निज अनुभव - प्रथम कथा
मैं वर्णन करने चला ,श्री हरि के उपकार
महावीर करिके कृपा दो मति बुद्धि सुधार ,
परम पिता ने ह्म पर जो सबसे महती कृपा की है वह है "हमें मानव जन्म देना",दूसरी कृपा यह क़ि हमें ऐसे"हरि-विश्वासी पूर्वज" दिए और ऎसी "दयामयी कृपामयी प्रेममयी "माँ " दी. प्रियजन यह एक ऐसा सत्य है जिसे हमें सदैव याद रखना चाहिए .और परमात्मा को उनके इस अनुग्रह के लिए जितना बन पाए .जब भी बन पाए धन्यवाद देते रहना चाहिए.
असंख्यों में से एक "निज अनुभव":-
१९७४ -७५ में मेरी पोस्टिंग बोम्बे (आज की मुम्बई )में थी .मैं वहां पर भारत सरकार के एक अति कमाऊ (श्वेत एवं श्याम दोनों ही वर्ण का धन उपार्जन करने की क्षमता वाले) विभाग के क्षेत्रीय अधीक्षक का कार्य भार सम्हाले था. मेरे दरवाज़े "कामधेनु" बंधी थी. पर मेरे सीनियर्स और सबोर्दिनेट्स सब ही मुझसे दुख़ी थे .उन्हें यह कष्ट था क़ि "ये दुष्ट न तो स्वयम पीता है और न पीने देता है" जैसा संभावित था हुआ. ऑफिस में ,नित्य प्रति मेरे विरुद्ध कुचक्रों की रचना शुरू हो गयी. क़ि कैसे "कामधेनु" हमारे खूटे से खोल कर किसी खाने पीनेवाले अफसर के द्वार पर बांध दी जाये जिससे न्यायसंगत विधि से बटवारा कर के अधिक से अधिक सरकारी बिरादरान के बालबच्चों को दुग्धपान का सुअवसर प्राप्त हो तथा बाबू लोगों के अपने मयखाने भी चलते रहे जहां वे प्रेम से अपने सीनियर्स को खिला पिला कर अपनी अगली तरक्की का मार्ग प्रशस्त करें.प्रियजन उन दिनों भारत के सरकारी दफ्तरों का दस्तूर ही ऐसा था. हमारे जैसे अपवादी, साल दो साल में इधर उधर ट्रांसफर कर दिए जाते थे.
हाँ बौम्बे में मेरे ऊपर चलाया हुआ उनका वह कुचक्र सफल हुआ. सबने मिलजुल कर वहाँ से मेरा पत्ता साफ़ करवा दिया.उन्होंने मेरा खूटा उखाड़ फेका. दुधारू कामधेनु जहाँ की तहाँ रही. स्कूल के एकेडेमिक सेसन के बीच नोवेम्बर के महीने में राष्ट्रपति महोदय ने प्रसन्न होकर ,तरक्की के साथ मेरी पोस्टिंग दक्षिणी अमेरिका के एक अति पिछड़े देश में कर दी. मुझे भारत सरकार की ओर से उस देश के औद्योगिक विकासके हेतु उनका सलाहकार नियुक्त कर दिया गया.और दस दिन के भीतर वहाँ पहुँच जाने का आदेश भी पारित कर दिया गया.
उस समय हमारे पांचो बच्चे केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ रहे थे, और उनकी माँ हिन्दी संस्थान में अपनी नौकरी के साथ साथ बोम्बेयूनिवर्सिटी में पी एचडी की थीसिस लिख रहीं थीं .जैसा क़ि आम है,यहाँ ऑफिस में किसी को हमारी चिंता नहीं थी.सच पूछो तो वह सब हर्षित थे.उन्हें अब खुले आम बेधडक "कामधेनु" को दुहने का मौका मिल रहा था.
हमारे बौम्बे के दफ्तर से लेकर राष्ट्रपति भवन तक किसी को फ़िक्र नहीं थी क़ि बेचारा "व्ही एन",इतने थोड़े समय में ,अपनी बम्बई की जमी जमाई गृहस्थी उजाड़ के ,बच्चों की पढाई बंद करवा के और,धर्मपत्नी द्वारा हाल में ही ज्वाइन की हुई नौकरी छुड़वा के तथा उनकी थीसिस रुकवा के ,किस प्रकार साऊथ अमेरिका जा पायेगा ?.
इंग्लेंड में पढायी ख़तम कर के जब मैं भारत लौटा था और यह ऊँची नौकरी ज्वाइन करने दिल्ली जा रहा था मेरे गुरुजनों ने आगाह किया क़ि इस काम में मुझे अत्याधिक प्रलोभन झेलने होंगे . उनका कहना था ,यदि मैं उन्हें झेल पाया तो ऊँची से ऊँची कोई वह गद्दी नहीं है जिसे मैं न पा सकूं. पर उसके लिए मुझे एक पूर्णतःअनुशासित ,सत्यव्रती तथा न्यायशील जीवन जीना होगा (शेष कल).
निवेदक: व्ही.एन. श्रीवास्तव "भोला"
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