहीं करेंगे ?--
दीनन दुःख हरन देव , संतन सुखकारी !!
अलामील गीध व्याध , इनके कहु कौन साध, 
पंछी हूँ पद पढ़ात , गनिका सी तारी !!
गजको जब ग्राह गृस्यो , दुहसासन चीर खस्यो ,
सभा बीच कृष्ण कृष्ण द्रौपदी पुकारी  !!
इतने में हरि आइ गये, बसनन आरूढ़  भये ,
सूरदास द्वारे  ठाडो   आंधरो भिखारी  !!
"योगेश्वर ! आप इतनी दूर ,द्वारका से द्रौपदी बहेन की लाज बचाने आये , मैं तो आपके द्वार पर ही खड़ा हूं , मुझ पर भी कृपा करो हे नाथ !"
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इनके अतिरिक्त अन्य भक्त कवियों की रचनाएँ भी ह्म लोगों ने गायीं जिनमें तुलसी
का यह भजन हमे अतिशय प्रिय लगता था :
          तू दयाल दीँन  हौं तु दानी  हौं भिखारी 
          हौं  प्रसिद्द  पातकी  तु पाप  पुँज हारी ! 
         तोहि मोहि  नाते अनेक मानिये जो भावे !
         ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरण शरण पावे !!
तथा मलूकदास जी की रचना :
      दीँनबन्धु दीनानाथ मेरी तन हेरिये ,
        कहत है  मलूकदास  छाड दे बिरानी आस ,
        राम धनी पाय के अब काकी सरन जाइये !!
सूफियाने "तू हि तू" भाव में रचित दादूदयाल जी की यह रचना कितनी सारगर्भित है :
तू हि मेरी रसना तूही मेरे बयना 
तूही मेरे श्रवना तूही मेरे नयना  
तुही मेरे नख शिख सकल सरीरा 
तु ही मेरे जियरे ज्यों जलनीरा 
तुम बिन मेरे और कोइ नाही 
तुही मेरी जीवनि दादू माही
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क्रमशः +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
प्रियजन उपरोक्त भजनों मे से एकाध को भी आपने यदि भाव सहित पढ़ लिया है तो आपके हृदय में अपने "उनके" (इष्ट देव के ) लिए श्रद्धा अवश्य उमड़ेगी और निश्चय ही "वह" आप पर कृपा वर्षा करेंगे !
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
1 टिप्पणी:
कई वर्षों से मेरी यह धारणा रही है कि परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने भजनों पर इसलिये जोर दिया है कि हम लोग भजनों के माध्यम से ईश्वर से बात करें – उसका सिमरन करें. और तो कोई साधन हमसे बनेगा नहीं – कीर्तन करके ही अपने प्रियतम को रिझा लें – उससे बातें कर लें. मेरी इस बहुत पुरानी धरणा को आपके पिछले दो तीन ब्लाग ने पक्का कर दिया.
atul
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