भारतीय वेदान्त-दर्शन एवं व्यावहारिक जीवन विज्ञान के मर्मज्ञ अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी बीसवीं सदी के ऐसे सिद्ध संत थे जिनके रोम-रोम में पौराणिक धर्म ग्रंथों का तत्व रमा हुआ था! उनकी वाणी में ऐसा माधुर्य था कि वे इस अगम्य ज्ञान को अपनी रसमयी भाषा शैली द्वारा अति सहजता से साधारण से साधारण जिज्ञासु साधक को समझा देते थे!
प्रियजन, वैसे तो मुझको श्री महाराज जी के मंगलमय दर्शन शैशव एवं युवा अवस्था में कानपुर में कई बार हुए थे पर वे सब के सब दूर से दर्शन मात्र थे! उनके अति निकट बैठ कर, उनसे एकांत में कुछ सुनने, समझने तथा सीखने का सुअवसर मुझे मुंबई आने पर १९७०-७५ के दौरान हुआ! यहाँ स्पष्ट कर दूँ ऐसा सौभाग्य मुझे अपने परम पूज्यनीय "बाबू"- गृहस्थ संत माननीय श्री शिवदयाल जी की स्नेहिल कृपा से ही प्राप्त हुआ था!
स्वामीजी की धूमिल सी याद जो १९७०-७१ तक मुझे थी वह केवल इतनी थी कि जब मैं बहुत छोटा था तब कानपुर के फूल बाग, परमट घाट अथवा सरसैया घाट पर वर्ष में एक बार भागवत सप्ताह का आयोजन अवश्य होता था और इन समारोहों के प्रमुख प्रवचनकर्ता विद्वान संत श्री स्वामी अखंडानंद जी हुआ करते थे! पढाई और खेल कूद में व्यस्त रहने के कारण मैं स्वयं तो ऐसे संत समागमों में नहीं जाता था लेकिन मेरी प्यारी अम्मा उन्हें नहीं छोडती थीं! वह यथा सम्भव ऐसे सभी भागवत सप्ताहों में मोहल्ले की अपनी सहेलियों के साथ अवश्य शामिल होती थीं! प्रवचन से लौटने पर अम्मा हमें "व्यास गद्दी" पर आसीन - कथावाचक के विषय में बताती और कथा के सारतत्व से अवगत कराती थीं! शुरू-शुरू में केवल इतने से ही मेरा परिचय स्वामी अखंडानंद जी से हुआ था!
तत्पश्चात विश्व विद्यालय से शिक्षित दीक्षित होकर कानपुर में कार्यरत होने पर १९५२ - ६७ के बीच कभी-कभी मुझे हार्नेस फैक्टरी से घर लौटते हुए रास्ते में पड़ने वाले जयपुरिया हाउस में आयोजित ऐसे दो-चार सत्संगों में शामिल होने का अवसर मिला था जहां मुझे अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज के साक्षात दर्शन हुए! महाराजश्री वहाँ पर आयोजित भागवत सप्ताह में प्रभु की रहस्यमयी लीलाओं की कथा कह रहे थे! मुझे महाराजश्री के वचन सुन कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनके रोम-रोम में रमा वैदिक ग्रन्थों का सार तत्व - "ज्ञानयोग, भक्ति एवं कर्म योग के समन्वित स्वरूप में "त्रिवेणी" के पतित पावन जल के सदृश्य उनके श्रीमुख से सतत प्रवाहित हो रहा है!
प्रियजन, वहाँ त्रिवेणी के उस अमृत तुल्य रस का पान केवल साधारण श्रद्धालु श्रोता ही नहीं अपितु मंच पर विराजित उस जमाने के अनेक जाने माने विचारक तथा सिद्ध संत भी कर रहे थे ! मैंने देखा कि उस समय महाराजश्री के साथ उस मंच पर आसीन रहतीं थीं देश की अनेकानेक महानतम आध्यात्मिक विभूतियाँ जिनमें उल्लेखनीय हैं - परम पूजनीया श्री श्री माँ आनंदमयी, वृन्दावन, काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश तथा बिठूर [ब्रह्मावृत] से पधारे अन्य सिद्ध संतजन!
स्वामी अखंडानंद जी महाराज के श्रीचरणों के निकट बैठने का प्रथम सुअवसर मुझे मुंबई में मिला! १९७१ में मैं मुम्बई में कार्यरत था! ये वे दिन थे जब बड़े-बड़े नगरों में प्रसिद्ध फिल्मी "गायकों" की "नाइट्स" मनाईं जातीं थीं! कहीं "मुकेश नाइट" होती थी तो कहीं "मुहम्मद रफी नाइट", कहीं "गीता दत्त" नाइट और कहीं स्वर कोकिला "लता मंगेशकर जी की नाइट" होती थी ! ऐसे माहौल में, भलीभांति यह जानते हुए कि उस फिल्मी चकाचौंध में भजन संध्या जैसे प्रवचनात्मक संगीत कार्यक्रम का सफल होना असंभव है, कुछ सत्संगी मित्रों के आग्रह पर मैंने और मेरे बहनोई विजय बहादुर चन्द्रा ने [जो उन दिनों भारत सरकार की फिल्म्स डिवीजन में निदेशक थे ], उन भडकीली फिल्मी नाइट्स" से टक्कर लेने के लिए मुम्बई में पहली बार एक "संगीतमयी आध्यात्मिक संध्या" आयोजित करने का मन बनाया!
हमें इसकी प्रेरणा मिली थी गुरुदेव स्वामी सत्यानान्दजी महाराज के इस सन्देश से --
वृद्धि आस्तिक भाव की शुभ मंगल संचार
अभ्युदय सद धर्म का राम नाम विस्तार!!
किस नाम का विस्तार? किस "नाम " का प्रचार"?
प्रियजन "अपने" नाम का प्रचार अथवा विस्तार नहीं करना है! स्वामी जी ने, प्यारे प्रभु के राम नाम के प्रचार व विस्तार की बात कही है! यह वही "नाम" है जिसके लिए तुलसी ने कहा था -
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार,
तुलसी भीतर बाहरहु जो चाहसि उजियार!!
निश्चित किया गया कि आम जनता के लिए यह कार्यक्रम निःशुल्क होगा, प्रवेश हेतु कोई टिकट नहीं बेचे जायेंगे! हम दोनों ने अपने निजी रिसोर्सेज से एक बड़ा सभागार बुक किया, म्यूजिशियन्स की तलाश की, उन्हें राजी किया तथा हमारे पूरे परिवार ने इस कार्यक्रम के आयोजन में हमारा सहयोग किया!
एकाध नामी अतिथि कलाकारों के अलावा सभी प्रमुख गायक हमारे परिवार के ही थे! परिवार के बच्चों ने हाल की सजावट की थी! इन बच्चों ने ही कार्यक्रम के अंत में श्रोताओं में प्रसाद स्वरूप वितरित करने के लिए "पारसी डेयरी" के स्वादिष्ट पेड़े तथा राम नाम अंकित बेल पत्र प्लास्टिक के लिफाफों में भरे थे! वितरण भी बच्चों ने ही किया! प्रियजन मुम्बई में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी सार्वजनिक निःशुल्क कार्यक्रम में प्रसाद भी वितरित हुआ!
गायकों में मंच पर थे स्वनाम धन्य सर्वश्री पंडित गोविन्द जी जयपुर वाले - जिन्होंने "जनम तेरा बातों ही बीत गयो " गाया, संगीत निदेशक सुरेन्द्र कोहली जी जिन्होंने गाया था "राम से बड़ा राम का नाम", सुप्रसिद्ध प्ले बेक गायिका श्रीमती वाणी जयराम तथा इन अतिथि कलाकारों के अलावा स्वयं मैं, मेरी छोटी बहन श्रीमती मधु चंद्र तथा मेरे भतीजे कीर्ति अनुराग थे! सूत्रधारक बहनोई चन्द्रा साहेब थे! लाइव साउंड रेकोर्डिंग बेटी श्रीदेवी [१२ वर्षीय] और बड़े पुत्र राम जी [१० वर्षीय] कर रहे थे!
महापुरुषों का कथन है कि सर्व मंगल हेतु निःस्वार्थ भावना से संकल्पित कोई कार्य कभी निष्फल नहीं होता! ऐसे कर्म एवं कर्ता पर गुरुजनों के आशीर्वाद तथा उनकी अहेतुकी कृपा सतत बरसती रहती है! हमारे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही हुआ!
अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज ने उस कार्यक्रम के दौरान [हमारी जानकारी के बाहर] हमारे पूरे परिवार को अपनी कृपामयी "दृष्टि दीक्षा" से नवाजा! उन्होंने लगातार दो घंटों तक सभागार में उपस्थित रह कर वहाँ के वातावरण को परमानंद रंजित एक अनूठी दिव्यता से भर दिया! हम धन्य हुए उन्होंने हमारी भक्तिमयी विनती "प्यारे प्रभु" के दरबार तक पहुंचा दी!
१९७०-७१ की बात है इसलिए, ठीक से याद नहीं कि वह साउथ बम्बई का "भूलाभाई देसाई सभागार" था अथवा "बिरला मातुश्री सभागार" - जो भी रहा हो, निश्चित समय पर उस विशाल सभागार की बत्तियाँ बुझ गयीं! स्टेज पर हम सब 'कलियुगी भक्तों'- भजनीक कलाकारों पर तेज रोशनी की बौछार पड़ने लगी, हमारी आँखें चौंधिया गयीं फलस्वरूप हमें स्टेज के अतिरिक्त बाहर का कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था!
हाँ तो फिर - ओमकार के दिव्य शंखनाद से कार्यक्रम का श्रीगणेश हुआ! तत्पश्चात हमने संत महात्माओं की आध्यात्मिक भावनाओं से युक्त रचनाओं के गायन द्वारा "चौरासी लाख विभिन्न योनियों में भटकने के बाद, ईश्वर अंश अविनाशी जीव द्वारा नश्वर पंचतत्व-निर्मित-मानव-काया में प्रवेश करने से लेकर उसके वहाँ से बहिर्गमन तक की समग्र जीवनयात्रा का विवरण प्रस्तुत किया"!
कबीर के शब्दों में कपास से सूत कातने, सूत से झीनी झीनी चदरिया बुनने, उसे रंगने, उस पचरंगी चुनरी को जीवन भर ओढने, ठगनी माया के कुप्रभाव से उसे मैला करने तथा संतों के सत्संग में आत्मज्ञान के साबुन से उस पंचरंगी चुनरिया के धुल जाने तक की सारी कथा हमने धीरे-धीरे अपने गायन द्वारा उस मंच पर प्रस्तुत की!
तुलसी के इस सारगर्भित निष्कर्ष से कि अविनाशी जीव ईश्वर अंश है ["ईश्वर अंश जीव अविनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी"] से हमारा कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ और, "कबहुक कर करुना नर देही, देत ईस बिनु हेतु सनेही" होता हुआ उस स्थिति तक गया जहां जीव का मानव तन सांसारिक सुखों से खेलते-खेलते अपने जनक परमपिता को भुला कर अतिशय दुःख झेलने लगा!
अंत में सत्संगों से आत्मज्ञान मिलने पर वह अपने मन को कोसता और कहता है "रे मन मूरख जनम गवायो! कर अभिमान विषय सो राच्यो, नाम सरन नहीं आयो" [सूरदास]!
इस आत्म ज्ञान के होते ही जीव पर "प्रभु" की विशेष कृपा हो जाती है, उसका भाग्योदय होता है और उसे सद्गुरु की प्राप्ति होती है!
वह कह उठता है "भ्रम-भूल में भटकते उदय हुए जब भाग, मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग" [स्वामी सत्यानन्द जी]!
गुरु उसे बताते हैं कि "जन्म तेरा बातों ही बीत गयो-तूने अजहू न कृष्ण कह्यो" [कबीर]!
गुरु आदेश से वह परम पिता से प्रार्थना करता है -" तू दयालु दीन हौं तु दानी हों भिखारी - हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी "[तुलसी] अपने मन को आदेश देता है "भज मन राम चरण सुखदाई" तथा "श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरन भव भय दारुणं" [तुलसी] और अन्ततोगत्वा जीवन मुक्त हो जाता है!
कार्यक्रम के अंत में हमने श्री हनुमान चालीसा गाई! जी हाँ 'हमारे राम जी से राम राम कहियो जी हनुमान' की टेक वाली ही! सभी दर्शक हमारे साथ तालियाँ बजा कर झूम-झूम कर हनुमान चालीसा गा रहे थे! हनुमान जी के दिव्य प्रताप से सभागार का वातावरण पूर्णतः राममय हो गया था!
तभी अचानक ही संचालकों ने स्टेज पर पड़ने वाली लाइट कुछ कम करवा दी जिससे हमारी आँखों की चकाचौन्ध भी कम हो गयी और हमने देखा कि एक विशेष "बेबी" फ़ोकस लाइट" घूमती फिरती उस विशाल हाल के "सेंट्रल आइल" के बीचों बीच, ठीक हम सब भजनीकों के सन्मुख एक बड़ी सी आराम कुर्सी पर विराजमान एक भगवा वस्त्रधारी तेजस्वी देव मूर्ति पर पडी! वह महात्मा अति एकाग्रता से हनुमान चालीसा गायन में हमारा साथ भी दे रहे थे!
प्रियजन क्यूंकि इस कार्यक्रम के पब्लिसिटी फ्लायर्स, पोस्टर्स तथा विज्ञापनों में कहीं भी यह नहीं कहा गया था कि कोई विशेष संत महापुरुष हमारे इस कार्यक्रम को अपने आशीर्वाद से नवाजेंगे, हम यह नहीं जानते थे कि वह महापुरुष कौन हैं! प्रियजन विश्वास करें कि मैं कतई नहीं जानता था कि सभागार में पूरे कार्यक्रम के दौरान हमारे सन्मुख मूर्तिवत समाधिस्थ से बैठे वह तेजस्वी महापुरुष कोई और नहीं वरन अनंतश्री स्वामी अखंडानंदजी महाराज ही थे!
प्रियजन मेरा यह कैसा सौभाग्य था कि जिन दिव्य विभूति के दर्शनार्थ मैं कभी कानपुर की धूल भरी सड़कों पर मौसम की उग्रता झेलता हुआ सायकिल पर घंटों भटकता रहता था, वह महात्मा आज स्वयं हमारे सन्मुख विराजमान थे और उनकी अनंत ममतामयी, करुणामयी कृपा दृष्टि हम सब गायकों पर लगातार डेढ़ घंटे तक अपना आशीर्वाद बरसाती रही थी!
महाराजश्री की उपस्थिति से संचरित ऊर्ध्वगामी ऊर्जा का प्रताप था कि उस सायं सभी श्रोता अपनी सुधबुध बिसरा कर भजन के आनंद सागर में आकंठ डूब गए! मुझे अभी भी याद है कि कार्यक्रम समाप्त होने के बाद कितने ही क्षणों तक श्रोता स्तब्ध से अपनी सीटों पर बैठे रह गये थे ! हाल में "पिन ड्रॉप" शान्ति बिखरी रही!
मेरे जीवन का वह एक अविस्मरणीय दिन था! पाठक जन, उस सायं मेरे जैसे सब विधि हीन दीन जन को "निज जन जानि राम -- संत समागम दीन "! यह वह शाम थी जब केवल मैं ही नहीं वरन सभी गायक, सभी श्रोता एवं आयोजक महाराजश्री के आकस्मिक दर्शन से धन्य-धन्य हो गये थे!
मेरे प्रभु मुझपर कितने कृपालु हैं उसका अंदाजा आपको दे न् सकूंगा! प्रियजन मेरा मुम्बई प्रवास मेरे जीवन का वह मधुर अंश था जब प्यारे प्रभु ने मुझे "छप्पर फाड़ कर" अपनी करुणा से विभूषित किया! मुम्बई प्रवास के दौरान ही प्यारे प्रभु ने मुझे महाराजश्री से मिलने और उनकी असीम कृपा प्राप्ति के कितने ही अन्य सुअवसर भी प्रदान किये!
महाराजश्री से मिलन का एक सुअवसर जिसमें मुझे अतिशय आनंद की अनुभूति हुई उसका विवरण आपको भी सुनाना चाहता हूँ! सुनिए -
सन १९७१ में ही सौभाग्यवश, परम पूज्य बाबू किसी निजी कार्य से मुम्बई पधारे! उन दिनों महाराजश्री मुम्बई में ही थे! अवकाश मिलते ही बाबू ने महाराजश्री से मिलने का कार्यक्रम बनाया और 'मालाबार हिल’ 'स्थित महाराजश्री के "विपुल" वाले आश्रम में हम सब - मैं, मेरी बहिन माधुरी और मेरे बहनोई श्री विजय बहादुर चन्द्र के साथ उनके दर्शनार्थ गये! हम सब कितने भाग्यशाली थे कि उनके श्री चरणों के निकट बैठ कर परम शांति का अनुभव करते हुए उनके अमृत तुल्य वचनों का आनंद उठा सके!
उस दिन की सबसे आनंदप्रद बात यह रही कि महाराजश्री ने जहां एक ओर हमें अपनी सरस और सरल भाषा में आध्यात्मिकता युक्त जीवन जीने की कला बताई वहीं दूसरी ओर उन्होंने स्वयं अपने हाथों से परस कर हम सब को अति सरस भोजन भी कराया! मुझे याद है कि महाराजश्री ने अपने चौके में ही बैठा कर बड़े प्रेम से आग्रह कर-कर के हमें अन्य व्यंजनों के साथ, "सेब" [एपिल] की पूरियां और लौकी तथा दही आलू की तरकारी खिलाई थी! जीवन में पहली और अंतिम बार हमने सेव की अमृत-रस-भरी पूरी का प्रसाद पाया! गदगद हो जाता हूँ जब याद आती है, उनकी वह मनोहारी छवि जिसमें वह प्यार से मुस्कुराते हुए हमारी थाली में भोजन परोसते थे!
सन १९७५ नवम्बर में गयाना [दक्षिण अमेरिका] जाने से पूर्व हम सपरिवार उनके दर्शन करने तथा उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु उनसे मिले! उस दिन महाराजश्री ने मेरे ज्येष्ठ पुत्र राम रंजन को आशीर्वाद स्वरूप 'श्री राम दरबार' का एक मनोहारी चित्र प्रदान किया! राम रंजन ने उस चमत्कारिक चित्र में अंकित अपने इष्ट की क्षत्र छाया में आजीवन आशातीत सफलता पाई! स्वामीजी की इस अहैतुकी कृपा के लिए मेरा रोम-रोम उनके प्रति कृतज्ञ है!
पूज्य बाबू के सौजन्य से ही मुझ जैसे क्षुद्र प्राणी को इन देवतुल्य संतात्मा महाराजश्री से इतना प्यार-दुलार मिला तो स्वयं बाबू पर महाराजश्री की कितनी कृपा होगी
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