रविवार, 24 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 199 - 200

हनुमत कृपा
पिताश्री के अनुभव

हनुमानजी के मन्दिरों में सर्वाधिक भीड़ ऐसे भक्तों की होती है जो अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए उनसे प्रार्थना करने के लिए आते हैं ! एक बड़ी संख्या ऐसों की भी होती है जिनकी मनोकामनाएं श्री हनुमान जी की कृपा से सिद्ध हो गयी होती है और वह वहाँ श्री हनुमानजी को उनकी दया-कृपा के लिए धन्यवाद देने और उनके प्रति अपना अनुग्रह व्यक्त करने के लिए आते हैं ! दर्शनार्थियों में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो सफलता की बाजी हार कर भी श्री हनुमान जी का दामन नहीं छोड़ते और उतनी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ हनुमत भक्ति में लगे रहते हैं जितनी लगन और तत्परता से वह अपनी असफलता से पूर्व उनसे जुड़े थे !ह्मारे पिताश्री उस दिन उन हारे हुए सिपहसालारों में थे जो मैदाने जंग में पीठ दिखा कर भाग रहे थे !

चलते चलते पिताश्री सोच रहे थे क़ि पिछली जुलाई से इस जून तक, उन्होंने प्रत्येक मंगलवार को हरबंस भवन के आंगन के महाबीरी ध्वजा तले मत्था टेका था! आज वह फेल होने के भय से नतीजा निकलने के पहिले ह़ी अपने इष्टदेव की शीतल क्षत्रछाया छोड़ कर चले आये !उन्हें मन ह़ी मन यह दुःख सता रहा था क़ि वह अपने अंतरद्वंद के कारण मंगलवार की परिवारिक पूजा-आरती में भी सम्मिलित नहीं हुए !,यह सोच कर क़ि उन्हें आजमगढ़ में जज भैया की राय बात से भविष्य की योजना बनानी है ! वह बलिया से आजमगढ़ के लिए चल दिए थे !

दूर से ही पिताश्री को उस आगंतुक व्यक्ति की आवाज़ सुनाई दी !वह कह रहे थे " बड़ा देरी लगायो बाबू ! ह्म सुना तुम पूरा हनुमान चालीसा सुनाय आयो उनका ! ऊ जरूर बहुत खुश भये होइहें ! लाओ प्रसाद देव "! पिताश्री ने उन्हें पुड़िया पकड़ा दी ! खोल कर थोड़ा प्रसाद लिया और फिर कुछ देर तक वह अख़बार के उस टुकड़े पर गहरी नजर जमाये हुए कुछ देखते रहे ! बाबाजी तथा पिताश्री ने बड़े प्रेम से हनुमान मंदिर का वह प्रसाद पाया !

उसके बाद काफी देर तक उनमे और पिताश्री में एकतरफा बातचीत चलती रही !बोलने का काम उन्होंने किया और सुनने का पिताश्री ने !उनकी वाणी इतनी मधुर और शब्द इतने सारगर्भित थे क़ि पिताश्री मंत्रमुग्ध हो उनकी बातें सुनते रहे !वह बाबा जी कह रहे थे --

"बद्री जी ,बीती ताहि बिसारिये आगे की सुधि लेहु, ऐसा है क़ि मनुष्य संसार में आता है कभी हंसता खेलता है, कभी रोता है, कभी भयभीत होता है ,कभी हारता है,कभी जीतता है और इन सबसे अकेले ही जूझते हुए वह जीवन जीने का मार्ग खोजता रहता है ! कभी कभी वह माया के खिलौनॉ से खेलने में अपना ध्येय अपना पथ और मार्ग दर्शन करने वाले परमेश्वर से भी बिछुड़ जाता है और इस प्रकार जीवन के कुरुक्षेत्र में धराशयी हो जाता है !इसके विपरीत संसार के संस्कारी व भाग्यशाली प्राणी जीवनपथ पर लडखडाते तो हैं पर अपने इष्टदेव "संकटमोचन" का सहारा पाकर शीघ्र ही सम्हल जाते हैं और अपने मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार के चारोँ घोड़ों की बागडोर प्रभु को सौंप देते हैं ! फिर क्या बात है वे जैसा भी चाहते हैं,भगवान उन्हें वैसा ही देते रहते हैं ! परन्तु प्रत्येक अवस्था में कर्म मनुष्य को ही करने पड़ते हैं !" फिर कुछ देर रुक कर वह बोले " कौने सोच माँ पड़ी गयो बद्री बाबू ,आपन काम करो ,जोंन काम करे वास्ते आये हो इहाँ ! जावहू जज भैया से बात कर लेहू , सब ठीके होई , चिंता जिन करो "

पिताश्री पुनः गम्भीर चिंता में पड़ गये !

क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला".

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