शुक्रवार, 11 जून 2010

Darshan-Samarpn-Milan

गतांक से आगे
श्री हनुमान जी की प्रेरणा से
दर्शन -समर्पण - मिलन

आप आश्चर्य चकित होंगे क़ि अपने पितामह के देहावसान की यह करुण कथा मैं एक झटके में बिना किसी संकोच के कैसे क़ह गया . प्रियजन , उसी परिस्थिति में आपने हमारी परदादी माँ का गम्भीर करुण रूप भी देखा और उनके सन्तुलित विचारों से अवगत हुए .किस प्रकार उन्होंने उस विषम समय में अपनी निजी पीड़ा को नज़रंदाज़ कर , पूरी सूझ बूझ से , पितामह का " क्रिया कर्म" संपन्न करवाया, सराहनीय है.

मेरे प्रियजनों, परदादीमाँ का तब का वह आत्मबल और मेरा आज का यह साहस प्रदर्शन शायद हमारी लम्बी उम्र ( आज मैं ८१ का हूँ ,परदादी की भी तब लगभग यही उम्र रही होगी) के कारण संभव हुआ होगा. प्रियजन, कहने को तो क़ह गया . पर सच तो यह है क़ि कथित बल और साहस हमारा है ही नहीं . वह हमे "प्रभु" की कृपा से प्राप्त हुआ है . जिस पल हमे कर्तापन का अभिमान होगा उसी पल प्रभु का वह कृपा स्रोत सूख जाएगा . यह ज्ञान हमें सत्संगों से हुआ.और सत्संग प्रभु क़ी कृपा से ही संभव हुए.

परदादी जी की आतंरिक पीडाओं का बाँध बलिया पहुंच कर शुरू शुरू में टूट गया था, पर धीरे धीरे उन्होंने अपने आपको पुन सम्हाल लिया. हरबंस बाबू और गोपाल जी को तलब किया गया और आदेश हुआ कि परदादा जी की तिजोरी मिश्रा जी और चाचा लोगों के सामने तुरंत खोली जाये. दादी जी के आदेशानुसार तिज़ोरी खोली गयीं.

तिजोरी में दादाजी का रोजनामचा, खर्चा बही, ज़मींदारी और लेनदेन के कागजात के बीच एक पोटली में परिवार के सभी पुरुषों की जन्मं कुण्डलियाँ थीं. उसमें ना तो जेवरात थे और न कोई धनराशि ही. सबके सामने जब कुंडलियों की पोटली खोली गयी , तब उसमे एक लम्बी चिट्ठी मिली , जो परदादा जी के हाथ की लिखी हुई थी. वह परिवार के सभी लोगों को संबोधित थी. उसमें लिखा था -------
अचानक कार्यक्रम बदल गया , मलकिन को भी साथ लेना पड़ा. तुम सब अचरज में होगे.वह बात ही कुछ ऎसी थी जिस पर मुझे तब खुद यकीन नही हो रहा था .फिर मै तुम लोगों को कैसे बताता. मगर आज अगर मेरी जगह तुम तिज़ोरी खोल रहे हो, तो समझलो क़ी वह बात सच्ची साबित हो गयी. तो अब बता ही देता हूँ. ...


निवेदक: व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"

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