शनिवार, 10 अप्रैल 2010

परमात्मा की कृपा के दृष्टान्त

जब कठिन परिस्तिथियों में हमारे घनिष्ट साथी भी हमारा हाथ छोड़ कर हमें असहाय कर देते हैं परमात्मा दोनों बांह पसारे हमारी सहायार्थ दौड़ पड़ता है .कभी कभी तो हमारे पुकारने के पहले ही"प्रभु" हमारा हाथ झपट कर पकड़ लेता है .इस प्रकार 'सर्व समर्थ-सर्व शक्तिमान "परमेश्वर स्वयं उंगली थाम कर हमारा मार्ग दर्शन करता है और हमें. हमारे लक्ष्य तक पहुचा देता है.

हमारी हर उपलब्धि के पीछे "प्रभु" की अहैतुकी कृपा का अदृश्य हाथ होता ही होता है. हमारा सारा जीवन,इसी प्रकार की प्रभुकृपा- जानित चमत्कारिक सफलताओं से भरपूर है. पर यदि हम कभी उन उपलब्धियों को याद करने का प्रयास करते हैं तो उनमे से एक भी ऎसी नहीं लगती जो मेरे निजी प्रयास के कारण न प्राप्त हुई हो. हर सफलता का श्रेय हम अपने आप को ही देते हैं.हम उन अदृश्य हाथों को भूल जाते हैं जिनकी सहायता से हमें वो सफलता मिली.

दुख तो इसका है की हम अपनी उपलब्धियों के नशे में, "प्रभु" के उन वरद हस्तों का सहयोग बिलकुल ही भूल जाते हैं जिनके सहारे हमें सफलताएँ मिलीं हैं. हमें याद रहती है केवल अपनी असफलताओं की.जो हमें आजीवन रुलाती रहती हैं. और ऐसे में हम अपनी कार्य शैली में सुधार लाने की जगह केवल "प्रभु" को कोसने में जुट जाते हैं तुलसी के शब्दों में :"कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाहिं".

कितने नाशुक्रे हैं हम "इंसान " .हम उस प्यारे प्रभु को जिनकी कृपा से हम न केवल यह जीवन जी रहे हैं वरन जीवन में नाना प्रकार की सफलताएं पा रहे हैं , "उनकी" कृपाओं के लिए धन्यवाद देने के बजाय "उन्हें" अपनी असफलताओं के लिए दोषी ठहराते रहते हैं.

हम साधारण मानव,प्यारे प्रभु को, उनकी कृपा से प्राप्त अपनी "जीत" के लिए धन्यवाद तो नही देते पर अपनी "हार "के लिए उन पर दोषारोपण करना नही भूलते .अवसर मिलते ही हम उन पर आरोपों की बोछार करने से नहीं चूकते. कितने दुःख की बात है .

"लाखों योनि भटक कर हमने यह मानव तन पाया ,
यह दुर्लभ जीवन भी हमने यूँ ही व्यर्थ गंवाया .

कभी न आया संत शरण में कभी न हरिगुन गया.
जीत गया तो ढोल बजाया,हारा तो कुम्हलाया,

फिर कैसे पाता ज्ञान की करता है केवल भगवान
किया न हरि गुण गान
वो कभी न पाया जन कि वो है कठपुतली नादान
डोर जिसकी थामे भगवान."

(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं: