मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 5

हनुमत  कृपा 
पिताश्री के अनुभव,

यह कथाएँ शायद मेरे जन्म से पहिले की- १९१० -१९३० के बीच की हैं ! 

बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारत की आबादी लगभग ३०-३१ करोड़ थी ! तब इस देश पर ब्रिटिश सम्राट जोर्ज पंचम का एक छत्र आधिपत्य था ! अँग्रेज़ी मिल्कियत के बड़े बड़े कल कारखाने,मिलें, रेल कम्पनियां ,खदानें, चाय बगानें ,ट्रेडिंग कम्पनियां और सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ी शासन-तन्त्र दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे थे ! 

पर सोने की चिड़िया भारत के नन्हे नन्हे बच्चे अपनी लुटी हुई माँ के उजड़े घोसले में भूखे प्यासे बैठे तत्कालीन अन्धकार में कोई ऎसी रजत रेखा खोज रहे थे जिसके प्रकाश में वह अपना भविष्य सँवार सकें ! 

वस्तुस्थिति यह थी कि उन दिनों अधिक प्रभावशाली जमींदार, तालुकेदार परिवारों के प्रतिभाशाली बालकों को विलायत जा कर विद्याध्ययन करके "बार एट ला" से विभूषित हो कर "आई सी एस" आदि सेवाओं में आकर सीधे कलक्टर, जिला जज,पुलिस कप्तान  या आर्मी कमांडर बन कर दिखाने का चैलेंज दिया जाता था !

हमारे जैसे कम पढ़े लिखे काश्तकारी करने वाले परिवारों के मंद बुद्धि समझे जाने वाले बालकों को अधिक से अधिक सरकारी दफ्तरों में क्लर्क बनने की सलाह दी जाती थी! थोड़े प्रगतिशील परिवार वालों को नायब तहसीलदार अथवा पुलिस के,या सफाई के या आबकारी,चुंगी के दरोगा बन कर ऊपरी कमाई कर के अपनी बहनों के हाथ पीले करने का और फिर उस आमदनी से ही अपना घर भर कर एक सुंदर सी सास ससुर की सेवा करने वाली कामकाजी बहुरिया लाकर बेचारी बूढ़ी दादी की घर आंगन में एक परनाती की किलकारी सुनने का सपना मरने से पहले सच कर दिखाने का उपदेश दिया जाता था 

वैसी ही परिस्थिति में ह्मारे पिताश्री के दो बड़े भाई तब तक मुख्तियार और मुंसिफ बन चुके थे ! पर पिताश्री अनेकों कोशिशों के बाद भी स्कूल से ग्रेजुएशन न कर पाए! आख़िरी बार फेल होने के बाद उन्हें घरवालों के सामने आने का साहस नहीं हो रहा था ! अस्तु जून मास की गर्म लू भरी दोपहरी में वह देर तक नगर की धूल धक्कड़ भरी सड़कों पर बेमतलब भटकते रहे और अंत में हार थक कर आखिर वह सड़क के किनारे एक कुँए की जगत पर बैठ गये ! 

और फिर उनके समक्ष भी वैसा ही कुछ हुआ जैसा ह्मारे दोनों प्रपितामहों के जीवन में हुआ था !एक अनजान व्यक्ति अचानक कहीं से वहाँ पहुँच गया उनकी मदद करने ! और ---------


क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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