रविवार, 11 अप्रैल 2010

अपनी बातें पहले

गतांक से आगे:


मेरे पास प्रियजनों के अनुरोध आ रहे हैं कि दूसरों के दृष्टांत जानने से पहले मैं पहले अपने जीवन में घटी अथवा अपने पूर्वजों को प्राप्त हुई कृपा-उपलब्धियों का उल्लेख करूँ. जानता हूँ कि ऎसी अनुभूतियों को जग जाहिर करना उचित नही है. क्यों कि नाना प्रकार के आक्षेपों का कारण बन सकती हैं ये बातें .

लेकिन मुझे आज अपने इस मानव जीवन के अंतिम पड़ाव में , ८१ वर्षा की प्रौढ़ अवस्था में, अब भय से अधिक इसकी उत्सुकता है कि मैं ये सारी बातें अपने सभी प्रियजनो से शेअर करूँ- जिससे लाभान्वित हो मेरे सभी स्वजन उस करुना सागर -कृपानिधान के कृपा पात्र बन सकें.

यूँ तो संपूर्ण मानवता प्रभु की कृपा का अनुभव अपने जन्म से मृत्यु तक प्रति पल ही करती रहती है लेकिन बिरले ही यह स्वीकार करते हैं. प्रभु की पहली कृपा तो यह ही है की हमें नर तन मिला है, हमें कीड़े मकोड़ों ,पशुओं पंछियों अथवा वनस्पतियों की योनि नहीं प्राप्त हुई. कितनी कृपा है उनकी. कोटिश धन्यवाद प्रभु तेरा.

मानस में तुलसी ने कहा है :-

"कबहुक करि करुना नर देही देत ईश बिनु हेत सनेही,
बड़े भाग मानव तन पावा सुर दुर्लभ सब ग्रंथिहि गावा"


क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं: