"युक्ताहारविहारस्य यु क्तचेष्टस्य कर्मसु , युक्त स्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दू:खहा."
योगेश्वर श्री कृष्ण ने, अति "कृपा " कर ,उपरोक्त सन्देश, अपने प्रिय सखा अर्जुन को दिया.और आज उनकी ही "कृपा" से हमे यह प्रेरणा हुई कि हम इस सूत्र में पिरोये उपयोगी तथ्यों पर पुन: विचार करें .
अपने जीवन के कुरुक्षेत्र में विजयी होने के लिए हमें सर्व प्रथम वैसी ही "प्रभु कृपा " प्राप्त करनी है (जैसी अर्जुन को उपलब्ध थी). हमारा सौभाग्य है कि कलियुग में हम उस कृपा को अति सुगमता से, केवल नामजाप सुमिरन और भजन कीर्तन द्वारा ही पा जाते हैं, जो पार्थ को वर्षों की मित्रता के बाद प्राप्त हुई थी.
पर कृपा प्राप्ति के बाद हाथ पर हाथ डाल कर बैठने से काम नही बनेगा . सफल होने के लिए हमें स्वस्थ तन मन से, "प्रभु" द्वारा, हमारे लिए निश्चित किया कर्म, अपनी समस्त बुद्धि, विवेक और शक्ति का उपयोग करते हुए करना है .हमारे लिए आवश्यक है कि हम श्रीमद भगवत गीता के उपरोक्त आदेश का अक्षरश: पालन करें. हम संतुलित भोजन करें, समुचित व्यायाम आराम , सैर-सपाटा , खेल कूद और मनोरंजन का आनंद ले, .पर यह कभी ना भूलें कि केवल कृपा से ही आपका काम नही बनेगा . प्रभु का वरद हाथ तो आपके साथ सदा ही है . प्रभु द्वारा निर्धारित आपका कर्म --आपको अपनी पूरी क्षमता लगा कर, जितना बन पाए, उतनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार, उचित चेष्टा के साथ करना है. जीवन की महाभारत में तब ही आप विजयी होंगे. |
बहुधा अनियमतता बरतने से हम असफल, निराश और दुखी हो जाते हैं. दोष अपना है. हम अनियमित कार्य करते हैं, आवश्यकता से अधिल या कम चेष्टा करते हैं, खाने पीने में बदपरहेज़ी करते हैं , स्वास्थ्य का ख़याल नही रखते, जिसके कारण आनंद मय जीवन जीने से वंचित रह जाते हें . इस प्रकार हम अपनी ही भूलों के कारण असफल होते हैं, दुखी होते हैं और जैसा कि तुलसी ने कहा है "सो परत्र दुःख पावही सर धुन धुन पछताइ" और फिर काल, कर्म, समय और प्रभु पर मिथ्या दोष लगाते हैं. ऐसी स्थित न आने दें, प्रियजन ."उनकी" कृपा और अपनी समुचित चेष्टाओं के बल पर इस जन्म की महाभारत में हम सब विजयी हों.
"उनकी" कृपा हम पर सदा बनी रहे.
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