गतांक से आगे
"प्रभु-कृपा" प्राप्ति के साधन
"सत्संग" से जगती है साधक में "कृपाप्राप्ति" की तीव्रतम अभिलाषा और उसके साथ ही उदय होता है उसकी पूर्ति के लिए एक शुभसंकल्प. यह है प्रभु-कृपा-प्राप्ति की "साधना " का प्रथम सोपान. इस संकल्प की पूर्ति के लिए दूसरा सोपान है , गुरुजन के आदेशानुसार धर्ममय जीवन जीना. व्यक्ति यदि ऐसा कर पाए तो वह निश्चित ही कृपाप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है.
इस सन्दर्भ में और किसी का दृष्टांत क्या देना. आज निर्भयतासे अपनी ही कहानी सुना देता हूँ.
सत्संगों का क्रम हमारे जीवन में जन्म से ही चल पडा था गुरुजनों के आदेशों का पालन शायद अपने माता पिता की पुन्यायी जनित संस्कारवश, आजीवन होता रहा.
शैशव में अम्मा (प्रथम गुरु)की गोद में सीखा "प्रेम" और "करुणा" का पाठ. बालपन में उन्ही ने बताई "सत्य" की महिमा, हमे सत्य हरिश्चंद्र की करुण कहानी सुना कर और फिर प्रति पूर्णमासी मोहल्ले में कहीं न कहीं होने वाली "भगवान सत्यनारायण" की कथा" सुनकर (जहाँ हम तब केवल प्रसाद प्राप्ति हेतु जाते थे) हमने जाना, असत्य बोलने का परिणाम. झूठों को शतानंद के समान कष्ट झेलने पड़ते हैं. इस भय ने हमारा सत्य प्रेम और दृढ कर दिया.
प्रेम ही नहीं वह करुणा की भी साकार मूर्ति थीं. प्रियजन, अपने बच्चों को तो सभी माताएं प्यार करतीं हैं. लेकिन हमारी अम्मा तो घर में काम करने वाले नौकरचाकर और आसपास के निर्धन और अनाथ बच्चों पर जितना प्यार लुटातीं थी आज कल की बहुत माताएं अपने बच्चों को उतना प्यार नही दे पाती.
मुझे १९३४ की याद है. कभी कभी अम्मा घर की जमादारिन की नन्ही सी बच्ची "मखनिया" को सर्दी के दिनों में स्वयं गरम पानी से नहलातीं धुलातीं थी और भूख लगने पर उसे चम्मच से दूध पिलाती थीं. यही नही वो हमारे निर्धन साधनहीन मित्रो की भीअक्सर हम से छुपा कर सब प्रकार की मदद करती रहती थीं.
इस प्रकार अम्मा के सिखावन से सत्य, प्रेम और करुना का समावेश हमारे जीवन में हुआ और प्रभु कृपा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ.
क्रमश: