गुरुवार, 19 अगस्त 2010

jJAI JAI JAI KAPI SOOR (19/8/'10)



हनुमत कृपा-निज अनुभव 


गतांक से आगे  


डॉक्टरों के नजरिये मेरा रोग असाध्य था. विशेषतह  इसलिए क़ी अनेकों टेस्ट करवाने के बाद भी वह यह नहीं समझ पा रहे थे क़ी वे , मेरे शरीर के  किस अवयव के रोग का इलाज करें,हृदय का,फेफड़ों का, किडनी का, लीवर का ,शरीर में जल भराव का,या यूरिनारी इन्फेक्शन का,.उन्हें लक्ष्ण सारे रोगों के नजर आते थे पर पूरी तरह कन्फर्म कोई नहीं होता था. अस्तु मेरा होस्पिटल के क्रिटिकल केअर यूनिट में एक साथ ही सभी रोगों का इलाज चालू हो गया.


सी.सी.यू में परिवार वाले दिवस में केवल एक बार ही मिल सकते थे. पर प्रश्न यह है क़ी वे मिलते किससे?  मैं तो उस यूनिट के एकांत में मदहोश पड़ा ,पूर्णतः चिंतामुक्त हो,इस संसार से परे ,भगवान की किसी अन्य सुंदर श्रृष्टि में आनंद सहित विचरण करता रहता था. परिजन  मुझे सुप्त मान  कर दूर से आनंदमग्न मेरा शरीर देख कर लौट जाते रहे होंगे. 


कितने दिन ऐसे बीते मैं नहीं बता पाउँगा और धर्मपत्नी या बटियों बेटे जो दिनरात मेरे आस पास रहते थे ,उनसे ही इस विषय में कुछ पूछने का साहस कर पाउँगा.बात ये है क़ी उन विषम दिनों की याद दिला कर मैं उन्हें दुख़ी नहीं करना चाहता हूँ. प्रियजन  वैसे ही , मुझे जितना कुछ याद आता जाएगा,मैं आपको सुनाता जाऊंगा.


एक दिवस,जब अपनी हस्पताली तन्द्रा से जागा,कुछ शब्द मेरे जहन में गूँज रहे थे. मैंने धर्मपत्नी से डायरी मंगवायी और सुप्तावस्था में मन में उठे उद्गारों को उसमे उतार लिया. वे शब्द मैं आपको अभी बता देता हूँ.आप समझदार  हैं जान जायेंगे मेरी तत्कालीन मनः स्थिति  .मैं पूरी रचना तो नहीं केवल कुछ पंक्तियाँ  ही यहाँ दे रहा हूँ. 


  रोम रोम में राम बिराजें धनुष बान ले हाथ 
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मुझको भला कष्ट हो कैसे ,क्यूँ कर पीर सतावे
साहस  कैसे करें दुष्ट जन मुझ  पर हाथ उठावे. 
    अंगसंग जब मेरे हैं मारुती नंदन के नाथ 
 रोम  रोम में राम बिराजें , धनुष बान ले हाथ 
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क्रमशः 


निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"



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