रविवार, 13 जून 2010

Pitamah Ka Dharm


गतांक से आगे                                                                

   श्री हनुमानजी की प्रेरणा से 
पितामह का परमधाम गमन 

पितामह .का पार्थिव शरीर ,विश्व - रंग मंच पर अपना किरदार भली भांति निभा कर नेपथ्य में विलीन हो चुका था  साक्षात महाबीर जी की प्रेरणा से हुई  इस मंगलमयी तीर्थ यात्रा में पितामह की विशुद्ध पुण्यमयी आत्मा परमपिता परमात्मा के निज-धाम में प्रवेश पा चुकी थी.संसार सागर की उत्तुंग तरंगों पर थिरकने वाला चन्द्र-प्रतिबिम्ब ,किरणों 
की सवारी कर वापस चंद्रमा में समा चुका था.

अब धरती पर परिजनों के स्मृति  पटल पर अंकित थी उनके साथ बितायी हुई अत्यंत सुखद ,और शिक्षाप्रद पलों की यादें .उनका अनुशासित  जीवन  ,उनकी पूजा, उनकी आराधना, उनकी उपासना का वह अनोखा ढंग जो आज भी अनुकरणीय है.  

वह कहा करते थे " राह चलते सडक के किनारे खड़े, किसी अनाथ बच्चे की आँखों के आंसू पोंछ दो, उसको  कुछ भोजन करा दो,फिर  उसके चेहरे पर पड़ी मुस्कान की  लकीरें देखो ,उनमे तुम्हे साक्षात हरिदर्शन होगा. ,यकीन करो तुम्हारी इबादत ,तुम्हारी पूजा ,तुम्हारी नुमाज़ न केवल कुबूल हुई बल्कि उसका फल भी तुम्हे लगे हाथ ही मिल गया"


पितामह स्वयम उपरोक्त धर्माचरण करते थे और अपने  परिजनो से यही आशा रखते थे क़ी वह सब भी पूजा आराधना का यही सेवा- पथ अपनाएँ. उनके परम-धाम-गमन के उपरांत भी उनका परिवार इसी तरह सच्ची प्रेम-करुना की भावना से परसेवा -परोपकार करता रहे.


पितामह ने अंतिम पत्र में ,सर्व प्रथम अपने परिजन को धर्मं के इसी "परहित"-पथ पर चलते रहने की सलाह दी. उन्होंने जो कुछ भी पाया था  "परसेवा" क़ी  राह पर चल कर ही पाया था.  पुरातन काल से आज तक इसी राह पर चल कर अनगिनत साधकों ने अपना मानव जन्म सार्थक किया है. क्यों न ह्म सब भी इसे अपनाकर अपने अपने इष्ट को प्रसन्न कर लें,वैसे ही जैसे पितामह की परहित भक्ति से श्री हनुमान जी प्रसन्न हुए और स्वयम  साक्षात प्रगट हो कर पितामह का मार्ग दर्शन किया .और इस प्रकार उनकी परमधाम यात्रा इतनी सुगम कर दी. चलिए ह्म भी तुलसी का यह कथन चरितार्थ करें:

परहित सरिस धर्म नही भाई, 
परपीड़ा सम नही अधमाई I

परहित बस जिनके मन माहीं,
तिनकहु जग दुर्लभ कछु नाही I



 निवेदक :व्ही एन श्रीवास्तव "भोला".

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