श्री हनुमानजी की कृपा से प्रेरित
बाबा जी की तीर्थ यात्रा
मिसिर जी से आधी अधूरी कहानी सुनी .असली बात पता नही चली. बालक रात भर जगे बेताबी से सूर्योदय की प्रतीक्षा करते रहे. सुबह होते ही मिसिर जी को बुलाया गया चाचा लोग भी आगये. मिसिर जी ने आगे कहना शरू किया:
" भैया , गंगासागर के तट पर मालिक ने रौनक लगा दी. उस दिन हम लोगो के अलावा देश विदेश के अनेक जगन्नाथ भक्त वही रेती पर बैठकर बाबाजी का सारगर्भित भजन मन लगा कर सुन रहे थे. उनमे से एक उड़िया भगत ने मालिक से अर्ज किया क़ि तुलसी के अनुग्रह वाले भजन का सरल हिंदी भावार्थ अहिन्दी भाषी भक्तो के लाभार्थ बताने की कृपा करें. भैया , मालिक पर तो जैसे भगवान जी ने अपनी सारी ज्ञान-गगरी एक साथ ही उड़ेल दी थी. उन्होंने उस पद की बड़ी सरल, सटीक सुंदर व्याख्या की .
मालिक ने कहा था " प्रभु हम सब प्राणियों पर , हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी कृपा वर्षा करता रहता है - जरा सोचो , हमे पेड़ पौधे कीड़े मकोड़े और जानवरों का रूप न देकर मानव देह देने वाले परमपिता परमात्मा ने हम पर कितनी मेहरबानी की है . यह कितना बड़ा अनुग्रह है, उनका हम पर.? अब वह ही, अपनी अहेतुकी कृपा से हमारे माया मोह के बन्धनों को काटेंगे और हमे आवागमन के चक्कर से मुक्त करवाएंगे"
मालिक की उस दिन की चर्चा सुन कर अनेक जिज्ञासु हमारे साथी बन गये जिनके साथ हमने गंगा सागर से जगन्नाथ पुरी तक क़ी यात्रा भजन कीर्तन और सत्संग करते करते बड़ी सुगमता से तय करली.
अगले दिन सुबह हमे श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर जाना था .सोने से पहले देर रात तक मालिक ने हरिचर्चा की और बहुत ज़ोरदार भजन कीर्तन किया. एक बंगाली भक्त ने चैतन्य महाप्रभु का सिद्धमन्त्र समान, सर्व शुभफल दायी कीर्तन बड़ी तल्लीनता से गाया :
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
उन्ही बंगाली संत ने बताया कि मंदिर में , ठीक जगन्नथ जी के गर्भ गृह के सामने ही वह पत्थर का चबूतरा है जहाँ खड़े होकर चैतन्य महाप्रभु बंद नेत्रों से ही जगन्नाथ जी के विग्रह का दर्शन करते थे. कहते हैं कि महाप्रभु के प्रेमाश्रु की झड़ी से उस चबूतरे के पत्थर में अनेकों छिद्र हो गये हैं और गौरांग के श्री चरणों के चिन्ह अभी भी उस पर अंकित हैं. मालिक ने उन संत से अनुरोध किया कि वह उन्हें उस पत्थर का दर्शन अवश्य कराये."
शेष कथा कल देखिएगा .
निवेदक: वही एन श्रीवास्तव "भोला"
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