शनिवार, 26 जून 2010

"SATSANG" -- the powerful detergent



संतमिलन सुख का गंगाजल 
न्हायधोय मन करलो निर्मल 
निज अनुभव-साऊथ अमेरिकन पोस्टिंग

प्रियजन.  सात समुद्र पार के जिस पिछड़े देश में ह्म़ारी पोस्टिग हुई वहाँ की तत्कालीन सरकार अपनी प्रगति के लिए भारत से सब प्रकार के सहयोग की अपेक्षा रखती थी पर विडम्बना यह थी क़ि वह सरकार अपने देश के  भारतीय मूल के नागरिकों को उनके बेसिक अधिकारों से वंचित रखती थी.आपको विश्वास न होगा क़ि  रोटी-कपड़ा-मकान जैसी मौलिक सुविधाओं पर भी उस सरकार ने ऐसे नियन्त्रण लगा रखे थे क़ि उन बहु संख्यक अधिक समृद्ध भारतीय मूल के नागरिकों को मजबूर हो कर अतिरिक्त मूल के अल्पसंख्यक नागरिकों के शासन में अपनी प्राचीन संस्कृति वेशभूषा  खानपान और धर्म तक बदलना पड़ रहा था .हाँ वहाँ की  परिस्तिथि सचमुच ही अति विषम थी. चलिए वहाँ का हाल बता ही दूँ:-.

भारतीय मूल के निवासी अधिकतर शाकाहारी थे .उस देश की सरकार  ने आलू प्याज तथा गेंहूँ की काश्तकारी तक पर निषेध लगा रखा था इनका आयात  भी वर्जित था.गाय का दूध तक मिलना दूभर था ,बीफ हर चौराहे पर मिल जाता था.प्रत्यक्ष रूप में वह सरकार भारतियों के प्रति भेद भाव रखती थी..मांस न खाने वालों को यदि दूध ,आलू -प्याज़ और रोटी का आटा भी न मिले तो क्या खिला कर वह अपने छोटे छोटे बच्चों को जिलाए ?  हमे भी इससे समस्या थी. पर छोडिये इन दुखदायी बातों को. डिप्लोमेटिक श्रेणी के विदेशी नागरिक होने के कारण हमे अनेकानेक सुविधायें मिलीं थीं. हमारा काम तो किसी तरह चल ही गया पर देखा आपने मैं पुनः संसारिकता में उलझ गया. माया छलनी किसी को नहीं बक्सती, मैं किस खेत की मूली हूँ ?

काली घटाओं में जैसे कभी कभी दामिनी की दमक जगमगाहट भर देती है वैसे ही वहाँ के,भारतीय मूल के दो विशिष्ट नागरिकों से मिलने के बाद हमारा वहाँ का शुष्क जीवन रसमय हो गया.ये दोनों ही सज्जन, दो तीन शताब्दियों पूर्व उस देश में भारत से आये पूर्वजों के वंशज थे. ये दोनों ही  अपनी भारतीय हिन्दू संस्कृति को अपने जीवन से विलग नहीं कर पाए थे.उनके साथ उठ बैठ कर हमे जो सुख मिला, संत तुलसीदास ने ऐसे ही  सुख के विषय में कहा है:,

नहि दरिद्र सम  दुःख जग माहीं 
संत मिलन सम सुख जग नाहीं.

प्रियजन,परमानन्द प्राप्ति की कथा प्रारम्भ हो गयी है.आगे आगे देखिये  होता है क्या? .

निवेदक: व्ही एन श्रीवास्तव  "भोला" 

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