बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 3


हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 
उन बाबाजी के अदृश्य हो जाने के बाद ह्मारे पिताश्री अति दुख़ी मन से उस दिन भर के सारे घटनाक्रम पर पुनर्विचार करते हुए अनमने से खोये खोये अपने बड़े भैया स्थानीय सबजज साहेब की कोठी की ओर चल पड़े ! पिताश्री के ये भैया मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान   श्री राम के उपासक थे , और उस जमाने की अंग्रेज़ी हुकूमत में भी  स्वधर्म की मर्यादाओं को वह अपनी निजी रहनी में तथा अपने इजलास और कोर्ट कचहरी की कार्यवाहियों में  भंग नहीं होने देते थे ! उनका इजलास  ही उनका मन्दिर था और उनके लिए  उनका कर्म ही उनका धर्म था ! वह स्वभाव से अति सौम्य थे , उनकी वाणी क्रोधावेश में भी मधुर ही बनी रहती थी ! न्यायाधीश थे अस्तु घर हो या कचहरी वह अपने सभी निर्णय पूरी तरह नाप जोख कर , समझ बूझ कर देते थे ![अब मैं पिताश्री के जज भैया को बड़े पिताश्री कह कर संबोधित करूँगा]

हाँ तो , हनुमान जी का प्रसाद और अपने फेल होने के निराशाजनक समाचार के साथ , मेरे पिताश्री अपने जज भैया की कोठी में दाखिल हुए! दूर से ही उन्हें आता देख कर बड़े पिताश्री ने उनसे पूछा "कहां रह गये इतनी देर तक ?" उत्तर में बिना कुछ बोले  पिताश्री ने हनुमान जी के प्रसाद की  पुडिया उनकी ओर बढ़ा दी ! श्री राम के परम भक्त बड़े पिताश्री के लिए राम दूत श्री हनुमान जी के प्रसाद के समान मधुर और कोई उपहार हो ही नहीं सकता था ! पुड़िया को माथे से लगा कर उन्होंने प्रसाद के सिन्दूर की बिंदी लगाई और गुड़ चने का प्रसाद अति श्रद्धा सहित ग्रहण किया ! बड़े पिताश्री के हाव भाव से ऐसा लग रहा था क़ि जैसे वह कहीं और से पिताश्री का रिजल्ट जान गये थे और वह उनसे नतीजे की पूछ ताछ कर उनको एम्बेरेस नहीं करना चाहते थे !देखा आपने ह्मारे बड़े पिताश्री कितने व्यवहार कुशल थे!

जो हो ,बड़े पिताश्री ने बात आगे बढाते हुए पूछा "फिर अब आगे क्या करने का विचार है?" पिताश्री ने मौका देख कर प्रसाद की पुड़िया के अखबारी कागज़ को दिखाते हुए बड़े पिताश्री से अपनी उस अनजान व्यक्ति से भेंट की पूरी कहानी सुना दी और अंत में ये भी बताया कि उन महापुरुष ने वह अखबार बड़े पिताश्री को पढ़ाने की बात पर कितना जोर दिया था!

बड़े पिताश्री ने अखबार के उस टुकड़े को  पूरा फैला कर उस में छपा एक एक विज्ञापन ठीक से पढ़ा ! एक विशेष विज्ञापन पर उनकी दृष्टि जम के रह गयी ! विलायत के इम्पीरिअल कोलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी के पाठ्यक्रम के आधार पर भारत की टेक्सटाइल मिलों में अंग्रेज अफसरों की जगह ऊंचे पद पर भारतीयों को ही लगाने के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक टेक्निकल स्कूल उसी वर्ष से चालू हो रहा था !

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

कोई टिप्पणी नहीं: