श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा एवं दर्शन का सौभाग्य कई बार प्राप्त हुआ। ये प्रसंग मैंने ब्लॉग में पहले भी लिखे हैं।
प्रियजन, श्री श्री
माँ आनंदमयी ने एक सत्संग सभा में (मुझे तब ऐसा लगा था, मुझे ही संबोधित कर के) एक अति महत्वपूर्ण
सूत्र उजागर किया था । यह हमारा १९७४ में हुआ "निज अनुभव" है जब माँ
बम्बई आयीं थीं और उनका प्रवचन पूर्वी अंधेरी में हुआ था।
"जब यह न समझ सको कि क्या लिखूँ, क्या बोलूँ, निराश हो कर अपनी
कलम फेंककर अकर्मण्य हो बैठ मत जाओ, पिताजी । अपनी कलम और जोर से पकड़ कर कागज़
पर उतार दो। और फिर पढ़ो कि कागज़ पर क्या लिखा गया: (माँ ने मुझे ही संबोधित करके
पूछा था - मैं अवाक था, हंसते हुए उन्होंने फिर कहा) क्या पढ़ोगे पिताजी, तुमने तो कुछ
लिखा ही नहीं। हाँ, तुमने कुछ नहीं लिखा -- कीन्तू ओई गोपाल सोब कीशू
लीखे दीयेचें - वो ऊपर वाला भोगवान ने सब लिख दिया। पर लिखा क्या ? शून्य, शून्य
पिताजी, आपनी आमी सौबे शून्यो आची, शेई गोपालजी आमादे आप्नाये जानाच्चेंन, (she said that with out HIS GRACE we are all big CIPHERs That is what
HE the LORD tells us through the inked impression left by the point of your pen
on the paper.) वह कहती गयीं
"प्रभु इस प्रकार हमें हमारी शून्यता और असमर्थता का एहसास करा देते हैं।
उसके बाद तुम्हें क्या करना है आमी तोमाय बोलबो"
माँ ने फिर कहा
"ऐसी स्थिति में तुम्हारे पास केवल एक रास्ता है, अपने आप को पूरी तरह प्रभु की शरण में
समर्पित कर देने का। और उनसे प्रार्थना करने का कि प्रभु हमें ऐसी बुद्धि और शक्ति
दो कि हम अपना कार्य भली भांति सम्पन्न कर सकें। जब अपना खालीपन (शून्यता) प्रभु
को बताओगे प्रभु तुरत ही तुम्हारी झोली नूतन ज्ञान से भर देंगे। प्रेरणाएं उमड़
घुमड़ कर तुम्हारे पास आ जायेंगी, इस प्रकार, प्रभु कृपा से आप का कार्य सफलता से संपन्न
हो जाएगा।
माँ ने फिर कहा "आमी आर आपोनीयो, शाब केऊ शूँन्नो आची" (All of us are just Ciphers) । यह कह कर माँ ने वहाँ उपस्थित हज़ारों साधकों को उनकी न्यूनता और शून्यता से परिचित करा दिया । माँ आगे बोलीं, "पिताजी, मानव मन काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का भण्डार हैं। हमें इनके अधीन नहीं रहना है, इन्हें सद् वृत्तियों से मर्यादित रखना है। पिताजी, अंतःकरण में जहां इतनी प्रचुर मात्रा में अवगुण भरे हों वहाँ दैवी गुणों के रखने की जगह कहां से होगी? इन दुर्विकारों का मूल अहंकार है । निकाल फेंकिये अपने मन, वचन, कर्म से इन्हें और निरहंकारी हो कर अपने सब सांसारिक कार्य करते रहिये।
पुनः माँ अपनी बात
समझाते हुई बोलीं "आप व्यापारी हो, सरकारी अफसर हो, कर्मचारी हो, नेता हो या न्यायाधीश हो, आप किसी भी पद पर
आसीन हो यदि आप कार्य करते समय, अपनी गद्दी का अहम भाव, अपने मन से निकालकर और कर्तापन का भाव छोड़
कर अपने काम करें, विश्वास करें पिताजी आपसे उस कार्य में कोई भूल नहीं
होगी।"
उदाहरण स्वरूप:
जैसे आप सुबह से शाम तक अगणित कागजों पर हस्ताक्षर करते हो आपके हस्ताक्षर होने पर
किसी को फांसी होती है, कोई परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, किसी को
आयात-निर्यात व्यापार से लाखों का लाभ होता है। आप इतने शक्तिशाली पद पर हैं, आप इस का अभिमान
छोड़ कर, अपने आपको अहंकार शून्य करके, उस सर्वज्ञ प्रभु का ध्यान लगाओगे, उन से
प्रार्थना करोगे, अपरोक्ष रूप में सत्य का ज्ञान प्राप्त करोगे और उस ज्ञान पर आधारित होकर
निर्णय लोगे, तो आप अन्याय कर ही नहीं पाओगे।
पिताजी, आपने कागज़ पर जहाँ कलम रखी और लिखना शुरू किया, उस जगह पर और उस जगह जहाँ लिखना बंद किया, उन दोनों जगह केवल शून्य के चिन्ह ही अंकित होते है। दोनों ही आपकी शून्यता और आपकी अज्ञानता, मति हीनता, कुबुद्धि और मोह युक्त सांसारिकता के प्रतीक हैं।
पिताजी, हस्ताक्षर करने से पहले, आप का पल भर को मौन रखकर, "कुमति निवारक एवं सुमति के संगी" विक्रम बजरंगी महावीर जी का ध्यान करने से, दामिनी सी दमकती हुई सुमति आपके मानस में अनायास ही प्रगट हो जायेगी और आप चाह कर भी कोई अन्याय और अनुचित कार्य नहीं कर पायेंगे" ।
प्रियजन, माँ की उस प्रवचन
में कही हर एक बात हमारी तत्कालीन निजी समस्याओं का हल हमें बता गयी। हाँ, उन्होंने अपना
प्रवचन जिस वाक्य से शुरू किया वह आपको बता दूँ। उन्होंने कहा था "पिताजी, सारा दींन सोई
करता है, बड़ा-बड़ा निर्णय लेता है। काम इतना है कि कागज़
ठीक से पढ़ भी नहीं पाता, पर अंतिम आदेश देना ही पड़ता है। और आप देता भी है किन्तु
आश्चर्य होता है कि आपसे कोई भूल नहीं होती, आपके काम की कोई शिकायत कहीं से नहीं आती।
माँ ने प्रश्न किया, कोई बोलो क्यों? कोई नहीं बोला तो उस प्रश्न का उत्तर माँ ने
स्वयं अपने इस प्रवचन में दिया था ।
प्रियजन, एकमात्र
मेरा ही नहीं यह असंख्य साधकों का अनुभव है कि जब हम किसी सिद्ध आत्मा का प्रवचन
सुनने जाते हैं, उस समय हमारे मन में जो जो शंकाएं होती हैं, हमें उनका कुछ न कुछ समाधान उस
प्रवचन में अवश्य मिल जाता है। (निश्चय ही वह सिद्ध आत्मा केवल आपकी सार्थक शंकाओं
को ही स्पर्श करता है) ।
माँ के उस दिन के
प्रवचन में, उन्होंने जब वह सवाल पूछा कि "पिताजी, केनो भूल होए ना?" How
and why we do not commit mistakes, despite the big rush of work load? उस समय मैं ऐसी स्थिति में था कि यह समझ ही
न पाया कि वह प्रश्न मुझसे किया गया था। तब मैं किसी अन्य संसार में विचरण कर रहा
था, कुछ
पल पहले माँ के अनुपम स्वरूप का दर्शन करके जो मेरी आँखें बंद हुईं लगभग एक घंटे
तक वो खुली ही नहीं।
प्रियजन माँ से मैं दीक्षित नहीं हूँ। माँ क्या औपचारिकता से दीक्षा देती है? वह तो शिशु के जन्म से, जब तक वह जीवित रहती है, तब तक, हर घड़ी अपने बच्चों को कुछ न कुछ सिखाती ही रहती है। वैसी ही दूसरी जननी हैं माँ आनंदमयी हमारी।
अब बताऊँ क्यों और कैसे मुझे, इस का पूरा
विश्वास हो गया कि माँ ने उस शाम का पूरा प्रवचन केवल मेरा मार्ग दर्शन करने के
लिए ही दिया था।
माँ के उस दिन के
प्रवचन में उपस्थित हज़ारों साधकों में शायद मैं ही एक ऐसा व्यक्ति था जो उन दिनों
नियमित रूप से प्रति दिन सैकड़ों, एक विशेष प्रकार के प्रमाण पत्रों पर अपना हस्ताक्षर
करता था,
जिससे स्वदेश को विदेशों से करोड़ो डालर प्राप्त होते थे। प्रमाण पत्र देने में
थोड़ी सी देरी होने पर सारी की सारी विदेशी मुद्रा की कमाई घुल जाती थी। ऐसा न हो
इस लिए मेरे लिए डे टु डे बेसिस पर काम निपटाना अनिवार्य था। जल्दबाजी में, असावधानी से बहुत भूल हो सकती थी। क्यूंकि भारत भर में, मैं ही एक अफसर था जिसके
हस्ताक्षर मान्य थे ,अस्तु मुझे अकेले ही सारा काम निपटाना पड़ता था। कोई अन्य अफसर
चाह कर भी मेरी मदद नहीं कर सकता था।
लेकिन मुझे विश्वास करना पड़ा मैं माँ के प्रवचन का प्रसंग बन गया हूँ, जब माँ के एक बंगाली शिष्य जो उस साधना सत्संग में शामिल होने कोलकाता से आये थे, माँ के प्रवचन की समाप्ति पर मुझे गले से लगा कर अति भावुकता से बोले । "ओ रे भोला, चीन्हेशी आमाय ?" (तुमने मुझे पहचाना) कैसे न पहचानता उसे। वह कानपुर के मानू दा का छोटा भाई था जो मेरे साथ इंटर में एक वर्ष पढ़ा था। आज ३० वर्ष बाद मिला था। वह आगे बोला "तुमने कभी नहीं जनाया कि तू भी माँ का शिष्य है"। मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह पुनः बोला "आश्चर्यो, भीषण आश्चर्यो - आज का पूरा प्रवचन माँ ने तेरे को संबोधित करके ही बोला"। मैंने पुनः उनसे पूछा "तुम्हें कैसे पता चला। "। उन्होंने कहा "जितना समय तुम भजन कीर्तन गाया, माँ तुमको देखता रहा - एक टक और तुम्हारे साथ-साथ माँ ने शोब भजन गाया भी। और माँ ने प्रवचन में जो पहला प्रश्न पूछा वो भी तुमसे ही पूछा था। मैंने उनसे फिर प्रश्न किया "तुम्हें कैसे पता चला", वह बोला "बाबा, तुम कितना लकी है, तुम ठीक माँ के आगे बैठा था, माँ और तुम्हारे बीच और कोई नहीं था। माँ शुदु (केवल) तुम्हारी और देखकर प्रवचन कर रही थी और कभी-कभी हाथ से तुम्हारी ओर इशारा भी कर रही थी। तुम बड़ा भाग्यशाली है, रे भोला - आई ऍम जेलस ऑफ़ यू" । कुछ अन्य साधकों ने भी ऐसी ही बात मुझ से कही, तब विश्वास करना ही पड़ा।
प्रियजन, पहले बता चुका हूँ कि माँ के सन्मुख बैठने मात्र से मैं अपने तन मन की सुध बुध खो बैठा था। मेरी आँखें माँ के पूरे प्रवचन में बंद रहीं थीं । मुझे वो सब, जो अन्य लोगों को दिखा था, बिलकुल ही दिखाई नहीं दिया था। पर अंततः विश्वास करना ही पड़ा कि माँ ने मुझ पर विशेष कृपा कर के मुझे ही संबोधित करके प्रवचन का पहला वाक्य कहा था "पिताजी, सारा दीन सोई करता है, किन्तु एकताऊ भूलो होए ना"। माँ के इस कथन ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि उस दिन तक के मेरे काम में मुझसे कोई भूल नहीं हुई है, और आगे भी नहीं होगी।
माँ ने एक सूत्र
भी उस दिन दिया, "विशुद्ध मन से, अहंकार शून्य हो कर पूरे आत्म विश्वास और
ईमानदारी के साथ, सेवा की भावना से किया हुआ कर्म कभी विफल नहीं होता । ऐसे कर्म का कर्ता कभी
कोई भूल कर ही नहीं सकता। प्रभु स्वयं उसके सुरक्षा कवच बन जाते हैं और उसे उत्तम
प्रेरणाएं देते रहते हैं ।"
हाँ, एक और विश्वास
दृढ़ हो गया कि गुरुजन अपने प्रिय साधकों के मन की बात, उनकी शंकाएं और समस्याएँ जानते हैं और वह
शिष्यों को बिना जनाए ही उनकी समस्याएँ हल भी कर देते हैं।
प्रियजन, मैं तो मानता ही हूँ, आपको भी मानना पड़ेगा कि मुझे अनायास ही प्राप्त हुई श्री श्री माँ आनंदमयी कि कृपा का दर्शन मेरी किसी साधना के कारण नहीं मिला था। सच तो यह है कि मैंने ऐसी कोई तपश्चर्या इस जीवन में की ही नहीं थी जिसके फलस्वरूप मुझे इतना- रोमांचक, इतना मधुर एहसास इतनी सरलता से मिलता। मुझे जो कुछ भी मिला वह केवल-केवल हरि कृपा से ही मिला।
तुलसीकृत रामचरितमानस में विभीषण का यह कथन कितना सत्य है :-
अब मोहि भा भरोस
हनुमंता
चलिए, अब आपको बता ही
दूँ कि प्रभु ने क्या-क्या जुगाड़ किये मुझे उस दिन यथा समय माँ
के सत्संग में पहुँचने के लिए।
भाई, मैं तो जानता
भी नहीं था कि माँ का सत्संग हमारे निवासस्थान के बहुत करीब अंधेरी ईस्ट में ही हो
रहा है पर उस दिन बात कुछ ऐसी हुई कि इत्तेफाक से हमारे एक बंगाली कॉलीग कोलकाता
से टूर पर हमारे दफ्तर में आ गये। लंच के समय ही उन्होंने एलान किया कि वह लंच के
बाद किसी सरकारी कार्य से बाहर जायेंगे। मैं दफ्तर का अध्यक्ष था अस्तु उन्होंने
मुझे कॉन्फिडेंस में लेकर बता दिया कि वह सरकारी काम के बहाने टूर बना कर माँ
आनंदमयी के साधना सत्संग में शामिल होने को आये हैं। (भारत के सरकारी अफसर, अक्सर एक पन्थ दो
काज कर लेते हैं)। हाँ, ऑन ड्यूटी होने के कारण
वह कानूनन स्टाफ कार का इस्तेमाल कर सकते थे। अस्तु गाड़ी में बैठ कर वह सर्किट
हाउस होते हुए सत्संग में जाने का कार्यक्रम बना कर दफ्तर से निकल गये।
न जाने किस
प्रेरणा से उसी समय हम ने भी मन बना लिया कि हम भी आज माँ का दर्शन करेंगे। अस्तु, हम लोकल ट्रेन से अपना वही हज़ारों कागज़ पर साइन करने वाला दिन भर का काम निपटा
कर चल पड़े और फटाफट घर पहुँच गये। तब तक धर्म पत्नी और पाँचों बच्चे भी अपने-अपने दैनिक कार्य निपटा कर घर पहुँच चुके थे। पूरा परिवार यह जान कर कि किसी
सत्संग में जाना है बहुत उत्साहित था। जल्दी ही हम सब, अपने ताम-झाम के साथ सज-धज कर उस पंडाल के बाहर पहुँच गये जिसमें श्री श्री माँ का आगमन कुछ समय में
होने को था।
पंडल खचाखच भरा
हुआ था, बैठने की कौन कहे, कहीं तिल रखने की जगह नहीं थी। हम सातों प्राणी इस दरवाज़े
से उस दरवाजे दौड़ लगा रहे थे, कि कोई पहचाना व्यक्ति मिल जाये, कहीं किसी कोने
बैठने की जगह बता दे । हमारे कोलकाता वाले कोलीग मोशाय भी दिखाई दिए लेकिन वह भी
हमारी अनदेखी करके बगल से गुजर गये । परिवार सहित मेरी छोटी बहन माधुरी, बहनोई बबुआजी (विजयबहादुर चन्द्र) और भतीजा छवि
(अनुराग) भी वहाँ आ गए थे । काफी देर तक हम सब, बड़ी बेताबी से, माँ के उस खचाखच
भरे पंडाल में प्रवेश पाने का प्रयास करते रहे। पर बैठने की कौन कहे कहीं खड़े
होने की जगह भी नहीं मिली।
उस समय मेरे मन के
किसी अँधेरे कोने में इस आशा कि ज्योति टिमटिमा रही थी कि शायद माँ का कोई
प्रभावशाली भक्त, जो एक्सपोर्टर भी हो और कभी मेरी सरकारी सेवा से लाभान्वित हुआ हो, मुझे पहचान ले और मेरे पूरे परिवार को उस पंडाल में
बैठने के लिए थोड़ी सी जगह दिलवा दे । पर ऐसा लगा जैसे मेरे प्यारे प्रभु की
जुगाड़ी योजना में आज हमें यह मामूली सी सुविधा दिलाने का भी प्रावधान नहीं था।
लेकिन, जैसा हम सब जानते-मानते हैं कि "भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है"। हुआ ऐसा कि माँ के आगमन के १५-२० मिनट पहले ही हमारे प्यारे प्रभु को हम सब पर बहुत दया आयी और उन्होंने हम पर अति करुणा कर के अपना चमत्कार दिखा ही दिया। कैसे?
मैंने स्वयं देखा
और सुना, माँ के बम्बई आश्रम के एक संन्यासी, अति चिंतित स्वर में, माँ के प्रमुख
अनुयायी स्वामी निर्मलानंद जी से कह रहे थे "सुधा जी और सुलक्षणा जी को आज
माँ के आगे भजन गाना था किन्तु, दोनों का फोन, अभी-अभी आया कि वो आज नहीं आ पाएंगी। भीषण चिंता का विषय है, माँ का पंडाल में
आने का समय हो गया। अब क्या बंदोबस्त हो सकता है। बूझोते पारी ना।" तभी एक
आवाज़ और सुनाई दी "स्वामी जी चिंता कोरून ना, आज के एयी नोतून लोग के गावाना । बेश भालो
गान कोरें लोक ता, आज माँ को इनके भजन सुनवाइए,
हमने इनका भजन बिरला मातुश्री, और भूलाभाई देसाई
ऑडिटोरियम में स्वामी अखंडानंद जी के सामने सुना है। बहुत सुंदर हरि कीर्तन करता
है ये पूरा चन्द्रा-श्रीवास्तव परिवार"। प्रियजन हम नहीं जानते कि वह व्यक्ति
कौन थे जिन्होंने हमारा यह भजनीकी परिचय स्वामी निर्मलानंद जी को दिया था। पर हमें
यह पूरा विश्वास है कि उस व्यक्ति से मेरा कोई ऑफिसियल कनेक्शन नहीं था।
कहाँ हमें पंडाल में प्रवेश नहीं मिल रहा था और कहाँ माँ के अति निकट उनसे केवल दो गज की दूरी पर, बिलकुल उनके सामने बैठने का अवसर मिल जाना। क्या यह किसी अजूबे से कम है? आप ही देखें, कैसे हमारे प्यारे प्रभु ने हम जैसे नगण्य व्यक्तियों को श्री श्री माँ आनंदमयी के दिव्य विग्रह का ऐसा भव्य दर्शन इतने पास से संभव करा दिया। प्रियजन तुलसी ने कितना सच कहा है:
"कोमल चित अति दीन दयाला, कारण बिनु रघुनाथ कृपाला। "
वहाँ बैठे हुए मैं सोच रहा था, काश मेरा विश्वास अपनी कुर्सी और अपने ओहदे के बजाय प्रभु कृपा पर होता तो हमें इतनी चिंता और इंतज़ार का सामना नहीं करना पड़ता। जो निर्मलता और जो निष्कामता प्रभु श्री राम को प्रिय है वह शायद मेरी विनती में नहीं थी। यही कारण था कि कुर्सी और अधिकार के अहंकार से प्रेरित मेरी यह कामना कि कोई सेठ एक्सपोर्टर मुझे पंडाल में बैठाये, प्रभु ने नहीं पूरी होने दी । और इस प्रकार प्रभु ने मुझे एक अनैतिक और गलत काम करने से बचा लिया।
शीघ्र ही कार्यक्रम का विधिवत शुभारम्भ हुआ। हमें माँ के सन्मुख भजन सुनाने का आदेश हुआ। समय दिया गया पन्द्रह मिनिट का। अपनी भजनांजलि अर्पित करने से पूर्व हमने केवल इतना ही देखा था : अति सुगंधमय उज्ज्वल पुष्पों से सुसज्जित उच्च सिंहासन पर बिराजीं, दूध से भी धवल परिधान धारण किये श्री श्री माँ का दिव्य विग्रह। माँ की मुस्कराती हुई मन मोहिनी छवि। और सोने के फ्रेम में से, ज्योति शिखा सी दमकतीं कृपा लुटाती उनकी दो बड़ी-बड़ी आँखें । श्री माँ की वह नजर, जिधर घूमती उधर प्रेमामृत की बौछार हो जाती। हमारे जीवन का यह पहला अवसर था जब हम किसी ऐसी सिद्ध विभूति को इतने निकट से देख पा रहे थे। हम रोमांचित थे, हमें एक अति विशेष आत्मिक आनंद का रसास्वादन हो रहा था।
हमने भजन प्रारंभ किया, देवी माता की अति प्रसिद्ध प्राचीन वन्दना से।
ॐ सर्व मंगल
मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये
त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
और उसके बाद
हम सबने गाया हरि ॐ शरण जी का अति लोकप्रिय भजन :
जगदम्बिके
जय जय जगजननी माँ
क्या मनहर
नाम सुहाया है
वारूँ सब
कुछ माँ चरणों पर
रे मन को
ये भाया है
जगदम्बिके
जय जय जगजननी माँ
जय माँ
.....जय माँ .. जय माँ .....जय माँ ..
श्रीराम तू
ही श्रीकृष्ण तू ही
दुर्गा काली
श्रीराधा तू
जय माँ
.....जय माँ .. जय माँ .....
श्रीराम तू
ही श्रीकृष्ण तू ही
दुर्गा काली
श्रीराधा तू
ब्रह्मा
विष्णु शिवशंकर में
तेरा ही तेज
समाया है
जगदम्बिके
जय जय जगजननी माँ
जय माँ
.....जय माँ .. जय माँ .....जय माँ ..
और फिर न जाने
कितनी देर तक जय माँ जय माँ की धुन माँ के पंडाल में गूंजती रही। जब हम रुक जाते
इधर उधर से फिर वही जय माँ जय माँ की धुन उठ आती और उसके रुकने से पहले फिर कोई
धीरे से कहता "प्लीज़ रुकिए नहीं, गाते रहिये", हमारी मंडली से कोई एक हमारा नया भजन शुरू कर देता। यही क्रम चलता रहा ।
हमारे चन्द्रा-श्रीवास्तव परिवार ग्रुप में ४ वर्ष की सरगम से लेकर ४५ वर्ष का मैं था। आज इतने वर्षों बाद कोई आश्चर्य नहीं कि हम में से किसी को भी याद नहीं है कि उन ४०-४५ मिनिटों में, जब हम भजन गा रहे थे तब हमारे आमने-सामने या आगे-पीछे क्या हो रहा था । हम एक के बाद एक मातृ वन्दन के पद गा रहे थे। अगला पद हमारी छोटी बहन मधू चंद्रा ने शुरू किया॥ धीरे-धीरे हम सब और हमारे साथ-साथ पूरा पंडाल ही गा उठा।
जगजननी जय!
जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि
जय जय।
तू ही
सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रहम रूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव
सुर-भूपा॥
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज
आनन्दराशी॥
अविकारी, अघहारी, अकल
कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता
हरि, हर संहारकारी॥
तू विधि वधू, रमा तू, उमा
महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या
तू, तू जननी जाया॥
जग जननी जय
जय, माँ जग जननी जय जय
प्रियजन, हम सब गा
रहे थे । सारा पंडाल माँ की जयकार से गूँज रहा था । जैसा बता चुका हूँ, मेरी आँखें बंद
थीं, बंद ही रहीं जब तक माँ बोलीं नहीं। लगभग आधे घंटे की धूम-धडाकेदार हरि कीर्तन
रुकने पर एक अनोखी निस्तब्धता पूरे पंडाल में छा गयी। करीबन मिनिट भर के लिए जैसे
सब कुछ थम गया । ऐसी नीरवता कि यदि सुई गिरती तो उसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ जाती। सब
स्तब्ध थे। हम माँ के सबसे करीब, ठीक उनके सामने बैठे थे। हमारे और उनके बीच पुष्पों, अगर बत्तियों और
धूप की पवित्र सुगन्ध से भरे सूक्ष्म वायुमंडल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। माँ
की पतित पावनी विग्रह से प्रसारित हो रहीं उनकी परमानन्द दायिनी ऊर्जा, अछूती, सीधे मुझे सिर से
पाँव तक रोमांचित कर रही थी। सर्वत्र शांति ही शांति थी। आनंद ही आनंद था।
थोड़ी देर में एक हल्की सी आवाज़ स्पीकर पर सुनाई पड़ी "हे राम"। हमारे कान खड़े हो गये, मेरी आँखें बंद थीं समझ न सका किसने लगाई यह प्रेम भरी गुहार हमारे इष्ट देव को। चंद पल बाद सुनाई दिया एक अन्य अनूठा संबोधन, "पिताजी... "। हम ने पहिले कभी माँ का प्रवचन नहीं सुना था इसलिए नहीं जानता था कि माँ अक्सर यह सम्बोधन पंडाल के सभी पुरुषों का ध्यान एकाग्र करने के लिए करतीं थीं । मैंने भी सुना "पिताजी" पर तब तक न मेरी आँखें खुलीं थीं, न मेरा द्रवीभूत हृदय ही स्थिर हो पाया था अस्तु समझ न पाया कि कौन बोल रहा है, पर एकाग्रता से सुनता रहा । कुछ पलों में जान गया कि जो मैंने सुनी वह श्री श्री माँ आनंदमयी की ही अमृत वाणी थी। आगे माँ बोलीं:
"पिताजी, आप सब बहुत बहुत दूर से यहाँ आये हैं। कितना कितना बस और लोकल में धक्का खाकर यहाँ पहुंचे हैं। क्यों आये और कैसे आ पाए आप ? बोलून, पिताजी" कौन बोलता, माँ ने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया। "पिताजी, कोई भी कार्य भलीभांति सम्पन्न करने के लिए कर्ता को ये तीन बातों का ध्यान रखना है, जैसा आपने भी किया होगा । "प्रथम आपने यहाँ आने का दृढ़ निश्चय किया होगा । दूसरा आप निकल पड़े होंगे और तीसरी सबसे विशेष क्रिया जो आपने की होगी यह कि अपने आपको पूर्णतः अपने भगवान को समर्पित कर दिया होगा। इस प्रकार आपकी इन तीनों क्रियाओं (1. Determination, 2. Action, 3. Surrender ) ने आपको यहाँ पहुंचा दिया। यदि आप इन तीनों में से एक क्रिया भी ठीक से नहीं करते तो आप यहाँ तक नहीं पहुँच पाते।"
माँ के उस शाम के
प्रवचन ने मुझे विश्वास दिला दिया कि माँ अपूर्व दिव्य शक्तियों से भरपूर हैं, माँ त्रिकाल
दर्शिनी हैं साधकों उपासकों सेवकों और वास्तविक भक्तों के प्रॉब्लम, उनके प्रश्न, उनकी चिंता के
विषय और उनके कारण, तथा समाधान की विधि, माँ सब कुछ बिना पूछे ही जान लेती हैं। आपने
देखा ही कैसे जब हम पंडाल में घुस तक नहीं पा रहे थे श्री माँ ने हमें अपने पास
बुला कर इतने निकट बैठा लिया और कितनी लगन से और मन लगाकर उन्होंने हमारे भजन
कीर्तन सुने (केवल सुने ही नहीं वरन हमारे स्वर में स्वर मिला कर हमारे साथ-साथ गाये भी - जैसा अनेक प्रत्यक्ष दर्शियों ने हमें बाद में बताया ) जितनी
देर हम वहाँ बैठे रहे माँ के स्नेहिल आशीर्वाद की अमृत वर्षा हम पर होती रही।
कार्यक्रम के समापन पर एलान हुआ कि अगले दिन वृन्दावन के गोस्वामी जी की पार्टी रास लीला प्रस्तुत करेगी। हम ने मन बना लिया कि हम सब अगले दिन भी वहाँ जायेंगे। रास लीला के बहाने एक बार फिर माँ का दर्शन होगा सबसे बड़ी लालच यह थी।
अगली शाम हम माँ
के पंडाल में समय से काफी पहले पहुँच गये। उस दिन "रास लीला" का
कार्यक्रम था। लालचन, हम कल की तरह आज भी सबसे आगे बैठना चाहते थे। हमें
माँ के सामने बैठने का आनंद जो कल मिला था उसका सुखद एहसास हम आज एक बार फिर करना
चाहते थे। पर आज वहाँ हमें कोई पूछने वाला नहीं था कल के "वी. आई. पी."
आज फुट-पाथी जन साधारण बन गये थे। कल की दूध सी सफेद चादर के नीचे पड़े मोटे कालीन
की जगह आज (जल्दी आने के बावजूद) हमें चौथी कतार में लाल काली स्ट्राइप वाली धूल
धूसरित दरी पर, श्री श्री माँ के चरण कमलों से लगभग २० मीटर की दूरी पर बैठने की जगह मिली।
थोड़ी देर में, शंखनाद के साथ
श्री श्री माँ आयीं । उनकी साक्षात देवी लक्ष्मी सी मनोहारिणी छवि देखते ही हमारा
मन पवित्रता एवं दिव्यता के प्रकाश से भर गया। कल के सत्कार के कारण उभरा मन का
अहंकार और आज अपनी असली हैसियत पहचान कर, अपनी साधारणता का ज्ञान होने पर हमारे मन
में उठा क्षोभ का सैलाब, माँ के दर्शन मात्र से, पल भर में छूमंतर हो गया ।
रासलीला कब शुरू
हुई कब खतम हुई, उसमें क्या-क्या हुआ, हमसे न पूछिये; हमारी निगाहें तो माँ के मुखारविंद पर, उनके अति आकर्षक
दिव्य विग्रह पर टिकी हुई थीं । वहाँ से हटना ही नहीं चाहती थीं। बताऊं क्यों? एक तो उनका दिव्य
आकर्षण और दूसरी थी हमारी क्षुद्रता या मानवीय कमजोरी। बता ही दूँ जब सच बोलना है तो क्या छुपाना? मेरे मन के किसी
कोने में एक चोर बैठा था। मुझसे कहता था, कल तुमने भजन सुना कर माँ को इतना प्रसन्न
किया, माँ आज भी तुम्हें पंडाल के भीड़ भाड़ में जरूर खोज रहीं होंगी। उस समय पुनः हमें
अहंकार नामक चोर ने अपने वश में कर लिया था। मेरे प्यारे स्वजन, देखा आपने, मानव
कितना असहाय, कितना बेबस, कितना मूर्ख बन जाता है। अभी कल ही माँ ने अहंकार शून्य करने की सीख दी । और आज हम, वापस जाने के
बजाय झूठे अहंकार की डगर पर चार कदम आगे ही बढ़ गये ।
मैं उचक-उचक कर अपने आप को प्रदर्शित करने का निष्फल प्रयास करता रहा। माँ ने मेरी और
देखा तक नहीं। वह कृष्ण लीला का आनंद लूट रहीं थीं। उन्हें उस लीला में, उनके इष्ट
राधा-कृष्णा के साक्षात् दर्शन हो रहे थे। मेरी निराशा की सीमा नहीं थी। लीला
समाप्त भी हो गयी। सब जाने लगे । माँ भी उठीं। मचान से उतरीं। मैं अपनी जगह पर ही
खड़ा हो गया। श्री माँ हमारी तरफ न आकर दूसरी और मुड़ गयीं। मुझे निराशा का एक और
धक्का लगा। दुखी हो मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। रोने को मन कर रहा था। माँ कल
बाबा मुक्तानंद के गणेशपुरी आश्रम जा रहीं थी। अब मुझे माँ के दर्शन कब और कहा हो
पाएंगे ?
माँ के आगे पीछे
लोग इधर उधर भाग रहे थे। मैं यथा स्थान खड़ा रहा, आंसू भरी बंद आँखें लिए और दोनों हाथ जुड़े
हुए, नमस्कार की मुद्रा में। कुछ पलों में ऐसा लगा जैसे माँ हमारे आगे से निकल कर
दूर चलीं गयीं । मैंने धीरे से आँखें खोलीं। प्रियजन, क्या देखता हूँ कि उसी पल, हमसे आगे निकली हुई माँ, अनायास ही घूम
गयीं और मेरी तरफ देख कर उन्होंने आशीर्वाद के मुद्रा में अपना हाथ उठाया । संयोग
देखिये उस पल भी मेरे और माँ के बीच कोई व्यक्ति या अन्य कोई व्यवधान नहीं था। वह
मेरे इतने निकट थीं कि मैं सुनहरे फ्रेम के नीचे से चमकती हुईं उनकी दोनों आँखों
को साफ़ साफ देख पाया।
मेरे अतिशय प्रिय
स्वजन, मैं बयान नहीं कर पाऊँगा कि श्री माँ की उन दोनों आँखों में कितना आशीर्वाद और
कितनी स्नेहिल शुभ कामनाएं भरीं थीं। मेरी अपनी जननी माँ की आँखों में जो वात्सल्य, करुणा और प्यार
दुलार की घटाएं मैं ४० -५० वर्ष पूर्व देखा करता था, वही आज श्री श्री माँ की आँखों से उमड़
घुमड़ कर मेरे सम्पूर्ण मानस पर अमृत वर्षा कर रही थी। मेरा जीवन, मेरा तन मन सर्वस्व धन्य हो गया था । मैं नख से शिख
तक रोमांचित था।
मैया मोहे
मंगल दर्शन दीजे
विमल मधुर
तेजोमयी मूरति, मनोगमा मैं निहांरू,
निज
ममता-मंदिर में, मैया, मुझको अपना लीजे
मंगल दर्शन
दीजे मैया
श्री स्वामी जी
महाराज का मातृ वंदन का यह पद मैं, १९५९ के अपने प्रथम पंच-रात्रि-सत्संग में शामिल
होने के बाद अक्सर श्री राम शरणम के सत्संगी साधकों के सन्मुख गाता रहता हूँ।
कितनी बार इसे गाते-गाते बहुत भावुक हो गया, एक विचित्र
स्थिति में पहुँच गया, किसी ने उसे आवेश कहा, किसी ने कहा "हाल में
इनकी माँ नहीं रहीं, इससे भावुक हो रहे हैं" आदि आदि॥ सच पूछो तो
मुझे स्वयं नहीं पता कि कभी-कभी भजन गाते-गाते मुझे क्या हो जाता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ:
जब भी उन को
भजन सुनाता, जाने क्या मुझको हो जाता,
रुन्धता कंठ, नयन भर
आते, बरबस मैं गुमसुम हो जाता ।
रासलीला मंचन के
समापन पर हमें श्री माँ का मंगलमय दर्शन, अति निकट से हुआ । श्री माँ की ज्योतिर्मयी
आँखों से निकली वात्सल्य-करुणा व ममतामयी शुभ कामनाओं की संजीवनी फुहार ने मेरी
दर्शन प्यासी आँखों को तृप्त कर दिया । पूर्णमासी का चाँद देख कर जैसे सागर का
ज्वार तट की तरफ दौड़ पड़ता है, वैसे ही परमानंद कि धारा मेरे अन्त स्थल में प्रवेश
कर गई । प्रियजन, मेरा अंतर्घट पूरा भर कर छलकने लगा, मेरी आँखें भर आयीं
अभी भी, हमारे मन में, माँ से दृष्टि
दीक्षा में मिली, आनंद की वह लहराती भेट वैसे ही हिचकोले ले रही है, विश्वास करिये अभी इस पल भी, मैं रोमांचित हो
रहा हूँ श्री श्री माँ के स्मरण मात्र से। मन करता है जय माँ, जय माँ जय माँ जय
माँ करके सारा भू-मंडल गुंजायमान कर दूँ।
मुंबई की रासलीला
में हुए श्री श्री माँ के दर्शन के साथ मेरे दफ्तर, घरबार और परिवार की सभी समस्याएं एक एक कर, आप ही आप सुलझ
गयीं यह समझ में आया कि जिस व्यक्ति के माथे पर उसके माता-पिता एवं गुरुजन के
आशीर्वाद की शीतल अमृत वर्षा सतत हो रही हो उस व्यक्ति को किसी प्रकार का सांसारिक
ताप कैसे सता सकता। है। जो व्यक्ति ईश कृपा का सुरक्षा कवच धारण किये हो उसे बलवान
से बलवान शत्रु घायल नहीं कर सकता, उसे परास्त होने का तो सवाल ही नहीं है।
"जाको राखे साइयां मार सके ना कोय
बाल न बांका
कर सके जो जग बैरी होय "
मेरे विभाग वाले, मुंम्बई से मेरा तबादला किसी कष्टप्रद स्थान में करवाना चाहते थे, पर हरि इच्छा देखिये; भारत सरकार ने मुझे, साउथ अमेरिका के एक पिछड़े देश के औद्योगिक विकास हेतु, उस देश की सरकार का सलाहकार नियुक्त करवा दिया। यह एक सम्मानजनक पोस्ट थी। मुझे शीघ्रातशीघ्र वहाँ जाना पड़ा । अस्तु हम १९७५ में, २-३ वर्ष के डेप्युटेशन पर मुंबई से, परिवार सहित वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना हो गये।
लगभग ३ वर्ष बाद वेस्ट इंडीज़ से भारत लौटने पर, १९७८ में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हो गयी । यहाँ मैं अपने विभाग में उत्तर भारत क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त हुआ। इसमें हमें निरीक्षण के लिए काफी टूर करने पड़ते थे। भारत आ कर हमारे मन में श्री माँ के दर्शन की लालसा दिनों दिन प्रबल होने लगी। एक बार हम कालकाजी में श्री माँ के आश्रम गये भी पर इस बार माँ का जन्म दिवस बेंगलूर में मनाया जा रहा था, माँ वहाँ गयीं थी। अस्तु माँ के दर्शन नहीं हुए। हम अशोक विहार से कालका जी गये थे, दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर पर। बड़ी निराशा हुई ।
अगली सुबह मुझ को टूर पर आगरा जाना था । शाम की निराशा से मन दुखी था, जाने को मन नहीं कर रहा था। पर जाना तो था ही। विचार किया, व्यक्ति एक निराशा के कारण अपने कर्म तो नहीं छोड़ सकता। अस्तु सबेरे ७ बजे, ताज से रवाना हुआ, १० बजे पहुंचा, १२ बजे तक निरीक्षण पूरा करके आगे कानपुर ऑफिस का आकस्मिक निरीक्षण करने का कार्यक्रम बना लिया।
आगरे से कानपुर तक की रेल
यात्रा की व्यवस्था हो गयी और मैं तूफान मेल पर सवार हो गया। पहले दर्जे की कोच
एकदम जर्जर दशा में थी। दरवाजे बंद नहीं होते थे खिड़कियों में शीशे नहीं थे।
कंडक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया "सर, माफ करें, विद्यार्थियों का राज है सर आप दरवाज़ा लोक
कर के बैठें। खोलिएगा नहीं, चाहे लाख खटखटाएं, कानपुर में ही दरवाज़ा खोलियेगा"। कुछ
जुगाड़ कर के उसने कूपे बंद करवा दिया । मैं नीचे बर्थ पर बैठता, लेटता कभी कुछ
पढ़ कर कभी कोई भजन गुनगुना कर समय काटता रहा। स्वामी जी के भजनों की पुस्तिका
पॉकेट में थी, उसमें का यह भजन कल से ही पूरे जोर शोर से कंठ से फूट रहा था । बंद रेल के
डिब्बे को मैं इसी धुन से गुंजाता रहा ।
जगन मात
जगदम्बे तेरे जयकारे
तू शक्ती
भगवती भवानी,
महिमा मय महामाया बखानी,
विश्व रचे
पाले संघारे
जगन मात
जगदम्बे तेरे जय कारे
कानपुर सेंट्रल के आउटर सिग्नल पर गाड़ी रुक गयी। तूफ़ान जितनी देर खड़ी रही मैं बेचैनी से कूपे में इधर से उधर चहलकदमी करता रहा। बार-बार ब्रीफकेस खोलता, फेस-नेपकिन से चेहरा पोंछता, शीशे में मुंह देखता हुआ अपने काले घने बालों पर कंघी फेरता । थोड़ी देर में कंडक्टर महोदय, जो आगरे पर ही अंतर्ध्यान हो गये थे, सहसा प्रगट हो गये। "सर, क्या बताएँ, सब सोते ही रहते हैं, स्टेशन पर कोई लाइन देने वाला नहीं। घंटे भर से तूफान खड़ी है किसी को फ़िक्र ही नहीं"। वो टले तो कोच अटेन्डेंट, हाथ में झाडन फहराते मेरी सीट की सफाई में जुट गया। मैं उसका मकसद समझ गया और उसकी जवाबी सेवा मैंने भी कर दी। खुश हो कर बोला, "साहेब, इहाँ तो सबे कंफ्यूज हैं, लाइन मैनो चक्कर में पड़ा है, उसको स्टेशन से कोई बताता ही नहीं है कि कौन प्लेटफोर्म की लाइन बनावे, रोज़ तो ६ नम्बर पर जाती है, आज दहिने घूमी, एक नम्बर पर जाने वाली है शायद, दहिने दरवज्जे उतरियेगा साहेब"। अटेन्डेंट की "जी के" कंडक्टर साहेब से ज़्यादा अच्छी थी ।
खरामा खरामा, जनवासे की चाल से
रेंगती तूफ़ान कानपुर सेंट्रल के प्लेटफार्म नम्बर एक में दाखिल हुई। शुरू से आखिर
तक सारा प्लेटफॉर्म बिलकुल सुनसान था, न कोई कुली, न कोई पैसेंजर, न पान बीड़ी सिगरेट वाले, न चाय वालों की
आवाज़। ऐसा लगा जैसे किसी कर्फ्यू लगे शहर में आ गये हैं। मैं हाथ में ब्रीफकेस
लिए, दरवाजे पर खड़ा हो गया। प्लेटफॉर्म खतम होने को आया, जी. आर. पी. गुड्स बुकिंग शेड के सामने
हमारा डिब्बा रुका। मैं खिड़की से दायें बाएं, आगे पीछे देखता रहा,
कहीं कुछ न दिखा । बड़ी निराशा
हुई, मैं, कानपुर का सपूत, एक अमेरिकन देश के विकास की चेष्टा सम्पन्न करके ३-४
वर्ष के बाद अपने शहर आया हूँ, और बाजा गाजा तो दूर, यहाँ एक प्राणी भी पुष्प माला लिए मेरे
स्वागत के लिए नहीं आया है। यह है मानव के चारित्रिक दुर्बलता का एक ज्वलंत उदाहरण
- चार वर्ष पूर्व ही, श्री श्री माँ आनंदमयी ने जिस व्यक्ति को अहंकार
शून्य करने की दीक्षा दी थी, वह व्यक्ति आज पुनः अहंकार के दलदल में धंसा जा रहा
था ।
अनमने भाव से, मैं धीरे-धीरे सम्हल कर कोच के बाहर आया। बाएं दायें
वही सूनापन था, गेट की ओर जाने को घूमा तो नजर आयीं, अँधेरे में, बिलकुल अकेली, आराम कुर्सी पर
आँख बंद किये बैठी, एक ऊंचे बंगाली परिवार की असाधारण आकर्षक व्यक्तित्व वाली दीदी
माँ-ठाकुर माँ सरीखी महिला। ठिठक कर जहाँ था वही खड़ा रह गया। कौन हो सकतीं हैं यह
? सेन
परिवार की अथवा गांगुली परिवार की? क्यों अकेले ही हैं वह यहाँ ? कुछ पलों को मैं इन्हीं
प्रश्नों में उलझा रहा, कि अचानक बिजली सी चमकी -- मुंह से अनायास ही निकलने लगा - "जय माँ, जय माँ, जय माँ"।
प्रियजन, वह कोई अन्य नहीं
था, वह
माँ ही थी। श्री श्री माँ आनंदमयी ही थीं । मैंने बिलकुल हाथ भर की दूरी से उन्हें
देखा । हाथ जोड़ कर उनके आगे खड़ा रहा। उनकी पार्थिव आँखें बंद थीं । पर उन्होंने
अपनी दिव्य दृष्टि से अवश्य मुझको पहचान लिया था । इसी स्थिति में मेरे कुछ पल
बीते, धीरे-धीरे थोड़े, बहुत थोड़े बस ५-७ लोग वहाँ आये। सिंघानिया
परिवार के युवराज दिखायी दिए, अपने स्टाफ के साथ स्वयं दौड़ धूप करके माँ की
यात्रा सुखद बनाने की व्यवस्था करते हुए। कोई टिकट लाने गया, कोई स्टेशन
मास्टर से मिलकर अच्छी बर्थ रिजर्व करवाने। तभी माँ के परम भक्त सेवक, स्वामी
निर्मलानंद जी (वही जिन्होंने १९७४ के मुंबई समारोह में हमें माँ की सेवा में भजन
कीर्तन गाने का सौभाग्य दिलाया था) माँ का असबाब लिए आते दिखे। किसी ने उनका नाम
पुकारा, इस प्रकार मैंने तो उन्हें पहचान लिया, उन्होंने हमें पहचाना या नहीं कहना मुश्किल है।
अब सबसे चमत्कार की बात सुने, स्वामी जी ने माँ का बिस्तर उसी कोच में उसी बर्थ पर बिछाया जिस पर मेरा यह अधम शरीर दिन में ६-७ घंटे बैठा था, जिस पर बैठे-बैठे मैंने भजन गा-गा कर सफर का समय काटा था । मैंने निश्चय किया कि गाड़ी छूटने तक वहीं रहूं, सो रुका रहा।
आश्चर्य हुआ जब स्वामी जी ने
मुझसे कान में कहा "माँ डाक्चेन आपोनाय" (माँ आपको बुला रहीं हैं) ।
मुझको और क्या चाहिए था, जिनके दर्शन के लिए वर्षों से हम तरस रहे थे वही माँ
बुला रहीं थीं । मैं दौड़ कर कोच पर माँ के पास उनके कूपे में पहुँच गया। स्वामी
जी पीछे-पीछे आये। माँ ने एक पर्चा उन्हें दिया जिसे
पढ़ कर वह हमसे बोले "माँ पूछ रही हैं, आपका विदेश का प्रवास कैसा रहा? परिवार कैसा है?" मेरे मुंह
पर जैसे ताला लग गया हो, आँखें झर-झर बरस पड़ीं, कंठ अवरुद्ध हो गया। क्या बोलता ? माँ की दोनों
चमकदार आँखें और उनके हाथों की वह आशीर्वादी मुद्रा अभी भी रोमांचित कर रही है हमें।
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण, अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमें हमारा केवल एक उद्देश्य था कि किसी प्रकार, आप सब के समक्ष उस करुणा सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदाहरण पेश करके आपको कन्विंस करूं, आपको विश्वास दिला सकूं कि हमारा - आपका, इस विश्व में, एक मात्र हितैषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाजी में कहीं भी असत्य का सहारा नहीं लिया है।
इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये, कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमें। पर विश्वास कीजिए, वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं, और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की । कृपया यकीन करिये कि मुझको कानपुर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया और मैं नहीं जानता था कि श्री श्री माँ उन दिनों कानपुर में ही थीं। यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपुर जाकर उनके दर्शन कर सकता था। यह भी सोचने की बात है कि उस खास दिन मैं आगरे से कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है "भाई मैंने कुछ भी नहीं किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई, आप माने या न माने। मेरा तो एक ही उत्तर है, जो भी हुआ वह मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया। प्रियजन, यह सच है, सारी की सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे।
अब आप दूसरी तरफ
की कहानी सुनिए।
माँ बिना कोई
पूर्व सूचना दिए, अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपुर पहुंची थी। वह कानपुर के अपने होस्ट परिवार के अति रुग्ण पितामह
को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का खयाल बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुँचाने का आग्रह किया। होस्ट परिवार के युवराज
उन्हें स्टेशन ले तो आये, पर अब माँ से पूछे कौन कि कहां का टिकट बनवाया जाये ।
इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था। उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी।
अटकलें लग रहीं थीं, माँ शायद, दिल्ली या देहरादून,
पश्चिम दिशा में कहीं जाना
चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी। पर जब श्री माँ
ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा कि पूर्व की ओर जाने वाली
एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है। माँ को वहाँ पहुंचना होगा । पर माँ
आँख बंद किये बैठी रहीं, चुपचाप, समझने वाले जान गये कि माँ वहाँ से उठना
नहीं चाहतीं थीं। स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया, बमुश्किल तमाम, राजी हो गये कि तूफ़ान को ६
के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ ।
अब आप ही बताएं मेरे प्रियजनों, ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है । ऐसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु हम सब का प्यारा प्रभु ही कर सकता है । उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है, और किसको हानि होती है, यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है । अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो, नाम जपते रहो।
बिना मांगे देना
मेरे प्यारे प्रभू की फितरत है, इस बात पर हमें माँ आनंदमयी के मुंबई वाले १९७४ के
सत्संग से सम्बन्धित एक बात याद आयी। मेरी बड़ी बेटी, श्रीदेवी ने जो उस शाम हमारे साथ भजन के
कार्यक्रम में शामिल थी हमें, हमारा ब्लॉग देख कर, बताया कि माँ ने उस प्रवचन में उसके भी एक
प्रश्न का उत्तर दिया था। श्री देवी के मन में यह जानने की इच्छा थी कि
"भगवान अथवा किसी देवी-देवता से प्रार्थना करते समय हमें उनसे क्या मांगना
चाहिए।" श्री देवी को अभी भी याद है कि माँ ने अपने प्रवचन में उसके इस मूक
प्रश्न का क्या मुखर उत्तर दिया। माँ ने कहा था "हम और तुम उनसे क्या मांग
सकते हैं ? जब सच यह है कि हम जानते ही नहीं कि हमें क्या चाहिए,
हमारे लिए क्या हितकर है और
क्या हमें नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए उचित यह है कि हम उनसे केवल सद्बुद्धि, भक्ति और
शक्ति मांगे।" यदि ये हमें मिल गये, फिर हमें उनसे और कुछ माँगने अथवा पाने की
अभिलाषा ही नहीं रहेगी।
धर्म पत्नी डोक्टर कृष्णा जी ने भी कुछ अनुभवों की याद दिलायी। एक यह कि वह श्री माँ से अपने विवाह से पूर्व ग्वालियर में मिल चुकी थीं। श्री माँ १९५५ में राजमाता सिंधिया के न्योते पर ग्वालियर पेलेस में पधारीं थीं। तब कृष्णा जी को अपनी भाभी के साथ महल में मां के सत्संग में सम्मिलित होने का अवसर मिला, जहां सबने काफी निकट से माँ के दर्शन किये थे । माँ का अति आकर्षक व्यक्तित्व, उनका बहुत कम बोलना, उनका सुरीला कंठ और सुमधुर भावपूर्ण भजन कीर्तन गायन कृष्णा जी को आज भी अच्छी तरह से याद है। माँ ने तब एक कीर्तन किया था "कृष्ण कन्हइया, बंसी बजइया, रास रचइया", माँ की दिव्य वाणी ने सबको मन्त्र मुग्ध कर दिया था जो आज भी उनके मन में गूंजती रहती है। इसके अतिरिक्त एक और बात उन्हें याद आयी जिससे उनको तभी विश्वास हो गया था कि श्री माँ दिव्य शक्तियुक्त हैं, वह बिना देखे सुने ही यह जान जाती हैं कि कहाँ क्या हो रहा है और किस के मन में क्या है ? एक विशिष्ट महिला माँ को विदाई देने स्टेशन नहीं आ सकीं, माँ ने ट्रेन छूटते छूटते किसी को बुला कर कहा कि उस महिला से कह देना कि "मैं उसकी मजबूरी जान गयी हूँ। वह दुखी न हो, गोपाल जी सब ठीक करेंगे। "
१९५८ में कानपुर के स्वदेशी हाउस में, माँ पधारी थीं। मेरी बड़ी भाभी जो उन दिनों गर्भवती थीं, कृष्णा को लेकर, वहां इस दृढ़ निश्चय के साथ गयीं कि बिना माँ का प्रसाद और आशीर्वाद लिए वह वहां से नहीं लौटेंगी । सैकड़ों भक्तों की भीड़ में ये दोनों माँ की चौकी से काफी दूर बैठीं थीं। भक्तगण पुष्पमालाएं चढ़ा रहे थे जिन्हें वह तुरत ही लौटा देतीं थीं। एक सज्जन एक टोकरी फूल और एक माला लेकर आये, माँ ने टोकरी तो उन्हें लौटा दी, पर फूलों की माला अपने हाथ में लेकर, घुमा कर जनता की और फेंक दी। हवा में उड़ती वह माला पंडाल के बीचों बीच बैठी हमारी भाभी जी के गले में आप से आप ही पड़ गयी। भाभी ने जो संकल्प किया था वह पूरा हो गया। उनको सीधे, माँ के हाथ से दिया, प्रसाद मिला। कहने की आवश्यकता नहीं है कि माँ के उस आशीर्वाद से भाभी को कितना आत्मिक आनंद और भौतिक सुख मिला। आजीवन वह उस आनंद के नशे में डूबी दिन रात, कृष्ण भक्ति के भजन रचतीं और गुनगुनाती रहीं ।
कृष्णा जी के भतीजे अजेय ने अपने ब्लॉग में, १९५५ में ग्वालियर राजमहल में अपने पिता एवं गुरु पूज्य शिव दयाल जी के श्री श्री आनंदमयी माँ के साथ प्राइवेट सत्संग के बारे में लिखा है। "पूज्य बाबूजी ने परमादरणीय आनंदमयी माँ से प्रति क्षण भगवान का ध्यान करने का साधन-उपाय पूछा। पूज्य बाबूजी की जिज्ञासा के उत्तर में श्री श्री माँ ने बाबूजी से पूछा "पिताजी, आपको ध्यान है न कि इस सत्संग के बाद आपको यहाँ से कचहरी जाना है? " बाबूजी के सकारात्मक उत्तर सुन कर आनंदमयी माँ ने एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया था। जैसा बाबूजी ने मुझे बताया था, एक नवजात शिशु और उसकी माँ (गृहिणी) के बीच सम्बन्ध से इस पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था, "गृहिणी माँ की प्राथमिकता उसका शिशु होता है। सुबह से उठ कर झाड़ू लगाने, कपड़े धोने, रसोई बनाने आदि गृह कार्य करते हुए अपना कान पालने में लगाये रखती है। सारा काम करते हुए भी, उसका पूरा ध्यान बच्चे में रहता है। ज़रा सी भी कुनमुनाहट पर बच्चे को देखने माँ दौड़ कर पालने तक जाती है।" माँ के अनुसार "तू मेरा – तेरी मैं" यही वास्तविक सम्बन्ध है।" जैसे घर के सारे काम करते हुए भी गृहणी माँ का ध्यान अपने नवजात शिशु पर होता है, उसी प्रकार संसार में अपना कर्तव्य कर्म करते हुए साधक को भगवान का ध्यान करना चाहिए ।
श्री माँ के जीवन में, जितना ज्ञानामृत, उनके श्री मुख से अवतरित हुआ उससे कहीं अधिक आध्यात्मिक सूत्र, उनकी ज्योतिर्मयी आँखों से और उनके दिव्य मूक विग्रह की गंगोत्री से पवित्र गंगा जल के समान निर्झरित हुआ और जिस जिज्ञासु की गंगाजली में जितना समा पाया उसने उतना भर लिया। मेरे हिस्से भी जितना आया, मैंने उतना पाया।
जहाँ मुम्बई में
उन्होंने अपने श्री मुख से मुझे संबोधित कर अहंकार शून्य रहने का आदेश दिया, वहीं दूसरे दिन
उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से मेरे मन को परमानंद के पवित्र गंगाजल से भर कर मुझे
प्रेमाभक्ति के प्रथम सोपान पर चढ़ा दिया। आगरे के टूर पर निकलने के एक रात पहले
मेरे मन में माँ का दर्शन करने की जोरदार हूक उठी थी, हम दोनों ने (मैंने और मेरी धर्म पत्नी ने)
उस रात बड़ी देर तक माँ के विषय में बहुत सी बातें की थीं और उनका सुमिरन करते
करते ही सोये थे। उस रात हमारे वार्तालाप का अंतिम वाक्य था "क्या जाने कब हम
अब माँ का दर्शन कर पाएंगे" और जैसा आपको विदित ही है, अगले दिन ही माँ
ने अति चमत्कारी परिस्थिति में मुझे कानपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर साक्षात
दर्शन दे दिया। आज भी माँ की कृपा से प्राप्त, मेरे अन्तर का भक्ति-प्रेमामृत, छलक-छलक कर, मेरे ही नहीं अपितु अनेकों साधकों के मन को प्रेमाद्र कर रहा है।
बंबई में, प्यारे प्रभु ने हमें न केवल पंडाल के भीतर पहुंचाया, हमें माँ का अलौकिक दर्शन करवाया, उनके आगे भजन गाने का सौभाग्य दिया । हमें माँ के दर्शन मात्र से जो दिव्य आनंद प्रसाद मिला उसका स्वाद हम आज तक भूल नहीं पाए हैं। आज भी उस शाम के आनंद और श्री श्री माँ के मुखारविंद से निकले उनके अमृत वचनों की याद आने पर हमें जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसकी स्मृति मात्र से हमारा सारा तन रोमांचित हो जाता है और मन एक अलौकिक प्रकाश से भर जाता है।
कानपुर वाले दर्शन से स्पष्ट हुआ कि उस ऊपर वाले "परम" के समान ही हमारी श्री श्री माँ आनंदमयी भी अपनी संतान को कभी नहीं भूलतीं, और जब कभी भी मेरे जैसा उनका कोई नादान बालक उनकी याद करता है वह दौड़ कर आ जातीं हैं और अपनी ममतामयी आंचल तले, उसे स्नेह, सुबुद्धि, संबल और आत्मशक्ति का पयपान करा कर, जीवन रण में उसे विजयश्री दिला देती है।
मेरे आध्यात्मिक धर्म गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की कृपा और आशीर्वाद से प्राप्त श्री श्री माँ आनंदमयी के दर्शन एवं दृष्टि दीक्षा से मेरा "अहंकार" शून्य हो गया! मुझे जन-जन में "उस परम" के दर्शन का आभास होने लगा और अपनी प्रत्येक सफलता निज करनी से अधिक "उस परम" की कृपा का फल लगने लगी और प्रभु की कृपा पर हमारा विश्वास और दृढ़ हो गया !
चैत्र नवरात्रि (२०२२) के प्रथम दिवस पर सद्गुरु-त्रय की प्रेरणा से उपजी यह निम्न शब्द रचना:
मैया मुझे दरशन दो, दरशन दो, दरशन दो ।
एक बार फिर मम अंतर्घट आनंद अमृत से भर दो।
मैया मुझे दरशन दो, दरशन दो, दरशन दो ।
याद मुझे है कैसे इक दिन मैया तुमने भेज बुलाया
कोटिक भक्तों के आगे माँ तुमने अपने पास बिठाया
भरी सभा में उस दिन मैया केवल मुझसे ही बतियाया
आज पुनः निज बालक को माँ गोदी ले उत्संग भरो ।
मैया मुझे दरशन दो, दरशन दो, दरशन दो ।
वर्षों बाद पुनः जब मन में तव दर्शन की आस जगी
प्रगट हुईं तुम सहसा मैया अमृत रस की झड़ी लगी
फिर भी है अतृप्त यह बालक अब भी खोजे घड़ी-घड़ी
आज पुनः मम जगी पिपासा को दरशन दे शांत करो ।
मैया मुझे दरशन दो, दरशन दो, दरशन दो ।