हनुमत कृपा - निज अनुभव
गतांक से आगे
प्रियजन! आपको ही क्यों मुझे भी अपना पिछ्ला (२७ अगस्त वाला) संदेश पढ़ कर ऐसा लग रहा है क़ी मैं अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहा हूँ .और यह जानते हुए भी क़ी अपने आप पर ,अपने किसी कृत्य के लिए अहंकार=अभिमान करना उचित नहीं है, मैंने वह सब अनुचित वार्ता लिखी.मैं स्वयम समझ नहीं पा रहा हूँ क़ी मुझसे यह अपराध कैसे हो गया . .
इसमें कतयी कोई दूसरी राय हो ही नहीं सकती क़ी "अभिमान-अहंकार" सर्वथा त्याज्य है.. पर परम रामभक्त संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में सुतीक्ष्ण मुनि से यह कहलवाकर क़ी श्री रघुनाथजी क़ी सेवा का सुअवसर पाने वाला साधक यदि अपनी उस स्थिति-(राम सेवकाई का अवसर पाने) का अभिमान करे तो ऐसा अभिमान भूलने भुलाने लायक नहीं है.
बडभागी श्रेष्ठ मुनि सुतीक्ष्ण जी ने कहा था:-
प्रियजन! उपरोक्त कथन से यह कदापि न समझ लीजिएगा क़ी मुनिवर सुतीक्ष्ण जी ने मुझे "अभिमान" करने का लाईसेंस दे दिया है अथवा अब मैं उनके समान महान संत बन गया हूँ. ऐसा कुछ भी नही है. विश्वास करिये भइया अभी भी "मैं वही हूँ ,वही हूँ, वही हूँ मैं बिलकुल नहीं बदला हूँ जो पाठ मेरी जननी माँ ने शैशव में ,,सद्गुरु श्री सत्यानंदजी महाराज तथा श्री श्री माँ आनंदमयी ने युवा अवस्था में तथा श्री राम शरणम के वर्तमान आध्यात्मिक गुरु ,डाक्टर विश्वामित्र जी महाराज ने हमे आज तक पढाया है मैं भूला नहीं हूँ.आज भी मैं उनके पढाये प्रेम-प्रीति-भक्ति के पाठ का अक्षरशः पालन करने का प्रयास कर रहा हूँ.. गुरुजन के कहे अनुसार मै "उनकी" कायनात के ज़र्रे ज़र्रे मे अपने प्रियतम प्रभु की मनमोहिनी छबि के दर्शन करने का प्रयास करता रहता हूँ .
इसी भावना से प्रेरित अपनी एक रचना याद आ रही है जो अपने २००८ के होस्पिटल प्रवास से कुछ दिन पहले बनी थी.
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निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
गतांक से आगे
प्रियजन! आपको ही क्यों मुझे भी अपना पिछ्ला (२७ अगस्त वाला) संदेश पढ़ कर ऐसा लग रहा है क़ी मैं अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहा हूँ .और यह जानते हुए भी क़ी अपने आप पर ,अपने किसी कृत्य के लिए अहंकार=अभिमान करना उचित नहीं है, मैंने वह सब अनुचित वार्ता लिखी.मैं स्वयम समझ नहीं पा रहा हूँ क़ी मुझसे यह अपराध कैसे हो गया . .
इसमें कतयी कोई दूसरी राय हो ही नहीं सकती क़ी "अभिमान-अहंकार" सर्वथा त्याज्य है.. पर परम रामभक्त संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में सुतीक्ष्ण मुनि से यह कहलवाकर क़ी श्री रघुनाथजी क़ी सेवा का सुअवसर पाने वाला साधक यदि अपनी उस स्थिति-(राम सेवकाई का अवसर पाने) का अभिमान करे तो ऐसा अभिमान भूलने भुलाने लायक नहीं है.
बडभागी श्रेष्ठ मुनि सुतीक्ष्ण जी ने कहा था:-
अस अभिमान जाय जनि भोरे , मैं सेवक रघुपति पति मोरे.
I should always be PROUD of the fact that I am in LORDs service.
इसी भावना से प्रेरित अपनी एक रचना याद आ रही है जो अपने २००८ के होस्पिटल प्रवास से कुछ दिन पहले बनी थी.
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रोम रोम में रमा हुआ है, मेरा राम रमैया तू,
सकल श्रृष्टि का सिरजन हारा संघारक रखवैया तू !!.
डाल डाल में ,पात पात में , मानवता के हर जमात में,
हर मजहब ,हर जात पात में , एक तुही है तू ही तू.!!
चपल पवन के स्वर में तू है,पंछी के कलरव में तू है,
भंवरे के गुंजन में तू है ,हर"स्वर" में "ईश्वर"है तू !!
क्रमशः
निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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