सोमवार, 31 मई 2010

तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान

गतान्क से आगे :
बाबा दादी की तीर्थ यात्रा
श्री हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन


हरवन्श भवन से स्टेशन तक बेण्ड बाजो के साथ हरि कीर्तन होता रहा । प्लेटफ़ार्म पर पेट्रोमेक्स के नीचे दरी डाली गयी । स्टेशन के बडे बाबु अपना हरमुनिया ले आये और उनका खलासी अपनी ढोलक । फिर क्या था बडे बाबु और उनके खलासी की जुगलबन्दी चालू हो गयी। बडे बाबु पुरी ताकत लगा कर तार सप्तक मे अपना भजन गाने लगे।
"काया का पिन्जरा डोळे रे ,
इक सान्स का पन्छी बोले रे" 

अभी एक अन्तरा ही गाया था उन्होने कि बाबाजी ने टोक कर कहा "इ का चालु कइल बडे बाबु ,रोये धोने वाला गाना. अभीन हम पिन्जरा ना छोरब , काहे देरात बाड। हम लौट के आयिब बाबु , चिन्ता मत कर।" बाबाजी क्या सोच कर ऐसा कह् रहे थे , उस समय वहां कोई कैसे जानता।

गाडी आयी ,  इन्टर क्लास के डिब्बे मे बाबा-दादी सवार हुए, और तीसरे क्लास मे मिसिर जी अप्नी फ़ेमिली के साथ । बेण्ड बाजे वाले और परिवार के लोग वापस चले गये। स्टेशन की बत्ती बुझ गयी ।

तीर्थ यात्रा उन दिनो बडी दुर्गम होती थी। भाग्यशाली ही जा पाते थे । जो सकुशल लौट आता था . परम भाग्यशाली और सच्चा भगत माना जाता था। इसकारण यात्री गण और उनके परिवार वाले चिन्तित और आशन्कित रहते थे। घर मे पूजा पाठ की मात्रा अधिक हो जाती थी। मनौतिया मानी जाती थी। प्रति मास की जगह प्रति सप्ताह सत्य नारायण देव की कथा चालू हो जाती थी। वैसी ही आशंका हरवन्श भवन वालो को भी हो रही थी।

आशंका का विशेष कारण था , यात्रा के कार्यक्रम मे अन्तिम क्षण का हेर फेर, एकाएक दादीजी तथा मनेजर मिसिर जी और मिसिराइन को साथ लेने का निश्चय, और सबसे महत्वपूर्ण बात थी गन्गोत्री न जा कर गङ्गासागर जाने का संकल्प। बाबाजी जैसे दृढ निश्चयी व्यक्ति अपना महीनो पहले बना कार्यक्रम रद्द कर के तुरन्त ही नयी योजना बना कर चल भी दिये। इस बात पर विश्वास करना कठिन था , परिवार वालो से अधिक गाँव और टोले-मुहल्ले वालो के लिये।

कुछः लोगो को तो विदाई के समय उस विचित्र स्वरूपवाले अजनबी के अचानक आने और फिर उतनी ही शीघ्रता से गायब हो जाने की बात रहस्यमयी लग रही थी । उन्हे यह लगता था कि उस अजनबी के कारण ही शायद बाबाजी ने अपना कार्यक्रम बदला। उस अजनबी ने न जाने क्या बाबा जी से कह् दिया था ।

जो भी कारण रहा हो , बाबा दादी तो अब जा ही चुके थे। अब क्या हो सकता था? केवल प्रार्थना और शुभकामनाये के सिवाय !

क्रमशः

निवेदक: व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"

रविवार, 30 मई 2010

शुभ मुहूर्त में विदा

गतांक से आगे: 
बाबा दादी क़ी तीर्थ यात्रा
श्री हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन
हनुमान मंदिर के पुरोहित पंडित गणेश मिसिर जी ने पंचांग बांच कर यात्रा की नयी साइत निकाली. तदनुसार महाबीर जी क़ी ध्वजा के नीचे सारा परिवार जमा हुआ , चालीसा का पाठ हुआ , आरती हुई, गर्म गर्म इमरती का प्रसाद चढ़ाया गया ,सारे परिवार और अडोस पडोस में प्रेम से बांटा गया. सब ने मिल कर जयकार की

"जय श्री राम - जय हनुमान"
और -
"प्रबिसि नगर कीजे सब काज़ा ,
हृदय राखि कोसलपूर राजा"
की धुन लगाई. बडकी माई ने बाबा दादी को तिलक ,सेंदुर लगाया और शुभ कामना की ---
"राम लखन कौशिक सहित सुमिरहु करहु पयान
लच्छिलाभ जय जगत जस मंगल सगुन प्रमान"

(उन दिनों हमारे परिवार पर श्री देवरहा बाबा की बड़ी कृपा थी. -वह तब भी लगभग १५०-२०० वर्ष के थे - जैसा हमारे बाबूजी ने हमे बचपन में बताया था. पूज्य देवरहा बाबा की मन्त्रणा से तुलसी की इस शुभकामनामयी वाणी का उच्चारण, हर कार्य के पहले, हमारे पूर्वज करते थे .)

शुभ मुहूर्त में , मेनेजर मिसिर जी और उनकी फेमली के साथ बाबा-दादी विदा किये गये. यात्रा प्रारम्भ हुई.

प्रियजन , बाबा-दादी की इस अति महत्वपूर्ण यात्रा का और कोई विवरण हमे उपलब्ध नही हो सका. बाबादादी और मिसिर जी हमारे जन्म से ३०-४० वर्ष पूर्व संसार छोड़ चुके थे.हम कानपूर में रहते थे . बलिया आना जाना बहुत कम होता था . शादी विवाह में जाते थे .कार्य पूरा होते ही वापस आ जाते थे.इतनी उत्सुकता भी नही थी इस विषय में,  अधिक जानकारी प्राप्त करने की.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात -"श्री हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन" की, तो अभी बाकी ही है . कल के लेख में वह बता दूंगा.


-- निवेदक -- " भोला "

शनिवार, 29 मई 2010

श्री हनुमान जी द्वारा मार्गदर्शन

गतांक से आगे:
बाबा-दादी की तीर्थयात्रा
श्री हनुमान जी द्वारा मार्गदर्शन

गंतव्य बदल गया. पश्चिमोत्तर हिमांचल में गंगोत्री न जा कर बाबा-दादी अब पूर्वांचल में बंगाल की खाड़ी तट पर स्थित , मां गंगा और हिंद महासागर के संगम पर स्थित मौक्ष प्रदायक तीर्थ "गंगासागर" जाने का अपना स्वप्न साकार कर रहे थे. दोनों गंगासागर में एक साथ एक दूसरे का सहारा लिए ,  डुबकी लगाकर ,सात जन्मो तक पति पत्नी बने रहने की अपनी चिर कामना सत्य करवाना चाहते थे. साथ ही वह पुरी स्थित श्रीजगन्नाथजी के मंदिर में श्री कृष्ण ,श्री बलराम एवं सुश्री सुभद्रा जी की सर्व मंगलकारिनी त्रिमूर्ति का दर्शन करना चाहते थे.

हाँ एक अन्य संकल्प भी उनके मन में उठा था. श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमाश्रु से पवित्र हुई कलिंग की उस पावन धूलि को अपने मस्तक पर लगा कर वह प्रेम-योग द्वारा अपने कुटुंब के प्रियतम इष्ट श्री महाबीर जी को रिझाना चाहते थे. उन्हें विश्वास था क़ि उनके इष्ट रामभक्त हनुमान को, "श्रीराम" के समान "प्रेमीभक्त" ही प्रिय हैं ..

रामहि केवल प्रेम पियारा
जान लेहु जो जाननिहारा .


यात्रा की व्यवस्था कुछ परिवर्तित हुई. ऊंनी कपड़ों की जगह सूती कपड़ों ने ली. गर्मी में बिगड़ने वाले खाद्य पदार्थों की जगह ठेकुआ ,मठरी, सेव दालमोठ , तेलवाले अचार , सत्तू, लईया, चबेना, चूरन और अमृतांजन के साथ साथ कुछ अन्य दवाइयाँ भी पोटलियों में बाँध ली गयीं. अब अधिक यात्रा रेल और पानी के जहाज़ से करनी थी.

शेष विवरण कल के लेख में---

-- निवेदन :श्रीमती डॉ कृष्णा एवं व्ही. एन. श्रीवास्त भोला"

गुरुवार, 27 मई 2010

परिवर्तित कार्यक्रम

गतांक से आगे
बाबा जी की तीर्थ यात्रा :
हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन

बाबाजी उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने के कारण काफी चिंतित हो गये थे.वह बेचैनी से इधर उधर टहल रहे थे और एक के बाद एक सेवक तथा घर के बच्चों को बाहर रेलवे स्टेशन और घोड़ागाड़ी तथा बैल गाड़ी के अड्डों तक दौड़ा रहे थे. उन को खोजने के लिए, पर वह नहीं मिले.सभी खोजने वाले निराश लौट आये. बाबाजी की सवारी तैयार थी. साथ जाने वाले सभी यात्री भी प्रतीक्षा कर रहे थे.

आखिर थक कर उस अनजान व्यक्ति की खोज काअभियान बंद कर दिया गया. इस बीच बाबाजी का सामान भी बाहर आ गया ..पर उस समय सब चौंक गये जब घर की अन्य स्त्रियोंसे घिरी दादीमाँ भी वहां पहुँच गयी मय अपने असबाब के .सब आश्चर्य चकित थे क़ि बाबाजी के न चाहने के बाबजूद दादी कैसे यात्रा पर जाने को तय्यार थीं. क्या बाबाजी ने अपना निर्णय बदल दिया? दादी जी को साथ ले जाने को कैसे राजी हो गये वह? कोई समझ न पाया.

अचानक बाबाजी वहां से उठ कर कोठी में ही अपने दफ्तर की ओर चल दिए. जाते जाते उन्होंने सब से कहा क़ि अब वह बद्री-केदार-गंगोत्री नहीं जायेंगे. अब उनका इरादा शाम वाली गाड़ी से पूरब की ओर जगन्नाथ पुरी-गंगा सागर जाने का बन गया है. दादीजी और मेंनेजर पाण्डेजी और उनकी पत्नी भी अब उनके साथ यात्रा पर जायेंगे .

अपने ऑफिस में बाबाजी ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और लगभग दो घंटे बाद बाहर निकले, और आम दिनों की तरह मुस्कुराते हुए वह पुन:.बैठक में वापस आगये और अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गये. सुबह से आने जाने वालों के शोर शराबे में और उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने से बाबाजी का चित्त कुछ उचटा उचटा था. थोड़ा एकांत मिला तो वह मन ही मन गुनगुना उठे फारसी जुबान की एक बहुत मशहूर रचना जिसका उर्दू तर्जुमा कुछ ऐसा हो सकता है:

" इक वक़्त मुक़र्रर है हरिक काम का अय दिल,
बेकार तेरी फ़िक्र है, बेकार तेरी सोच "

और जब भी मन की अस्थिरता के कारण बाबाजी ये शेर गुनगुनाते थे दादीमाँ उन्हें छेड़ने के लिए अपनी भोजपुरी भाषा में उनसे कहती थीं " का ई भोरे से फारसी बूकतानी मालिक कब हीं ता भगवानो के नाम लेबे के चाही." और जवाबी हमले में वह तुलसीदासजी क़ी यह चौपाई बेख़ौफ़ दाग देती थीं.

"होइहि सोई जो राम रचि राखा ,
को करि तर्क बढ़ावे साखा"

जिसके साथ ही उस बुज़ुर्ग जोड़े की सांसारिक नोक झोक आध्यात्मिक सत्संग में बदल जाती थी. श्रीमद भागवत, श्री गीताजी और तुलसी मानस का उल्लेख देकर दोनों ही अपनी अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते. माहौल जितना गरमाता उतना ही सरस हो जाता.

अन्ततोगत्वा यह पता लगता क़ी दोनों बुज़ुर्ग धर्म के किसी एक ही सूत्र के दो छोरों से बंधे हैं, एक ही नदी के दो किनारों के सदृश्य एक ही लीक का अनुसरण कर रहे हैं, उनका लक्ष्य भी एक है . भागीरथी गंगा के समान उन्हें गगोत्री से गंगासागर तक सतत बहते जाना है .

अरे हाँ, आज रात की गाड़ी से ही इन दोनों बुजुर्गों को अपनी यात्रा पर निकलना है. परिवर्तित कार्यक्रम के अनुसार अब गंगा के उद्गमस्थल गंगोत्री न जा कर, माँ गंगा तथा अनंतसागर के संगम का परमानंद प्रदायक दृश्य देखने उन्हें गंगासागर जाना है .

बुधवार, 26 मई 2010

महावीरजी की कृपा

गतान्क से आगे :
हनुमान जी की प्रत्यक्ष कृपा - परिजनों पर

बडे बाबा, श्री महाबीर जी की ध्वजा के नीचे, बिल्कुल हनुमानजी के श्री चरणो पर मत्था टेके प्रार्थना कर रहे थे, अपनी यात्रा की सफ़लता और अपनी सकुशल वापसी के लिये। उधर दादीमाँ दूर कोने मे खम्भे के सहारे खड़ी , गद गद स्वर में, अश्रु पूरित नैनो से प्रार्थना कर रही थी" हे महाबीर जी, मालिक, हमके इस बार अपना साथे काहे नैखन ले जात ? हमके  बहुत डर लागता, भोरे से हमार बयकी अन्खिया फरकत बा . रच्छा करिह् इनकर,  हे महाबीर  जी "। एक ही समय मे, एक ही आँगन से श्री महावीर जी की सेवा मे दो अर्ज़िया भेजी गयी । देखना है किसकी सुनते हैं वह, किसकी अर्ज़ी मंजूर करते है ?

एक तरफ दादीजी ने बाबा के साथ न जा पाने के कारण दुखी मन से आंसू भींगी अर्ज़ी भेजी थी और साथ मे बाबाजी की यात्रा की सफलता तथा उनकी सकुशल वापसी के लिये मंगल कामना भी की थी । बाबाजी की अर्ज़ी औपचारिक थी केवळ अपनी तीर्थ यात्रा की सफ़लता और सकुशल लौट आने की स्वार्थ से प्रेरित मनोकामना के साथ.

पूजा के बाद , बाबाजी की पारम्परिक विधि से घर के ज़नानखाने से विदाई हुई, दही-गुड़ से मुह मीठा कराया गया । माथे पर रोली चन्दन का टीका लगाये, वह बाहर बैठक में आये, गावं वालो से विदा होने को।

और तभी बाहर से खडाऊं की खटरपटर की आवाज़ आयी और एक अजनबी बैठक मे दाखिल हुआ। आज तक उस शहर में किसी ने इस व्यक्ति को पहले कभी नही देखा था । पर वह् बहुत अपनापन दिखाते हुए बाबाजी से एकान्त मे कुछ खुसुर पुसुर करने लगा। उसकी पूरी बात सुनकर बाबा जी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाये उभर आयी। वह् आगन्तुक से केवल इतना कह कर कि "महाराज अभी आता हूँ " घर के अन्दर चले गये .

थोड़ी देर बाद जब वह लौटे उनके हाथ में एक नए अंगोछे  में बंधा कुछ "सीधा" था जो वह उस अजनबी को देने के लिए भीतर से लाये थे. लेकिन जब वह पंहुचे तब तक वह अजनबी आगंतुक वहां से जा चका था. बाबाजी ने आदमी दौडाए उन्हें खोजने के लिए. पर वह नहीं मिले. बाबा और उनके साथ वहा बैठे सभी लोग उस व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने से आश्चर्य चकित थे.

कहानी अब शुरू हुई है. कल इसके आगे बढ़ेंगे.

--- निवेदन :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 25 मई 2010

श्री हनुमान जी की प्रत्यक्ष कृपा

कृपा के उदाहरण - गतांक से आगे

आज मंगलवार के लिए विशेष
श्री हनुमान जी की प्रत्यक्ष कृपा

पिछले अंक में बचपन की आप बीती घटना बतायी थी. आज अपने जन्म से पहले की एक घटना बता रहा हूँ इसलिए क़ि मुझे पूरा विश्वास है क़ि यह कथा अक्षरश: सत्य है. प्रियजन. मैंने इसकी सत्यता के जीवंत प्रमाण स्वयं अपनी आँखों से देखे हैं इसलिए इसे सुनाने का साहस कर रहा हूँ .

आज से लगभग एक डेढ़ शताब्दी पहले की बात है. हमारे पूर्वज बलिया सिटी में बस चुके थे. आज जैसी भव्यता तो अवश्य ही नही होगी उन दिनों पर कम से कम कोठी की बाहरी मर्दाना बैठक तो अवश्य ही ज़ोरदार रही होगी जहाँ हमारे बाबा -परबाबा तहसील वसूली के लिए दरबार लगाते रहे होंगे . हाँ तो शायद उन्ही दिनों ,१८८० - १८९० में घटी होगी, यह प्रत्यक्ष हनुमंत -कृपा दर्शाती ,चमत्कारिक घटना.

कचहरी में गरमी की छुट्टियाँ हो गयी थी. अग्रेज़ी सरकार के देशी मुलाजिम भी छुट्टियाँ बिताने इधर उधर जा रहे थे.. कोई अपने गाँव, कोई अपनी रिश्तेदारी की शादी में शामिल होने और कोई सुसराल में सासू अम्मा के हाथ की स्वादिष्ट जलेबी और पूरी - आलू दम का भोग लगाने की योजना बना रहा था .

अपनी कोठी हरवंश भवन के मरदानखाने में रोनक इस लिए थी क़ि बड़े मालिक (तहसीलदार साहब )अपने चंद मित्रों के साथ तीरथ यात्रा पर निकलने वाले थे. उस समय बाबाजी , कोठी के बड़े आँगन में महाबीरी ध्वजा के सन्मुख , हाथ जोड़े , आँख मूंदे खड़े यात्रा से सकुशल वापस आ पाने के लिए प्रार्थना कर रहे थे . आगन में दूर एक कोने में खड़ी दादी माँ भी सजल नेत्रों से कुछ ऎसी ही प्रार्थना कर रहीं थीं. वह बहुत दुखी थीं .बाबा उन्हें इस यात्रा में अपने साथ क्यों नहीं ले जा रहे थे ? यह प्रश्न उनको बार बार कचोट रहा था..पर बाबा जी से कौन पूछे. सब उनसे छोटे थे .


शेष कथा कल सुनाऊंगा.


--निवेदन: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 24 मई 2010

मन की आँखों से देखो

गतांक से आगे
"उनकी" कृपा के उदाहरण

बड़े बुजुर्गों से सुनते आये हैं क़ि अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों का बखान निज मुख से कभी नहीं करना चाहिए. कहते हैं क़ि इससे साधक को अहंकार हो जाता है.और अपनी सिद्धि द्वारा अधिकाधिक सांसारिक ऐश्वर्य और धन दौलत कमाने के चक्कर में पड़ कर वह आध्यामिकता की राह छोड़ देता है.

इस सन्दर्भ में अपने बचपन की एक घटना याद आ रही है अपनी अम्मा को घेरे रहने वाली महिलामंडली से सुना था क़ि अम्मा को कभी कभी भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं. अम्मा इस बात को कोई महत्व नहीं देतीं थीं और अक्सर इसको झुठलाने की कोशिश करती रहतीं थीं. हम सब भी छेड़ छाड कर उनसे इस विषय में पूछ ताछ करने से चूकते नहीं थे पर वह थीं क़ि कुछ भी नहीं बताती थी.

लेकिन एक बार-----आज से लगभग ७०-७५ वर्ष पूर्व--------. १९३७--३८ में (जब हम ७-८ वर्ष के थे), बसंत ऋतु की एक चान्दिनी रात, हम सब कानपुर-छावनी में ताऊ जी की सरकारी कोठी के उद्यान में खुले आकाश तले मच्छरदानी ताने सोये थे. क़िसी कारण मध्य रात्रि में मेरी नींद खुल गयी, अम्मा की याद आयी और मैं.उठ कर उनकी चारपाई की ओर भागा. जाली उठा कर जो दृश्य देखा आज तक भूल नही पाया हूँ.

अम्मा अपनी चारपायी पर आँखे मूंदे बैठी थीं ,जैसे ध्यान में हों . हम काफी देर तक वहीं बैठे रहे , उन्हें जैसे कुछ पता ही नहीं लगा . मैं मन्त्र मुग्ध सा अम्मा को देखता रहा. उस समय की उनकी छवि निराली थी. चेहरे पर मधुर मुस्कान थी और उनके होठों से झाँक रहे , सामने वाले ऊपर के दो दांत जैसे उनके अन्तर का आनंद दरसा रहे थे. माँ परमानंद की साकार मूर्ति के समान हमारे सन्मुख थीं. मैं बच्चा था फिर भी रोमांचित हो गया. उनकी आँख खुली तो मैंने सहज भाव से उन्हें छेड़ते हुए पूछा "क्या आपको भगवान दिखाई दे रहे थे". उसी सह्जता से बात बदलते हुए उन्होंने कहा "तुम भी देखोगे क्या ?" हाँ कहने पर उन्होंने मुझे ऊपर नीले आकाश में,  दूर तक छितराए सफेद कजरारे बादलों से झांकता हुआ चंदा दिखाया आँख मिचोली करतीं सितारों की टोलियाँ दिखायीं , सुगन्धित फूलों से लदी रात की रानी दिखा कर कहा "बेटा अपना भगवान सर्वव्यापी है इस सृष्टि के कण कण में है , तुम में है, हम में भी है. मन की आँखों से देखोगे तो दिख जायेगा "

हमारी अम्मा ने हमे प्रकृति के उस मनोहारी चित्र में ही उस कलाकृति के महान चित्रकार का स्वरूप दिखाने का प्रयास किया . छोटा ही था तब कुछ समझ नहीं पाया हमे तो केवल एक अनूठे आनंद की अनुभूति हुई थी. उस समय. मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे.  आंखे भर आयीं थीं .यह भी इसलिए याद है क्योंकि आंचल से आंसू पोंछ कर अम्मा ने उस रात मुझे अपने साथ सुला लिया था और सारी रात मैं अम्मा की गोद में लेटेलेटे उनके ह्रदय की हरेक धड़कन में सुनता रहा उनके इष्ट का नाम "रामरामराम" और राम नाम की वह सुमधुर झंकार आज तक हमारा मार्ग दर्शन कर रही है.

तब ७ वर्ष की अवस्था में, मैं कुछ समझ न पाया था . पर आज जब ८१ का हो रहा हूँ , ऐसा लगता है जैसे उस रात ही हमारी पहली नाम दीक्षा हुई., और उस प्रथम दीक्षा के उपरांत जीवन भर गुरुजनों के स्नेहिल आशीर्वाद का पात्र बना रहा . देखा कितनी कृपा है उनकी हम पर.

क्रमश:.

निवेदन : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला

रविवार, 23 मई 2010

adwaitwad

हम  नहीं वो हमे जिस नाम से बुलवाया है.

नामवाले बहुत आये-गये गुमनाम हुए,
बच गए वह जिन्हें उस "नाम"ने सहलाया है.

जिस्म का नाम है कुछ, आत्मा है बेनामी ,
सारी दुनिया ने फकत जिस्म को दुलराया है .

देह है वस्त्र जिसे डाल कर हम आये हैं,
सब ने पोशाक को चाहा, हमे ठुकराया है .

--- भोला, मई २३, 2010

शनिवार, 22 मई 2010

Nothing happens without "HIS" Grace.

"बिनु हरि कृपा न होइहे कछुहू, गावत बेद पुराण "

अपनी सीमित बौद्धिक क्षमता से समझी, गुरुजनों से प्राप्त गूढ़ जानकारी के आधार पर हमने "जीव -जगत -जगदीश" जैसे विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास पिछले कुछ लेखों में किया. पर सच तो मात्र यह है क़ि
मैंने नही लिखा है कुछ भी, और नही कुछ गाया है
मेरी कलम पकड़ कर यह सब गुरु जन ने लिखवाया है

प्रियजन, हम मानव निरे अपने बलबूते पर कुछ भी नहीं कर सकते ,क्योंकि हम तो न कुछ देख सुन सकते हैं और न कुछ समझ ही सकते हैं वास्तव में अपने जीवन में पगपग पर हमे उस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा की सहायता की आवश्यकता पडती है . उसके बिना हमारी कोई भी चेष्टा हमे सफलता नही दिला सकती.

मैं ८१ वर्षो के निजी अनुभव के आधार पर आप को पूरे विश्वास के साथ बता रहा हूँ क़ि जीवन में सफल होने के लिए आपको सर्वाधिक आवश्यकता है अपने इष्ट की कृपा को प्राप्त करने की. यह भी ध्रुव सत्य है क़ि यदि हम कर्तापन का अहंकार त्याग कर , स्वयं को पूर्णत: अपने इष्ट के श्रीचरणों में समर्पित कर दें तब इष्टदेव हमारे कार्य की बागडोर अपने हाथ में ले लेंगे. एक बात और है क़ि हमारे पूर्ण समर्पण करने पर वह हमारी मदद करने में तनिक भी विलम्ब नही करेंगे .और उनके सहयोग से सफलता हमारी झोली में आप ही आप आ गिरेगी.

लोग कहते हैं क़ि बिना मांगे कुछ भी नहीं मिलता. हम कहते हैं क़ि इस कथन का एक अपवाद है हमारा प्रभु /इष्ट बिना मांगे ही, सच्चाई और ईमानदारी की राह चलने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति पर अपनी कृपा लुटा देता है, हाँ एक बात और है , कृपा की भीख कौन किससे मांगे ? ."करुणा सागर कृपानिधान ,घट घट बासी श्री/भगवान ", आपका इष्ट / परमात्मा जब आपके अंदर ही बैठा है, तब आपको न किसी मंदिर में जाना है, न कोई अनुष्ठान करवाना है. हमे तो बस पूरी तत्परता लगन और सत्यता के साथ अपना कर्म करते रहना है. हम  सब को याद है जनकदुलारी सीता की वह प्रार्थना जो पुष्पवाटिका में श्री राम से नयन मिलन के उपरांत उन्होंने गिरिजा मंदिर में की थी:
मोर मनोरथ जानहु नीके , बसहु सदा उरपुर सबहीके .

भाई , हमारा इष्ट भी हमारे उरपुर में बसा है और हमारे सब मनोरथ जानता है. ह्म क्यों चिंता करें? ह्म .उनका स्मरण करते हुए पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ अपने करम करते जायें. वह निश्चय ही कृपा करेंगे और हमारा काम बना देंगे एक पारंपरिक शब्द है:
"प्रभु से लाग रहो रे भाई , तेरो बनत बनत बन जायी ". . .


क्रमश----
: -- निवेदन :श्रीमती डॉ कृष्णा एवं :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

गुरुवार, 20 मई 2010

J A G D I I S H (II)

 गतांक से आगे -------

जगदीश

कृपा वृष्टि, कर रहा ,सभी पर, फिर सब हैं ,क्यों नही सुखी ?

वह परमकृपालु आनंदघन जगदीश्वर स्वरचित इस सम्पूर्ण श्रृष्टि पर निरंतर निज अहैतुकी कृपा की अमृतवर्षा कर रहा है. फिर यह संपूर्ण मानवता आनंदित क्यों नही है ? क्यों कुछ प्राणी कष्ट्क्लेश झेलते हैं कुछ आनंदित रहते हैं ? कुछ रो रो कर कहते हैं , हे प्रभु ----

" तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं , वापस बुलाले,
मैं सिजदे में गिरा हूँ ,मुझे ए मालिक उठाले "

कुछ कहते हैं ---- ----

" तू प्यार का सागर है,
तेरी इक बूंद के प्यासे हम" 

---- कैसे रह गए कुछ प्यासे ?और क्यों किसी किसी का दिल इस दुनिया में नही लगता ? यह सोचने का विषय है.

हमारी आत्मा की सुखद अनुभूति आनंद है .मन की सुखद अनुभूति शांति है और शरीर की सुखद अनुभूति सुख है . ये अनुभूतियाँ ,मानव को उसकी रूचि, परिस्थिति, क्रिया शक्ति ,क्षमता ,दक्षता और संस्कारों के अनुरूप प्रभावित करती हैं. इस कारण एक ही परिस्थिति में , अनेक व्यक्तिओं को सुख-दुःख , शांति -अशांति, आनंद - विषाद का अनुभव विलग मात्राओं में होता है. उदाहरण-:
कोई टेबल फेन से सुखी होता है और कोई ए .सी. लगे कमरे में भी नींद को तरसता है, दुखी रहता है. कोई पांच सितारे वाले होटल में दुखी है, कोई फुटपाथ पर सुख से सोता है.

हमारे पिछले जन्मों की करनी-धरनी के अनुसार ही हमे इस जन्म में भुगतान मिल रहा है. पिछले अनेकों जन्मों के पुन्य-पाप के लेखे जोखे .में यदि हमारे पुण्य, पापों से अधिक हैं तो हम वर्तमान जीवन में सुखी होंगे और यदि पाप अधिक होंगे तो हम वर्तमान जीवन में दुःख के भागी होंगे ..

पाप पुण्य और भले बुरे की प्रभुजी करते तोल
जैसी जिसकी करनी होती पाता वैसा मोल

तुलसी ने भी मानस में कहा है
" काहू न कोऊ सुख दुःख कर दाता .
निज कृत करम भोग सबु भ्राता "

इस ईश्वरीय नियम को ध्यान में रख कर , अपना अगला जनम सुधारने के लिए हम वर्तमान जीवन में जितना बन सके उतने नेक काम ही करे फिर प्रभु तो कृपा करेंगे ही.

क्रमश:---- :

--- निवेदन :श्रीमती डॉ.कृष्णा एवं :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

बुधवार, 19 मई 2010

J A G D I I S H

गतांक से आगे

जगदीश

"प्रभु की इस दुनिया में कोई सुखी और कोई दुखी क्यों है "

सच कहता हूँ , इस जीवन के ८१ वर्षों में अब तक तो मुझे इसका कोई सर्वमान्य संतोषजनक उत्तर नही मिल पाया है. बहुत ग्रन्थ मैंने नही पढ़े. पर अनेक सिद्ध संतों महात्माओं के दर्शन और उनकी सारगर्भित सरस वाणी सुनने का सुअवसर , हमको इस जीवन में,प्रभु-कृपा से बार बार मिला है. . प्रियजन उन मनीषियों के प्रवचनों से जो थोड़ा बहुत समझ पाया उसका सारांश यहाँ दुहराने का प्रयास कर रहा हूँ.

" ईश्वर ने इस सुन्दर सृष्टि का निर्माण अपनी प्रिय संतान "मानव" को सुखी और आनंदित रखने के लिए किया है . प्रभु की इस सृष्टि में उपलब्ध सब सुविधाओं का उचित ,संतुलित और मर्यादित उपभोग करनेवाला व्यक्ति सुखी होता है और मोह-प्रलोभनt में पड़ कर प्राप्त सुविधाओं से नाजायज़ लाभ प्राप्ति की लालसा करने वाला व्यक्ति दुखी होता है."

नरसिंह भगवान ने प्रहलाद को यह तथ्य समझाते हुए कहा " परमात्मा ने संसार के सारे पदार्थ जीव को सुखी करने के लिए बनाए हैं मनुष्य यदि अमर्यादित हो कर आसक्ति पूर्वक इन पदार्थों का उपभोग करे और दुखी होता रहे तो इसमें ईश्वर का क्या दोष है? "

अभाव,वियोग और प्रतिकूल परिस्तिथियाँ दुःख का कारण होंती हैं , संत मिलन से सत्कर्म की प्रेरणा होती है जिससे अन्ततोगत्वा मानव को अतुलित सुख की प्राप्ति होती है गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है :

नहीं दरिद्र सम दुःख जग माही
संत मिलन सम सुख जग नाहीं


भौतिक सुविधाओं एवं आध्यामिक ज्ञान का आभाव मानव को दरिद्र बना देता है जिसके कारण वयक्ति दुखी हो जाते हैं. सतसंग में गुरुजन से प्राप्त उपदेशों के प्रभाव से यह आभाव मिट जाता है दुःख दूर हो जाते हैं और इन्सान सुखी हो जाता है..


प्रियजन अपनी सीमित जानकारी के अनुसार हमने ये विचार व्यक्त किये हैं. हमारा अनुरोध है की आप भी इस अनूठे "ब्लोगिक" सत्संग में अपना योग दान करे और अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर अपनी बात भी हमे बताएं. .

क्रमश : ---
--निवेदन :श्रीमती डॉ कृष्णा एवं :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 18 मई 2010

Jeev - Jagat - Jagdish

गतांक के आगे

जीव - जगत - जगदीश

जगदीश - वह सर्वेश्वर

अपनी अपनी मान्यताओं, परम्पराओं, संस्कारों के आधार पर हम सब ने इस सर्वदयालू, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ , सर्वत्र व्याप्त सर्वशक्तिमान परमात्म तत्व को विभिन्न नामों से पुकारा है. और इस परम कृपालु शक्ति ने हम में से किसी को भी ,कभी भी निराश नही किया. प्रभु, बिना किसी धर्म -जाति, रंग- रूप का भेदभाव किये सब प्राणियों पर अपनी अनंत कृपा वृष्टि करते रहते हैं .

ज़रा सोंचें , क्या सूर्य अपना प्रकाश , चन्द्र अपनी ज्योत्सना, वायु अपनी जीवनदायिनी ऊर्जा का दान किसी जाति विशेष अथवा धर्म विशेष के अनुयायियों पर ही करते हैं ? नहीं ना. जगदीश ने इस समस्त सृष्टि का निर्माण सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया है. सृष्टि सृष्टिकर्ता की प्रथम कृति है. जैसे चित्र में चित्रकार निवास करता है वेसे ही इस जगत के कण कण में जगदीश स्वयम समाया हुआ है. उपनिषदों में कहा है यह जगत जगदीश की चिन्मय शक्ति से ही क्रिया शील है:


"ईशावास्वयमइदं सर्वं ,यत किंच जगत्यां जगत -तें त्यक्तेन भुंजीथा " 

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने भी कहा है ::- "जगदीश की विभूतियों का समग्र रूप यह जगत है." (गीता अध्याय १० श्लोक ४२) . आज भी मानव उस महान शिल्पी चित्रकार की कलाकृति -इस जगत का अनूठा सौन्दर्य देख कर भौचक्का हो कर पूछता फिरता है :


हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाऐं देखो रंग भरीऽऽऽ
दिशाऐं देखी रंग भरी, चमक रहीं उमंग भरी
ये किसने फूल-फूल पेऽऽऽ
ये किसने फूल-फूल पे किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

तपस्वियों सी हैं अटल ये पर्वतों की चोटियाँ
ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियाँ
ध्वजा से ये खड़े हुऐऽऽऽ
ध्वजा से ये खड़े हुऐ, हैं वृक्ष देवदार के
गलीचे ये गुलाब के, बगीचे ये बहार के
ये किस कवि की कल्पनाऽऽऽ
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
 ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो
इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो
चमका लो आज लालिमाऽऽऽ
चमका लो आज लालिमा अपने ललाट की
कण-कण से झाँकती तुम्हें छवि विराट की
अपनी तो आँख एक हैऽऽऽ
अपनी तो आँख एक है उसकी हज़ार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार


इस गीत के शब्दकार ने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दे दिया है .वह चित्रकार कोई अन्य नही स्वयं सर्वशक्तिमान जगदीश ही है. प्रियजन हम कितने सौभाग्यशाली है कि हमे उस चंचल चितचोर चित्रकार की चमत्कारी कलाकृति, और उससे झाँकती उनकी मनमोहक विराट छवि के दर्शन, उनकी ही महती अहेतुकी कृपा से प्राप्त हो रहे हैं .

जय हो, जय हो, हे जगदीश .
जगन्नाथ, जगपालक ईश..

--- क्रमश:

--- निवेदन: श्रीमती डॉ.:कृष्णा एवं व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 17 मई 2010

"WE"--"ALL that we are provided with" -&-_"HE"the provider_

हम सब -  यह सब - वह सर्वेश्वर

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जीव - हम सब

मैं कौन हूँ ? हम सब कौन हैं ? इस विषय में काफी चर्चा गत दो लेखों में हो गयी है, हम जान गए हैं कि हम "शरीर" नही हैं. हम "चेतन स्वरुप शुद्ध बुद्ध आत्मा" हैं , किसी ने कहा है :


खुल गया राज़ कि मैं कौन हूँ क्यों आया हूँ ?
मैं नहीं वह, मुझे जिस नाम से पुकारा है ..

नाम वाले बहुत आये, गए, गुमनाम हुए.
बच गए वह कि जिन्हें नाम का सहारा है .. (भोला)


अपने परमपिता परमात्मा के अभिन्न अंश हैं हम. अस्तु हमें स्वधर्म का पालन करटे हुए, अपनी निजी भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति के साथ साथ लोक कल्याण के लिए भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए. अब प्रश्न यह उठता है कि जीव का धर्म क्या है? भारत भूमि के प्राचीन (२००० से ७००० वर्ष पूर्व के) विचारकों से ले कर आज तक के मनीषियों के मतानुसार हमारा (सम्पूर्ण मानवता का) ईश्वर एक है और हमारा एक मात्र धर्म है, मानव - धर्मं . .

तुलसी की भाषा में.:

धरम न दूसर सत्य सामना . आगम निगम पुराण बखाना ..
परहित सरिस धरम नही भाई . पर पीड़ा सम नही अधमाई ..
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा ..

अपने जीवन में सत्य, करुणा, प्रेम के दिव्य भावों के साथ साथ नर-नारायण की सेवा के भाव का समावेश कर हम अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते चलें. और इस प्रकार अपना यह दुर्लभ मानव जीवन सार्थक, सफल, एवं सुखी बना लें.

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जगत - यह सब

हमारे चारोँ और जो भी हमें दृष्टिगोचर होता है, चाहे वह जड़ हों अथवा चेतन, सब जगत ही है. इस जगत को कोई संसार,कोई दुनिया, कोई प्रकृति, कोई-कुदरत, ना जाने किस किस नाम से सम्बोधित करता है. पर सम्पूर्ण मानवता को आजीवन आनंदित रखने के लिए ही हमारे प्यारे प्रभु ने हमारे लिए इस संसार का निर्माण किया है. इस जगत-दुनिया-कुदरत के प्रति अपने अपने अनुभव के आधार पर हम मानवों ने क्या क्या भाव आरोपित किये हैं. जानने.योग्य है. किसी ने जग-निर्माता की भूरि भूरि प्रशंसा की और कहा :

क्या जल्वये शाने कुदरत है, सुभान अल्ला, सुभान अल्लाह .
हर शय में निराली सन्यत है,सुभान अल्लाह, सुभान अल्लाह ..
(जनाब राद)

भावार्थ : हे प्रभु तुम्हारी जय हो, तूने कितनी सुन्दर और शानदार प्रकृति का निर्माण किया है . तुम्हारी जय हो, जय हो.

--------- क्रमशः ----------
निवेदन -श्रीमती डॉ. कृष्णा एवं भोला श्रीवास्तव

शनिवार, 15 मई 2010

Who Am "I" ? ( II )

 
While pondering over the current topic ie. Who am I? , we came across a couple of  English verses (Kirtan) capsuling the answer to this question. These verses were composed by none else but the greatest vedantik thinker of Bharat during the mid twentieth century Sri Swami Sivananda Ji.who used to pass on  his wisdom  to  followers through HIS compositions dovetailing highest philosophic truths and sublime spiritual lessons ..

THE SONG OF ADWAITA .

Who am "I"?

Soham Soham Soham Soham

OM OM OM OM OM =OM OM OM OM OM

I am neither MIND nor BODY = IMMORTAL SELF I am

I am witness of the three states = EXISTENCE Absolute

I am witness of the three states = KNOWLEDGE Absolute

I am witness of the three states = BLISS Absolute

Nothing exists = Nothing belongs to me.

OM OM OM OM OM = OM OM OM OM OM

I am not this BODY======== This BODY is not MINE

I am not this PRANA ====== This PRANA is not MINE

I am not this MIND ======= This MIND is not MINE

I am not this BUDDHI ======This BUDDHI is not MINE

I am THAT ,I am THAT ,I am THAT, I am THAT

SOHAM SOHAM SOHAM SOHAM SOHAM

I am SATCHIT =========== ANAND SWAROOP

I am NITYA SHUDDHA BUDDHA + MUKTA SWABHAV

I am SWAYAM PRAKASH ===== I AM SHANTI SWAROOP

I am AKARTA ============ I AM ABHOKTA

I am ASANG ============ I AM SAAKSHII

SOHAM SOHAM SOHAM SOHAM SOHAM

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The ESSENCE of VEDANTA
as drawn by Swami Sivananda ji :-

Enquire "Who am I "
Know thy SELF and be Free. 
Be Still be Quiet Know Thy Self

Find the HEARER ,
Find the SEER,
Find the KNOWER.

You are not this BODY, 
not this MIND ,
IMMORTAL SELF YOU ARE


from the autographed book of bhajans
presented by Swami Ji to Dr. Krishna Bhola Shrivastav in 1953

शुक्रवार, 14 मई 2010

WHO AM "I"?

"मैं" कौन हूँ?

पाश्चात्य संस्कृति और कानूनी प्रक्रियाओं को अपनाकर हम आज तक न्यायालयों में,दफ्तरों में ,यहाँ तक की भारत के राष्ट्रपति भवन में भी शपथ लेते समय कहते हैं " मैं विश्वम्भर श्रीवास्तव (भोला) ----------- यह कहता हूँ , वह कहता हूँ...आदि ---आदि ". ज़रा विचार कीजिए , क्या हमारा यह कथन सत्य है ? क्या मुझे जिस नाम से पुकारा जाता है ,वास्तविक "मैं" वही व्यक्ति हूँ? अथवा "मैं" कोई और हूँ.

यह प्रश्न अनादि काल से आज तक उठता चला आ य्र्हा है. हर काल के, हर देश के , हर धर्म के जानकार विद्वानों ने अपनी अपनी मान्यताओं , परम्पराओं और खोजों के अनुरूप इस प्रश्न का उत्तर भी दिया है.

भारत के मनीषी ऋषि-मुनि , वैदिक काल में ही इस आसान से लगनेवाले अति कठिन प्रश्न का उत्तर जान गये थे. उनका द्रढ.मत था की वास्तव् में "मैं" "जीव"हूँ. ."मैं" देह में हूँ परन्तु देह नही हूँ . " मैं" का देह से तादात्म्य करना अथवा अपने को देह समझना भ्रामक है.

अर्जुन को उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने गीता में उनसे कहा:"इस लोक में, मेरा सनातन अंश , मानव जीव है"

ममैवांशो जीवलोके जीवभुतः सनातन:

तुलसी ने रामचरित मानस में कहा है:

ईश्वर अंश जीव अविनाशी - चेतन अमल सहज सुखराशी

अस्तु आध्यात्मिक दृष्टि से ,हम सब तनधारी-मानव ,वास्तव में ,अपने परमपिता परमात्मा के ही अंश हैं .हम उन्ही की तरह अविनाशी हैं , चैतन्यस्वरूप हैं, और सहज सुखराशी हैं. हमे भी सत्य,प्रेम,और करुणामय जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. हमे उन्ही के समान सब प्राणियों पर खुले हाथ अपना प्यार लुटाना चाहिए. सत्यपथ पर चलना चाहिए. दीनदुखियों और आर्तजनो की सेवा करनी चाहिए. अनुमान लगाइए, हमारे परमपिता ,हमे उनकी ही राह पर चलते देख , कितने प्रसन्न होंगे. सच पूछिए तो हमारी वह "दीन-दुखी- नारायण" की सेवा "परमात्मदेव " की सेवा ही है, हमे वही पुन्य ,वही शबाब मिलेगा जो विधिपूर्वक पूजा-पाठ करने अथवा पांचो वख्त की नमाज़ अदा करने पर भक्तों और नुमाज़िओं को मिलती है.


निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

गुरुवार, 13 मई 2010

रामहि केवल प्रेम पियारा

रामहि केवल प्रेम पियारा

हमारे इष्ट को तो उपहार में केवल प्रेम ही चाहिए .अन्य कोई भेंट उन्हें नही पसंद है. स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के कथनानुसार:
"प्रिय रूप" "निज रूप" है, "प्रेम रूप" है ईश
सिमरन, चिन्तन प्रेम से , है पूजन जगदीश

अब सवाल यह है कि  "वैसा प्रेम कहाँ से लाऊं, जिससे अपना राम रिझाऊं"और अपने प्रियतम इष्ट का प्रेम पात्र बन पाऊँ.


किसी संत के प्रवचन में उत्तर मिला "तुम्हारे आस पास ही हैं वे सब जिनसे तू दिव्य "प्रेम " का आदान प्रदान कर सकता है. अंग्रेज़ी में एक कहावत है ' Charity begins at home". सो पहले हम "निज" (स्वयं - अपने आप) से प्रेम करें, फिर अपने निकटतम /सगे सम्बन्धियों से, मुहल्ले वालों से, नगर वालों से और फिर इस परिधि के बाहर, अपने समाज एवं जननी जन्मभूमि तथा अपने राष्ट्र से प्रेम करें".

उन्ही महाराज जी ने अन्यत्र कहा: "स्वयं अपने आप और उपरोक्त सब प्राणियों पर लुटाया आपका यह सारा का सारा प्रेम आपके प्रियतम प्रभु के पास ज्यों का त्यों पहुंच जायेगा. अपने प्रेमीभक्त से इतना सारा प्यार पा कर प्रभु कितने प्रसन्न होंगे उसका अनुमान नही लगाया जा सकता".

प्रभु के प्रसन्न होते ही आपका हृदय एक अनूठे आनंद से भर जायेगा--- संत जन जिसे "परमानंद" कहते हैं. अनेक अनुभवी संत इसे प्रभु दर्शन की संज्ञा देते हैं .

अब तो मुझ मंदबुद्धि को भी यह सत्य लगने लगा है. हमने स्वयं देखा है प्रेमा भक्ति से सराबोर साधकों का नर्तन, और सुनी है उनकी मधुर, दिव्य वाणी, जिन्हें देखते सुनते हम भी अपनी सुध बुध खो बैठे, हमे रोमांच हुआ, हमारी आँखे डबडबा गयीं, कंठ अवरुद्ध हो गया . सर्वत्र आनंद ही आनंद बरस ने लगा.

संभवतः यही है प्रभु प्रेम का प्रसाद .

बुधवार, 12 मई 2010

प्रेम प्रीति को बांध घुंघरू

प्रेम प्रीति को बांध घूँघरू प्रियतम आगे नाचो रे .
आनंदित मन सजल नयन से पाओ दर्शन वाको रे ..

प्रेम ही इस जगत का आधार है . प्रेम मानवता की मौलिक मांग है. इस सृष्टि का बीजतत्व प्रेम है. भगवान् श्री राम को केवल प्रेम और प्रेमी ही प्रिय हैं. तुलसी ने उद्घोषित किया है "राम ही केवल प्रेम पियारा" जहाँ कहीं भी प्रेम -होगा हमारे प्रभु वहां होंगे ही होंगे. प्रेम से उनको जिस किसी ने , जहां कहीं से-- राज प्रासादों से, ऋषि मुनिओं के आश्रमों से ,भिलिनी शबरी की कुटिया से अथवा आदिवासियों और पिछड़ी जाति वालों की झुग्गी झोपरियों से अथवा केवट की काठ की "पात भरी सहरी" से अश्रु पूरित नैनो और गद गद कंठ से पुकारा, हमारे प्यारे प्रभु , नंगे पाँव वहां पहुँच गए . और भक्तों का उद्धार कर दिया.

हमारे सौभाग्य से कलि युग में, विधि ने हमारे लिए प्रभु मिलन का मार्ग इतना सुगम कर दिया है, हम तो केवल प्रेम से उन्हें पुकारे , वह तुरंत दर्शन देंगे .प्रियजन हमें नाम की अखंड ज्योति जगानी है जन-मन में और प्रेम की गंगा बहानी है.
"राम नाम मणि दीप धरु जीहँ देहरी द्वार
तुलसी भीतर बाहरहु जो चाहसि उजियार"

नाम दीप के प्रकाश में,नाचते नाचते अपने इष्ट को रिझाइए और उनके परमानन्द स्वरुप का दर्शन करिये. 

निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 11 मई 2010

DATA RAAM DIYE HII JATA

दाता राम दिए ही जाता :


अपने पिछले जन्मो में किये शुभ-अशुभ कर्मों के फल भोगने के लिए ही हमारा यह जन्म हुआ है. हम प्रारब्ध की चादर ओढ़े हैं. इस चादर पर हमारे दुष्कर्मो के कारण अनेक गंदे दाग लगे हैं. हम इस जन्म में शुभ कर्मो का साबुन लगाकर इन दागों को शीघ्रातिशीघ्र धो सकते हैं हमे प्रयास करना है की इसमें अब कोई नया दाग नही लगने पाए..

हमे दृढ निश्चय करना है की हम इस जन्म में केवळ शुभ कार्य ही करेंगे. ऐसा तभी होगा जब हम पर प्रभु की कृपा होगी. "उनकी" कृपा पाने के लिए हमे उनके सन्मुख होना पड़ेगा..जितने उपकार "उन्होंने"अब तक हमारे ऊपर किये हैं ,उनके लिए, हमे , सजल नेत्रों और गदगद कंठ से अपना आभार व्यक्त करना है ."उनके" उपकारों का जितना भारी ऋण हम पर चढ़ा है हमे उतारना है., अब आप ही बताओ :

कहो उरिन कैसे हो पाऊं ? किस मुद्रा में मोल चुकाऊं ?
केवल प्रभु की महिमा गाता , और मुझे कुछ भी ना आता..


.
निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 10 मई 2010

Chintamani Hari Naam

गतांक से आगे :

प्रियजन: अपने जीवन के ८१ वर्षो के विविध अनुभवों के आधार पर कुछ कहने का साहस कर रहा हूँ:

यह बिस्वास जमाय के साजो "रण" के साज'
चिंता मणि हरि नाम है सफल करे सब काज

इस दृढ़ विश्वास के साथ की श्री गुरुदेव की कृपा से प्राप्त "हरिनाम" की "चिंतामणि" आपके पास है , जीवन रण में जूझ जाइये. एक अदृश्य कवच के समान यह आर्मर आपको न केवळ भ्रम भूलों से बचाएगा वरन आपको सद्बुद्धि एवं सुविवेक प्रदान कर आपकी सफलता सुनिश्चित कर देगा.

प्रियजनों, अपने "इष्ट" के प्रति इतना द्रढ़ विश्वास पाने के लिए हमे अपना घरबार - संसार छोड़ कर कोई कठिन तपस्या नही करनी है. हमे बस ,अपने गुरुदेव से प्राप्त आदेशों का पालन करना है. हमारे आदिकालीन सद्ग्रंथों में भी इस परमसत्य का उल्लेख है :

कृते यद ध्यायते विष्णु त्रुतायाम यजतो मखे:
द्वापर परिचर्यायाम कली तद हरि कीर्तना 
(श्रीमद भागवत -स्कंध १२ ,अध्याय ३ ,श्लोक ५२)

सतयुग में ध्यान ,त्रेता में यज्न, द्वापर में विधि पूर्वक पूजन से जो फल मिलता है , कलि काल में वह केवल नाम भजन कीर्तन से मिल जायेगा. अपने कलिकाल में तुलसी ने भी निज अनुभव के आधार पर कहा है:

कलिजुग केवल नाम अधारा .
सिमर सिमर नर उतरहि पारा ..

कलिकाल में केवल "नाम" सिमरन ,भजन कीर्तन की सरलतम साधना द्वारा ही हम मानव यह दुर्गम भवसागर पार कर लेंगे हमे अतिरिक्त कोई साधना करने की आवश्यकता ही नही है .

प्रियजन, विलम्ब ना कीजिए, जहाँ हैं जैसे हैं वहीं आखे मूंद कर पल भर को ही चाहे, अपने "इष्ट" देव का सिमरन करे , परमप्रेम एवं अतिश्रद्धा के साथ भजन कीर्तन करें. "वह" विलम्ब नही करेंगे . वैसे ही जैसे वह द्रौपदी की लाज बचाने अथवा गजराज की जीवन रक्षा करने दौड़ आये थे वह हमारी नैया पार लगाने भी अवश्य ही आएंगे . केवल अपना विश्वास अडिग रखिये.

निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शनिवार, 8 मई 2010

हारिये ना हिम्मत - भरोसा बनाये रखें

भरोसा बनाये रखें

"हारिये ना हिम्मत बिसारिये ना राम
तू क्यों सोचे बन्दे सबकी सोचे राम."

प्रियजन, गतांक में मैंने इस प्रेरणादायक भजन का उल्लेख किया था. लगभग ७० वर्ष पूर्व , बचपन में राम-मदिर में किसी अनन्य राम भक्त गायक के स्वर में इसे सुना था. तब से अब तक उसे गा रहा हूँ . बार बार यह भजन गाने से अपना 'उन'की कृपा पाने का भरोसा- विश्वास द्रढ़ होता गया. सच मानिये , हमें निराश भी नहीं किया "उन्होंने" . सबकी सोच करने वाले उस परम कृपालु ने हमारी भी पूरी सोच की. उनकी अनन्य कृपा से हमारे दैहिक, भौतिक कष्टों का निवारण तो हुआ ही, साथ साथ अध्यात्मिक स्तर पर हमें अनेक सिद्ध संतो के दर्शन हुए.

चलिए आपको भजन सुना ही दूँ.  इस निम्नांकित लिंक पर इस भजन के शब्द पढ़ सकते हैं और उसका सस्वर गायन भी सुन सकते हैं. http://bhajans.ramparivar.com/2008/09/blog-post_7362.html



निवेदक :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 7 मई 2010

नाम भरोसा मत तजो कठिन काल जब आय

"नाम भरोसा मत तजो कठिन काल जब आय'

"सर्दी गर्मी और धूप छाँव" के समान "सुख-दुःख" हमारे जीवन में आते जाते रहते हैं. हम नर हैं. नारायण नहीं.. हम विचलित हो जाते हैं . जो स्वाभाविक ही है . ऐसे में यदि हम याद करें गीता का वह उत्साहवर्धक सन्देश जो अपने श्रीमुख से, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था (श्रीमद भगवदगीता -अध्याय १२-.श्लोक १८):


समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥

श्री कृष्ण का उपरोक्त कथन समझते ही हमारी वर्तमान स्तिथि कुछ भिन्न हो जायेगी.. हम इतने दुखी ना रहेंगे, इतने निराश न रह पाएंगे. हम इस प्रकार "प्रभुकृपा" में अपना विश्वास ना खो देंगे और अपने नित्य कर्म के प्रति उदासीन हो हम अपनी दैनिक साधना भी ना त्याग देंगे . ऐसे में गुरुदेव श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के शब्द अति प्रेरणा दायक सिद्ध होंगे :-

सम कर समझूं  दुःख सुख, सब उतराव चढाव ,
राम भरोसे मैं सहूँ सभी बिगाड़ बनाव .

सोते जगते काम में, चलते फिरते बैठ ,
रहूँ भरोसे राम में, शांत प्रेम जल पैठ ..

मेरे अतिशय प्रिय स्वजन ऐसे में मुझे अपना एक बहुत पुराना भजन याद आ रहा है , जिसे ६०-७० वर्ष से गा रहा हूँ:

आपके साथ साथ अपना भरोसा भी बढ़ाऊंगा,  अवसर मिला तो पूरा भजन सुनाऊंगा.


निवेदक :वही .एन. श्रीवास्तव "भोला"

गुरुवार, 6 मई 2010

हमारी करुण पुकार - तुम बिनु को मोरी राखे लाज

मेरे "राम" गरीब निवाज ,
तुम बिनु को मोरी राखे लाज

मैं असहाय अधम अज्ञानी
पतितंन को सिरताज
पतित उधारन बिरदु तुम्हारो
सिद्ध करो महराज,
तुम बिन को मोरी राखे लाज

जिसने ध्यान लगाया ,पाया,
जैसे ध्रुव, गजराज
हमरी बारी जाय छुपे तुम
किन कुंजन में आज
तुम बिनु को मोरी राखे लाज

मैं अपराधी हूँ बड़ा
अवगुण भरा जहाज,
डूब रहा मझधार में ,
पार करो महराज
तुम बिनु को मोरी राखे लाज

बुधवार, 5 मई 2010

"नाम आराधना" से "कृपा - प्राप्ति "

कलियुग की आत्माओं को मुक्तिप्राप्ति के लिए, ध्रुव-प्रह्लाद सरीखी गहन तपस्या तथा अन्य विषम कष्टदायक साधन नही करने हैं .प्रभु ने हमारे लिए आराधना का सरलतम साधन निश्चित किया है "नाम जाप भजन- कीर्तन" .

इस सरल साधना की सिद्धि के लिए भी अति आवश्यक है कि हमारे मन में यह दृढ विश्वास तथा अटूट निश्चय हो कि हमारे "इष्टदेव" परम कृपा स्वरुप है, सर्वज्ञ हैं, सर्वत्र हैं, सर्वशक्तिमान है.,"वह परमेश्वर ही है", और उनका वह नाम जिसकी आराधना हम कर रहे हैं, उसमे वह स्वयं विद्यमान हैं .

इस प्रकार "इष्ट देव" के नाम में अपने "नामी" इष्ट का ध्यान लगा कर मन ही मन नाम जाप करने से साधक पर "प्रभु कृपा" का अवतरण निश्चित ही होगा. वैसे ही जैसे सूर्योदय के साथ ही प्रकाश का आगमन होता है, जैसे खिडकी द्वार खुलते ही पवन बेधडक कमरे में प्रवेश कर लेता है, उसी प्रकार सच्ची भावनाओं एवं अखंड विश्वास से की हुई आपकी साधना से प्रसन्न आपके "इष्ट" की कृपा आपको अवश्य प्राप्त होगी.

स्वामी सत्यानन्द जी के वचन:

परम पुण्य प्रतीक है परम ईश का नाम .
तारक मंत्र शक्ति घर बीजाक्षर है राम ..

राम शब्द को ध्यायिये, मंत्र तारक मान .
स्वशक्ति सत्ता जग करे उपरिचक्र को यान ..

आप "राम" के स्थान पर अपने इष्टदेव का नाम लें, वही नाम जाप करें . परमात्मा तो एक ही है.

मंगलवार, 4 मई 2010

आज मंगलवार की "महावीर वंदना"

आज मंगलवार की "महावीर  वंदना"

प्रियजन, , संकटमोचन श्री हनुमानजी युगों युगों से हमारे कष्ट हर रहे हैं  विपदाओं से हमारी रक्षा कर रहे हैं. भवरोगों से मुक्ति दिला रहे हैं.  याद करिये महान संत रामभक्त श्री  तुलसीदास के जीवन की सांझ जब वह अति भयंकर शारीरिक कष्ट से पीड़ित थे. उन्होंने कष्ट निवारण  हेतु श्री हनुमानजी को याद किया फलस्वरूप तुलसी स्वस्थ हो गये. उसी समय "हनुमान चालीसा" की रचना हुई. और तुलसी की प्रेरणा से भारतवर्ष भर में अनेकानेक हनुमान मन्दिरों का निर्माण हुआ ताकि जनसाधारण हनुमान भक्ति से उतने ही लाभान्वित हो जितने तुलसी स्वयं हुए थे. कलिकाल में हनुमान भक्ति की महत्ता और अधिक हो गयी है .

आइये, हनुमान जी की वन्दना  मिल जुल कर करे. ,

   जय जय बजरंगी महावीर-हे संकटमोचन हरो पीर 

    अतुलित  बलशाली तव काया ---- गति पिता पवन का अपनाया
    शंकर से देवी गुन पाया --------------शिव पवन  पूत हे धीर वीर -
                              जय जय बजरंगी  महावीर 
     दुखभंजन सबके दुःख हरते -----------आरात्जन की सेवा करते,
     पलभर  बिलम्ब नाही करते ----- -जब जब भगतन पर पड़े भीर 
                            जय जय बजरंगी महावीर
     जब जामवंत ने ज्ञान दिया -- -सिय खोजन तूम स्वीकार किया
     सत योजन सागर पार किया ------- -देखा जब रघुबंरको अधीर
                             जय जय बजरंगी महावीर 
     शठ रावण त्रास दिया सिय को ,      भयभीत भई मईया जिय सो .
     मांगी कर जोर अगन तरु सो -------- -दे मुदरी माँ को दियो धीर
                            जय  जय बजरंगी महाबीर 
      लागा लछमन को शक्ति बान --- -अति दुखी हुए तब बन्धु राम 
      कपि तुम साचे सेवक समान ------------लाये बूटी मय द्रोंनगीर 
                             जय जय बजरंगी  महावीर 
       हम पर भी कृपा करो देवा --------दो भक्ति-दान सबको  देवा 
      है पास न अपने फल मेवा -------- स्वीकारो स्वामी नयन  नीर
       
              जय  जय बजरंगी महाबीर   हे संकटमोचन हरो पीर  


निवेदक  -   भोला 


             

सोमवार, 3 मई 2010

सिंगापुर से श्री अनिल एवं सौ. इंदुजा द्वारा प्रेषित एक सुंदर "विचार"

हमारी "आत्मा" एक POSITIVE ENERGY है. यह Energy उस SUPER ENERGY का अंश है जो इस जगत को चला रहा है और जो सिर्फ POSITIVE ही है .

हमारा शरीर एक मोटर कार की Battery है जिसमे यह Positive Energy अर्थात आत्मा विराजमान है. हमारे NEGATIVE विचार इस Battery को DRAIN करते रहते है. जैसे कि हम जब Battery के Positive और Negative terminals को short करते है तो battery की Energy क्षीण हो जाती है उसी प्रकार Negative THOUGHTS या Negative DEEDS हमारी ENERGY पर कुप्रभाव डालते है.

अच्छे विचार और अच्छे कर्म इस Battery की Energy को चार्ज करते है - उसकी भूख मिटाते है.

पर यह Battery सबसे अच्छी CHARGE होती है जब वह SUPER ENERGY के साथ होती है अर्थात जब हम पूजा, प्रार्थना, ध्यान करते है. इसलिए यह जरूरी है की हम रोज थोडा समय उस SUPER POWER के साथ बिताये और अपनी Battery Charge करे.

हमने यह भी देखा है की जब हम बहुत दुखीं होते है या हताश हो जाते है तब हमारी ENERGY या यह कहे आत्मा बहुत DRAINed Feel करती है और तभी प्रभु की शरण में बैठ कर हम पुनः CHARGE हो जाते है - प्रफुल्लित हो जाते है.

जब अंत समय आता है तब इस Battery की ENERGY - आत्मा शरीर से निकल जाती है और रह जाता है एक Battery का खोका - निढाल शरीर जिससे फिर जीवन यात्रा संभव नहीं है.

चूंकि कोई ENERGY कभी ख़त्म नहीं होती है अतः हमारा यह विश्वास है कि हमारी आत्मा - ENERGY उसी परम ब्रह्म में जा मिलती है जो कि Super ENERGY है और जिसका यह एक अंश है.

इसलिए जरूरी है कि हम सिर्फ POSITIVE विचार और कर्म करे और NEGATIVE विचारों और कर्म से दूर भागें.

यह भी सुना है कि:

हमारे विचार ही हमें कर्म करने को कहते है और
यही कर्म धीरे धीरे हमारे सस्कारों में परिवर्तित हो जाते है.

इसलिए यह जरूरी है की हम अच्छे विचार लाये जिससे हम अच्छे कर्म करे और फलतः अच्छे संस्कार डालें.......

रविवार, 2 मई 2010

राम ही राम बस राम ही राम

राम ही राम बस राम ही राम,
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम ,
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम ,

ओ वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम
वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम ,
तेरे सीने में समाये बस राम ही राम,

राम राम, राम राम, राम राम राम (२)
राम ही राम बस राम राम ही राम (२)
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम (२)

राम के दिवाने तेरी सच्ची है लगन ,
राम के भजन में तू रहता है मगन ।
तेरे जैसा भक्त कोई राम का नहीं ,
राम के सिवा किसी को मानता नहीं ।

ओ वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम
वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम ,
तेरे सीने में समाये बस राम ही राम,

राम राम, राम राम, राम राम राम (२)
राम ही राम बस राम राम ही राम (२)
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम (२)

रात दिन सेवा करे श्रीराम की ,
लाल तुझे मानती हैं माँ जानकी ।
मां ने वरदान दिया, खुश हो गया,
भक्त से तू भक्त शिरोमणी हो गया ।

ओ वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम
वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम ,
तेरे सीने में समाये बस राम ही राम,

राम राम, राम राम, राम राम राम (२)
राम ही राम बस राम राम ही राम (२)
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम (२)

दुनिया में है ही नहीं कोई ऐसा काम ,
बनवारी कर नहीं कर पाये हनुमान ।
जिसे विश्वास नहीं तेरा हनुमान ,
उसको शरण नहीं लेते श्रीराम ।

ओ वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम
वीर हनुमान तेरे साथ में हैं राम ,
तेरे सीने में समाये बस राम ही राम,

राम राम, राम राम, राम राम राम (२)
राम ही राम बस राम राम ही राम (२)
आगे-आगे राम तेरे पीछे-पीछे राम (२)
राम ही राम बस राम राम ही राम (२)

शनिवार, 1 मई 2010

"कृपा" प्राप्ति के साधन

गतांक से आगे

"प्रभु-कृपा" प्राप्ति के साधन

"सत्संग" से जगती है साधक में "कृपाप्राप्ति" की तीव्रतम अभिलाषा और उसके साथ ही उदय होता है उसकी पूर्ति के लिए एक शुभसंकल्प. यह है प्रभु-कृपा-प्राप्ति की "साधना " का प्रथम सोपान. इस संकल्प की पूर्ति के लिए दूसरा सोपान है , गुरुजन के आदेशानुसार धर्ममय जीवन जीना. व्यक्ति यदि ऐसा कर पाए तो वह निश्चित ही कृपाप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है.

इस सन्दर्भ में और किसी का दृष्टांत क्या देना. आज निर्भयतासे अपनी ही कहानी सुना देता हूँ.

सत्संगों का क्रम हमारे जीवन में जन्म से ही चल पडा था गुरुजनों के आदेशों का पालन शायद अपने माता पिता की पुन्यायी जनित संस्कारवश, आजीवन होता रहा.

शैशव में अम्मा (प्रथम गुरु)की गोद में सीखा "प्रेम" और "करुणा" का पाठ. बालपन में उन्ही ने बताई "सत्य" की महिमा, हमे सत्य हरिश्चंद्र की करुण कहानी सुना कर और फिर प्रति पूर्णमासी मोहल्ले में कहीं न कहीं होने वाली "भगवान सत्यनारायण" की कथा" सुनकर (जहाँ हम तब केवल प्रसाद प्राप्ति हेतु जाते थे) हमने जाना, असत्य बोलने का परिणाम. झूठों को शतानंद के समान कष्ट झेलने पड़ते हैं. इस भय ने हमारा सत्य प्रेम और दृढ कर दिया.

प्रेम ही नहीं वह करुणा की भी साकार मूर्ति थीं. प्रियजन, अपने बच्चों को तो सभी माताएं प्यार करतीं हैं. लेकिन हमारी अम्मा तो घर में काम करने वाले नौकरचाकर और आसपास के निर्धन और अनाथ बच्चों पर जितना प्यार लुटातीं थी आज कल की बहुत माताएं अपने बच्चों को उतना प्यार नही दे पाती.

मुझे १९३४ की याद है. कभी कभी अम्मा घर की जमादारिन की नन्ही सी बच्ची "मखनिया" को सर्दी के दिनों में स्वयं गरम पानी से नहलातीं धुलातीं थी और भूख लगने पर उसे चम्मच से दूध पिलाती थीं. यही नही वो हमारे निर्धन साधनहीन मित्रो की भीअक्सर हम से छुपा कर सब प्रकार की मदद करती रहती थीं.

इस प्रकार अम्मा के सिखावन से सत्य, प्रेम और करुना का समावेश हमारे जीवन में हुआ और प्रभु कृपा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ.


क्रमश: