सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 1

हनुमत  कृपा  
पिताश्री के अनुभव

पिताश्री के जीवन के गहन अंधकार को श्रीमदभगवत गीता के ज्योतिर्मय राजमार्ग पर लाकर उन साधारण से दिखने वाले बाबाजी ने बातों ही बातों में पिताश्री को ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्ति योग के व्यावहारिक परिवेश से परिचित करा कर ,एक प्रकार से पिताश्री को जैसे महाभारत के कुरुक्षेत्र मे ही उतार दिया ! वह कह रहे थे " आज फेल हुए तो क्या हुआ ? बद्रीजी अभी केवल एक दरवाज़ा ही बंद हुआ है ,जीवन के रंगमंच के अनेक दरवाजे हैं और अनगिनत खिड़कियाँ हैं ,तुम्हारे लिए कोई न कोई अन्य खिडकी किवाड़ी भगवान जी ने जरुर खुली छोड़ दी होगी ! ऐसे अकर्मण्य हो कर बैठ जाओगे तो क्या पाओगे,खाली हाथ मलते ,पड़े रह जाओगे !"

पिताश्री अरजुन की भांति एकाग्र चित्त हो सुन रहे थे और वह बाबाजी योगेश्वर श्री कृष्ण के समान धारा प्रवाह बोले जा रहे थे ! "कर्तापन और कर्मफल की आसक्ति त्याग कर कर्म करने चाहिए ! परम सत्य को जानते हुए पूरी क्षमता सामर्थ्य और विवेक बुद्धि के साथ समर्पण भाव, समभाव ,शुभभाव एवं निष्काम भाव से किया हुआ कर्म ,करने वाले को  कर्मयोग एवं धर्मयोग दोनों के लाभ एक साथ ही दिला देते हैं !गुरु कृपा से साधक  को ,परमसत्य स्वरूप परमेश्वर का ज्ञान होता है !इस योग से परमेश्वर को जानकर, उनकी श्रुष्टि के संवर्धन व उन्नयन के लिए धर्ममय कर्म करना और इन सभी कर्मों के फल दृढ़ विश्वास के साथ परमेश्वर को समर्पित करना ही सर्वोच्च धर्म है !अपना धर्म निभावो बद्रीजी ! आगे बढ़ो ,पीछे मुड के मत देखो ,आगे बढ़ो ,घर जाओ ,जज भैया को प्रसाद खिलाकर , प्रसाद की  पुड़िया के कागज़ में जो छपा है उन्हें जरूर पढ़ा देना !,तुम्हारा काम बन जायेगा ,देर मत करो ,जाओ जल्दी जाओ !"

इतना कह कर बाबा जी उठ कर चलने को हुए ! तबतक पिताश्री बाबाजी की बातों से बहुत प्रभावित हो चुके थे ! बाबाजीकी  के रूप में उन्हें कभी अपने इष्ट देव हनुमान जी का और कभी योगेश्वर भगवान श्री कृष्णजी का स्वरुप प्रतिबिम्बित होता दीख रहा था ! परम श्रद्धा से उनके नेत्र कुछ पल को बंद हुए ! पर जब नेत्र खुले तब बाबाजी वहाँ से जा चुके थे !

क्रमशः  
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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