हनुमत कृपा
अनुभव
साधक साधन साधिये
(अंक २५२ के आगे)
गतांक में हम विचार कर रहे थे क़ि "राम कृपा" प्राप्त करने के लिए ह्म साधकों को कौन कौन से साधन करने चाहिए ! इस बीच अमेरिका के बर्फीले तूफ़ान ने हमारी मति भ्रमित कर दी और यहाँ का सारा माहौल इतना बर्फीला हो गया क़ि
जम गई मम ज्ञान-गंगा ,थम गया मति का प्रवाह !
कंठ में अटकी हमारी बात, कह पाया ,न थी जो चाह !!(भोला)
प्रियजन , जो भी हुआ "उनकी" कृपा से हुआ ,जो होग़ा "उनकी" इच्छानुसार होग़ा और उसमे हमारा कल्याण निहित होग़ा ! यह विश्वास सुदृढ़ रखना है !चलिए आगे बढ़ें :
अंक २५२ में , ह्म पहले साधन -" प्रभु से प्रीति "करने की बात कर रहे थे ! भक्ति के सरलतम साधन "सुमिरन ध्यान जाप भजन कीर्तन" से सुफल प्राप्ति के लिए सर्वोपरि जरूरत है "प्रीति" की - साधक की साध्य से प्रबल लगाव की ! महापुरुषों ने सच्चे साधक को सर्व प्रथम अपने "प्रियतम " को पहचानने की सलाह दी है ! कठिन नहीं है , कोशिश करें ! सोंच कर देखें , कौन है वह जो हमें इतना प्यार करता है क़ि हर पल ह्मारे ऊपर अपनी कृपा की अमृत वर्षा कर रहा है ? वह कौन है जो मजबूत ढाल बन कर ,कवच बन कर जीवन समर में शत्रुओं से हमारी रक्षा कर रहा है ? वह कौन है जो गिरने से पहले हमारा हाथ थाम कर हमे सम्हाल लेता है ? कौनहै जो हमें हर संकट से उबार लेता है ? प्रियजन, आप ही कहें ,उस "परम दयालु- कृपा निधान " के अतिरिक्त ह्म और किस से प्रीति करें ?
हाँ इस प्रकार विचार करते करते जब प्रियतम की पहचान हो जाती है तब उन्हें रिझाने के लिए ह्म सोचते हैं क़ि किसी प्रकार प्रभु से हमारी प्रीति ,"चन्दन और पानी", "सोना और सुहागा" ,"मोती और धागा" तथा "स्वामी और सेवक " की प्रीति जैसी गहरी हो जाये ! गुरुजन से मार्ग दर्शन मिल जाने के बाद , उनके दिखाए पथ पर चल कर ह्म जैसे साधक भक्त रैदास के समान ही प्रभु का नाम सिमरन ,भजन ,कीर्तन करते हैं ,पूरे विश्वास और लगन से !
अब कैसे छूटे नाम रट लागी
प्रभुजी तुम दीपक ह्म बाती , जाकी जोती जरे दिन राती !!
प्रभुजी तुम चन्दन ह्म पानी , जाकी अंग अंग बास समानी !!
प्रभुजी तुम मोती ह्म धागा , जैसे सोंनहि मिलत सुहागा !!
प्रभुजी तुम घन बन ह्म मोरा , जैसे निरखत चन्द चकोरा !!
प्रभुजी तुम स्वामी ह्म दासा , ऎसी भगति करत रैदासा !!
प्रियजन मेरे जीवन पर "रैदास जी" की जीवनी और उनके इस अनमोल कथन का बचपन में ही बड़ा प्रभाव पड़ा था ! पहले दादी और फिर अम्मा ने बार बार रैदास का यह "पद"सुना कर शैशव में ही मेरा ध्यान रैदासजी के समान नाम सिमरन के उस छोर की ओर मोड़ दिया ,जहाँ नाम और नामी एक दूसरे से सदा सदा के लिए अभिन्न हो जाते हैं१
संत रैदासजी अपनी रोज़ी रोटी के लिए चर्मकार का कार्य करते हुए , मन ही मन अपने "प्रभुजी" का सिमरन ,नाम जाप करते थे और उस बीच अपने नये शब्दों के बोल भी गुन गुनाते रहते थे ! शैशव में दादी-अम्मा से सुनी रैदासजी की कहानी के कारण ,बड़े होने पर मेरे जीवन में क्या क्या हुआ ,सुनिए !
प्रियजन ! आत्मकथा के पिछले अंकों में बता चुका हूँ क़ि किस प्रकार आयल टेक्नोलोजी में ग्रेजुएट हो जाने के बाद (जिसमे मैंने कोस्मेटिक प्रोडक्ट बनाने में इस्पेसलाइज़ किया था ) मुझे आजीवन लेदर टेक्नोलोजिस्त का काम करना पड़ा ! जानवरों की कच्ची खाल को पका कर चमडा बनाने का काम ही "मेरे राम" ने मेरी आजीविका के लिए नियत किया था ! यह सोंच कर मैंने उस कर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया ! मेरा काम तो रैदास जी के जूते बनाने वाले काम से कहीं अधिक ओछा था लेकिन मैं उसे जीवन भर "राम-आज्ञा" मान कर उसका पालन करता रहा बिना उफ़ किये या आहें भरे !!
यहाँ यह भी बता दूं क़ि "प्रभु इच्छा" मान कर ,जीवन भर चमड़े का काम करने के कारण मैं अपने जीवन में पल भर को भी दुख़ी नहीं हुआ ! मैंने "उनकी" आज्ञा का पालन किया और "उनकी" कृपा देखिये "उनका" वरद हस्त मेरे माथे पर सदा सर्वदा बना रहा !अपने पेशे में मैं एक साधारण अप्रेंटिश के पद से केवल "उनकी" कृपा से ,भारत सरकार के सबसे बड़े चमड़े के कारखाने का सी.एम.डी (अधीक्षक) एवं एक विदेशी सरकार का औद्योगिक सलाहकार नियुक्त हुआ ! क्या मैं कभी भी प्रभु की इस असीम कृपा के ऋण से उरिण हो पाउँगा ? मैंने अपनी एक रचना में प्रभु से पूछा है :
कहो उरिण कैसे हो पाऊं , किस मुद्रा में मोल चुकाऊं ?
केवल तेरी महिमा गाऊं , और मुझे कुछ भी ना आता !!
दाता राम दिए ही जाता - भिक्षुक मन पर नहीं अघाता !!
प्रियजन जैसे ही उत्तर मिलेगा आपको बताऊंगा ! फ़िलहाल राम राम स्वीकार करें !
क्रमशः
HAPPY NEW YEAR
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
संत रैदासजी अपनी रोज़ी रोटी के लिए चर्मकार का कार्य करते हुए , मन ही मन अपने "प्रभुजी" का सिमरन ,नाम जाप करते थे और उस बीच अपने नये शब्दों के बोल भी गुन गुनाते रहते थे ! शैशव में दादी-अम्मा से सुनी रैदासजी की कहानी के कारण ,बड़े होने पर मेरे जीवन में क्या क्या हुआ ,सुनिए !
प्रियजन ! आत्मकथा के पिछले अंकों में बता चुका हूँ क़ि किस प्रकार आयल टेक्नोलोजी में ग्रेजुएट हो जाने के बाद (जिसमे मैंने कोस्मेटिक प्रोडक्ट बनाने में इस्पेसलाइज़ किया था ) मुझे आजीवन लेदर टेक्नोलोजिस्त का काम करना पड़ा ! जानवरों की कच्ची खाल को पका कर चमडा बनाने का काम ही "मेरे राम" ने मेरी आजीविका के लिए नियत किया था ! यह सोंच कर मैंने उस कर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया ! मेरा काम तो रैदास जी के जूते बनाने वाले काम से कहीं अधिक ओछा था लेकिन मैं उसे जीवन भर "राम-आज्ञा" मान कर उसका पालन करता रहा बिना उफ़ किये या आहें भरे !!
यहाँ यह भी बता दूं क़ि "प्रभु इच्छा" मान कर ,जीवन भर चमड़े का काम करने के कारण मैं अपने जीवन में पल भर को भी दुख़ी नहीं हुआ ! मैंने "उनकी" आज्ञा का पालन किया और "उनकी" कृपा देखिये "उनका" वरद हस्त मेरे माथे पर सदा सर्वदा बना रहा !अपने पेशे में मैं एक साधारण अप्रेंटिश के पद से केवल "उनकी" कृपा से ,भारत सरकार के सबसे बड़े चमड़े के कारखाने का सी.एम.डी (अधीक्षक) एवं एक विदेशी सरकार का औद्योगिक सलाहकार नियुक्त हुआ ! क्या मैं कभी भी प्रभु की इस असीम कृपा के ऋण से उरिण हो पाउँगा ? मैंने अपनी एक रचना में प्रभु से पूछा है :
कहो उरिण कैसे हो पाऊं , किस मुद्रा में मोल चुकाऊं ?
केवल तेरी महिमा गाऊं , और मुझे कुछ भी ना आता !!
दाता राम दिए ही जाता - भिक्षुक मन पर नहीं अघाता !!
प्रियजन जैसे ही उत्तर मिलेगा आपको बताऊंगा ! फ़िलहाल राम राम स्वीकार करें !
क्रमशः
HAPPY NEW YEAR
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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