हनुमान जी "अहंकार" मुक्त हैं . कर्तापन का "अभिमान" उन्हें कभी हुआ ही नहीं . उन्हें जीवन में जो कुछ कार्य करने को मिले उन्होने सभी कार्य "राम काज" समझ कर किये ." कर्ता " वह केवल अपने स्वामी "श्री राम " को ही मानते थे और स्वयं को "राम काज करिबे को आतुर" एक आज्ञाकारी सेवक! अपने स्वामी की क्षमताओं में उन्हें पूरा भरोसा था .
रीछराज जामवंत के प्रेरणाप्रद प्रोत्साहन से की "हे बलवान हनुमान , तुम क्यों चुप साधे बैठे हो ? तुम्हारा बल-"पवन" के समान है ! "राम काजि लग तव अवतारा " सुनते ही वह पर्वताकार हो गए. अपने से जेष्ठ- वयस्क गुरु जनों की मंत्रणा "बिनहि बिचारि "स्वीकार कर लेना भी भारतीय संस्कृति की एक अनुकर्णीय परम्परा है.
और वह स्वयं अडिग "आत्मविश्वास" और "सकारात्मक सोच" के धनी थे. हनुमान ने सीताजी की खोज प्रारंभ करने से पहले भरपूर आत्मविश्वास से सिंहनाद किया "मै इस खारे सागर को खेल खेल में ही लांघ सकता हूँ, पर गुरुजन उचित सलाह दें की मैं क्या करूँ". विभिन्न परिस्थियों में उनके स्वभाव की शालीनता और सौम्यता सराहनीय है .
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में हनुमान जी को "बुद्धि विवेक विज्ञानं निधाना" की उपाधि दी है और "हनुमान चालीसा" के प्रारंभिक दोहे में "पवन कुमार "का सुमिरन करते हुए उनसे प्रार्थना की है : "बल बुधि विद्या देहु मोहि ,हरहु कलेश विकार " .
अवश्य ही श्री हनुमान जी के पास "बल,बुद्धि,विद्या, विवेक और विज्ञान" तथा "रिद्धि सिद्धि " का अनंत भण्डार हैं तभी तो युगों युगों से संतजन उनसे इन सद्गुणों की मांग करते जा रहे हैं और "वह" उनकी यह मांग अविलम्ब पूरी किये जा रहे हैं. प्रत्येक हनुमान भक्त को जीवन में कभी न कभी हनुमान जी की ऐसी अहेतुकी कृपा का अनुभव होता ही होता है. इसमें कोई संदेह नहीं .
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