मंगल दर्शन - समग्र समर्पण
पितामह बाबाजी की तीर्थ यात्रा
पितामह के तीर्थयात्रा के इस वृत्तांत में हम आपको एक साधारण गृहस्थ "कर्मयोगी" द्वारा उनके "अटूट विश्वास" के सहारे "समग्र समर्पण" तक पहुँचने की कथा सुना रहे हैं और धीरे धीरे आज हम उनके जीवन चरित्र के अंतिम पृष्ठ तक पहुँच गये हैं .
तुलसी का यह कथन क़ि "कवनेऊ सिद्धि क़ि बिनु विस्वासा"जीवन भर बाबा जी का मार्ग दर्शन करता रहा . महावीर हनुमानजी की प्रेरणा से वह आजीवन श्रद्धा विश्वास सहित परम पिता परमात्मा से केवल उनकी कृपा दृष्टि ही मांगते रहे. उनका दृढ़ विश्वास था क़ि :
"बिनु बिस्वास "प्रीति" ना होई , सघन"प्रेम"कहु "भगती" सोई "
भगति बिना न मिलें भगवाना , बिनु उन "कृपा" न हो कल्याना "
विश्वास से प्रेम,प्रेम से भक्ति , भक्ति से कृपा, कृपा से "समग्र समर्पण" तथा अन्ततोगत्वा - "दर्शन" अथवा परम शांति की प्राप्ति . गुरुजनों ने उनको यही राह दिखाई थी.बेटों ने अम्मा से चाभी स्वीकार तो कर ली थी पर उनका मन अभी तिजोरी खोलने को तैयार नही था . वह अम्मा से बाबू जी के आकस्मिक निधन का कारण जानना चाहते थे. लेकिन माँ कुछ भी बात करने से पहले ही फफक फफक कर रोने लगती थी . वह कुछ बोल ही नही पाती थी. बेटों ने इसलिए अति दुखी मन से मिसिर जी से ही पूछ लेना मुनासिब समझा..
उन्हें बुलवाया गया और उनसे भी वही सवाल किये . "बाबूजी अच्छे खासे यहाँ से गए थे , अचानक क्या हो गया उन्हें ? और आपने कोई खबर भी नही भेजी, एक तार ही दे देते हम सब कितने खुश थे क़ि गंगा सागर में बाबूजी ने अपना सब संकल्प पूरा कर लिया . बोलिए न फिर क्या हो गया ". बड़े संकोच के साथ , दुखी मन, डबडबायी आँखे और रुंधे कंठ से मिसिर जी ने कहना शुरू किया .
" क्या कहें भैया, मालिक यात्रा के श्री गणेश से आखरी पड़ाव तक पूरी तरह स्वस्थ और सानंद थे. उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ अम्मा जी का हाथ पकड़ कर , सभी मंदिरों में देव- दर्शन किया , चढावा चढाया , प्रसाद पाया.. वह नज़ारा देखने लायक था. लेकिन हमे ऐसा लगा जैसे सबसे अधिक आनंद उन्हें गंगा सागर में मलकिन के हाथ में हाथ डाले, गिन कर सात डुबकी लगाते समय ही आया था. .दोनों जन बिलकुल बच्चो की तरह पानी से खेलते रहे . पानी से निकल कर वह वही सागर तट पर शीतल पाटी बिछवा कर मलकिन के साथ बैठ गये और जोर जोर से समवेत स्वर में रामायण का पाठ करने लगे .गद गद स्वर में वह प्रभु को उनकी अनंत कृपा के लिए धन्यवाद देते रहे. हार्दिक अनुग्रह व्यक्त करते हुए उन्होंने स्वयं गाया था :
" हरि तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो ,
साधन धाम बिबुध दुर्लभ तन मोहि कृपा करि दीन्हो.
हरि तुम-----------
हरि तुम-----------
कोटिहूँ मुख कहि जाय न प्रभु के , एक एक उपकार ,
तदपि नाथ कछु और मान्गिहों , दीजे परम उदार
हरि तुम------------
हरि तुम------------
हैं श्रुति बिदित उपाय सकल सुर , केहि केहि दीन निहोरे ,
तुलसिदास यह जीव मोह रजु जोई बांधा सोई छोरे.
हरि तुम ------------
हरि तुम ------------
और इसके बाद तुलसी मानस से ये दोहे चौपाईयां उन्होंने हम सब से गवायीं :
.. आज धन्य मैं धन्य अति यद्यपि सब विधि हीन,
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन.
और
सो सब तव प्रताप रघुराई , नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ,
क्या बताएं भैया गंगासागर में मालिक-मलकिन की जोड़ी इतनी दिव्य और सुंदर लग रही थी क़ि हम सब रोमांचित हो गये थे. शायद वहीं उन्हें हमारी नजर लग गई."
इतना क़ह कर मिसिर जी फूटफूट कर रो पड़े. वार्तालाप का क्रम तोडना पड़ा. परिवार के जो सदस्य वहा थे वह भी रो पड़े . प्रियजन अब तो मेरी भी आँखे भर आयी हैं , कंठ अवरुद्ध हो रहा है इसलिए शेष कथा कल सुनाऊंगा ...
निवेदक: व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
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