बुधवार, 21 अप्रैल 2010

"संकटमोचन महाबीर हनुमान" से प्रथम परिचय

छुटपन में ही जान गया हनुमान जी की महत्ता .

१९२९ में जब मेरा जन्म हुआ बलिया सिटी में बिजली नही थी और उसके बाद भी १०-१२ वर्षो तक वहां बिजली नहीं आयी. .अपना परिवार वकीलों और जज मजिस्ट्रेटों का था. अपनी बैठक आगन्तुको से भरी रहती थी, दरबार सा लगा रहता था. इसलिए रात के समय बाहर मर्दानखाने में तो लेन्टर्न और पेट्रोमेक्स की रोशिनी होंती थी पर भीतर जनानखाने के कमरों में या तो मिटटी के तेल की ढिबरियां या सरसों के तेल के मिटटी के दिए ही जलाये जाते थे..आंगन गलियारा बिलकुल अँधेरा रहता था. पर बच्चो का भीतर बाहरआना जाना लगा ही रहता था. बेचारे कभी दादी जी का संदेश दादा जी को देने जाते तो कभी चाची के आदेश से चाचा को जर्देवाला पान पहुचाते . उन्हें घने अँधेरे में जाना होता था.

बचपन में हम हर गर्मी के अवकाश में बलिया सिटी जाते थे.और वहां कभी कभार मुझे भी यह ड्यूटी बजानी पडती थी. हम कानपूर से जाते थे जहाँ बिजली ही बिजली थी (आज नही, उन दिनों). आप समझ सकते हैं कि  एक शहरी बालक उस अँधेरे घर में कैसे बिना डरे रह सकता था. सो मै भी अंधकार से भयभीत हो कर वह सेवा करने से कतराता था.

मेरी प्यारी अम्मा मेरी कमजोरी भांप गयीं. उनके भोला की बदनामी हो रही थी .गोरखपुर, इलाहबाद, मैंनपुरी के बच्चे दौड़दौड़ कर बड़ों की सेवा कर रहे हैं, भोला डरकर अम्मा से चिपके बैठे हैं. अम्मा ने तभी हमारा परिचय हमारे "कुलदेवता" महावीर जी से कराया. ऊँगली पकड़ कर वह हमे घर के एक पक्के आँगन में ले गयीं. जहाँ चबूतरे के बीचोबीच एक बहुत ऊँचा हरे बांस का झंडा गडा था जो अपने घर की ऊँचाई से भी ऊँचा था . उस बांस की चोटी पर लहरा रही थी एक लाल रंग की पताका जिस पर हनुमान जी का अति चमकीला सुनहरा कट आउट सिला हुआ था.

अम्मा ने कहा जिस घर में ऐसी महाबीरी ध्वजा लहराती है उस घर मे "भूत पिशाच निकट नहीं आवे , महावीर जब नाम सुनावे" उन्होंने आश्वस्त किया कि महावीर जी के सिमिरण मात्र से "नाशे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत वीरा"

उस दिन हीअम्मा ने हमे कंठस्थ कराया "जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीश तिहु लोक उजागर" . इस प्रकार हमारी अम्मा ने ही हमे हमारा प्रथम गुरुमंत्र दिया . भारत में माता-पिता को संतान का प्रथम गुरु माना जाता है.


क्रमशः

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