रविवार, 27 जून 2010




सत संगत  के  तीन आयाम
सतचिन्तन,चर्चा, शुभ काम .




राम परिवार के  पारिवारिक सत्संग में ,वर्षों पूर्व  ब्रह्मलीन प्रज्ञाचक्षु श्री स्वामी  शरणानंद जी महाराज ने जीव को प्रभु की विशेष कृपा से प्राप्त ,सत्संग से  मिलने वाले तीन लाभों का उल्लेख किया था..उन्होंने कहा था क़ि सत्संग से प्राप्त होने वाला पहला लाभ है सत्चिन्तन का अवसर ,दूसरा है चिंतन किये हुए विषय पर आपसी चर्चा और अन्तत:चिन्तन और चर्चा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर अपना भविष्य का  कार्यक्रम निश्चित करना. सत्संग के अतिरिक्त प्रभाव बताते हुए स्वामी जी ने मानस में से संत तुलसी की यह चौपाई  सुनाई  थी  :-

मति कीरति गति भूति भलाई  ,जब जेहि जतन जहां जेहिं पाई
 सो जानब सत्संग प्रभाऊ      लोकहु बेदु न आन उपाऊ  

जीव ने जिस समय,जहाँ कहीं से,किसी भी यत्न से जो भी बुद्धि,कीर्ती,संपत्ति ,विभूति और ,भलाई पायी है वह सब सत्संग के ही प्रभाव से प्राप्त हुई समझनी चाहिएहमारे ढाई वर्ष के उस साऊथ अमरीकन प्रवास में हमें उन दो सज्जनों से मिलने के बाद एक लम्बे पारिवारिक सत्संग का आभास होने लगा. ह्म प्रत्येक सप्ताह  सपरिवार कहीं न कहीं मिलते.कभी किसी मन्दिर में ,कभी किसी सत्संग भवन में अथवा किसी न किसी  के घर में दीवाल पर लगीं हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रों के सामने बैठ कर श्रीमद भगवत गीता और तुलसी के राम चरित मानस का पाठ करते.  भारत के गाँव के चौपालों में जैसे पारम्परिक  ढंग से रामायण गाई जाती है उन्ही धुनों मैं ये लोग भी ऊंचे स्वरों से बड़े प्रेम से इस ग्रन्थ का पाठ करते थे. वे रोमन लिपि में छपी अंग्रेज़ी अक्षरों वाली पुस्तकें पढ़ते थे.  एक शब्द का भी शब्दार्थ वे नहीं जानते थे .भावार्थ तो दूर की बात थी. पर वे रामायण की  पूरी कथा जानते थे. रामजन्म से लेकर बनवास से लौटने के बाद अवध में राम-राज्य स्थापित होने तक की एक एक मार्मिक घटना वे जानते थेरामायण गाते समय उनकी दशा विचित्र हो जाती थी.उनकी आँखों से झर झर आंसू झरते रहते थे.उनका कंठ अवरुद्ध हो जाता था. यह ऎसी दशा थी जैसी भारत में पंडित रामकिंकर जी महराज अथवा अयोध्या के स्वामी सीताराम सरन जी के रामायण पाठ के समय प्रेमी रामभक्तों  की हो जाती थी. उन दोनों को उस स्तिथि में देख कर ह्म भी रोमांचित हो जाते थे.आनंद का स्फुरण हमारी नस नस में होने लगता था .संत मिलन का यह दिव्य प्रसाद -अति दुर्लभ है और प्रभु की असीम कृपा से ही मिल सकता है. तुलसी के शब्दों में


               संत विसुद्ध मिलहिं पर तेही  
              चितवहिं  राम कृपा करि जेही

शेष अगले अंकों में.

निवेदक:- व्ही एन  श्रीवास्तव  "भोला"... 
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