शनिवार, 7 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPI SOOR

हनुमत  कृपा - निज अनुभव 
गतांक से आगे 

आत्म कथा चल रही थी 


हमारी यात्रा श्री रामाज्ञा से प्रारंभ हुई थी और उन्हीं  की कृपा  से ह्म दोनों सकुशल भारत पहुँच भी गये.फिर भारत में स्वजनों से इतना स्नेह-सत्कार और प्यार मिला जो केवल परम प्रभु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है . प्रियजन ,सारी मानवता को श्री राम परिवार का सदस्य मान कर यथा संभव उनकी सेवा करने वाले "राम-सनेही" स्वजन ,क्या किसी को "बिनु हरि कृपा "  के मिल सकते हैं?


आपको शायद मेरा उपरोक्त "कृपा-दृष्टांत" कुछ अटपटा लग रहा होगा  पर मेरे प्यारे पाठकों,हमें  केवल अपनी भौतिक उपलब्धियों से ही  उन परम कृपालु "करुना निधान भगवान" की उदारता का आकलन नहीं  करना है.वरन आत्मिक प्रसन्नता और आनंद की प्राप्ति में उनकी अहैतुकी  कृपा का  दर्शन करना है .संत तुलसीदास ने कितना सत्य कहा है 
ऐसो को उदार जग माही ,
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर,राम सरिस कोऊ नाही
ऐसो को उदार ----------- 
तुलसीदास सब भांति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो,
तो भजु राम ,काम सब पूरन ,करहीं कृपा निधि   तेरो
ऐसो को उदार ------------ 


"परम सुख -परमानंद" तो प्रभु क़ी महती कृपा से प्राप्त सत्संग और संत मिलन  द्वारा ही मिल सकता है, वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है.


आपको याद होग़ा राव ण के लंका की रखवारी करने वाली राक्षसी लंकिनी ने अपने जीवन 

के अन्तिम क्षणों में यह सत्य उद्घोषित किया था क़ी श्री हनुमानजी का दिव्यदर्शनऔर 

उनके साथ उसका वह क्षणिक सत्संग उसके जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि थी. उसने 

ह्मारे इष्ट देव श्री हनुमनजी को "तात" क़ह कर संबोधित किया था और कहा,था.


तात स्वर्ग  अपबर्ग सुख  धरिअ तुला एक अंग,


तूळ न ताहि सकल मिलि  जो सुख लव सत्संग 




यदि एक राक्षसी को यह तत्व समझ में आ गया, तो  ह्म so called  शरीफ ,पढेलिखे ,समझदार लोगों को यह साधारण सी बात समझ में क्यों नही आ रही है? .क्यों ह्म पागलों की तरह ,भौतिक सुख सुविधाओं के लालच में पड़े हैं? .क्यों ह्म "मैं अरु मोर ,तोर तें माया" वाली अविद्या माया के वश में बेबस हो रहे  हैं?  प्रियजन, वन के मार्ग में राम, लक्ष्मण के बीच विचरतीं जानकी के समान जीव और ब्रह्म के बीच बिराजीं दैवी-शक्ति सम्पन्न  विद्या रूपेण माया जब,ह्म़ारा मार्ग दर्शन करने को तैयार है.तब ह्म क्यों भटक रहे हैं?


कथा चलती रहेगी, एक दिवसीय अंतराल के बाद भी.
निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला".





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