मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 2

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 

प्रियजन ! आज मेरा यह शरीर ८१ सर्दियां ,गर्मियां और बरसातें झेल चुका है और इस अवधि में बेचारा विभिन्न कारणों से यहाँ वहाँ ,विश्व के अनेकों देशों में फिरता रहा है ! इस भटकन से यह लाभ हुआ क़ि मुझे इस असार संसार को थोड़ा बहुत समझ पाने का अवसर मिल गया! अब आप जरा सोचें आज से सौ सवा सौ वर्ष पहले ,बलिया जैसे पिछड़े जनपद के उस होनहार बालक ( ह्मारे १७-१८ वर्षीय पिताश्री ) जिसने बलिया गाजीपुर सुरेमनपुर पटना के अतिरिक्त और कोई जगह देखी ही न थी ,जो स्कूली पढायी के आलावा और कुछ जानता ही न था ,उसकी मनःस्थिति वैसी विषम परिस्थिति में कितनी अस्थिर रही होगी!  

हाँ ,जब पिताश्री ने आँखें खोलीं,वह अनजाने, अनदेखे आगंतुक वहाँ से जा चुके थे ! पर     उनके प्रति पिताश्री के मन में धीरे धीरे एक विशेष श्रद्धा सुमन अंकुरित हो गया था ! आगंतुक के प्रेरणाजनक संभाषण ने पिताश्री को निर्भय होकर आगे बढते रहने  को प्रोत्साहित किया था ! उनके जाते ही पिताश्री  पुनः अपने भविष्य के गहन अंधकारमय खोह में प्रवेश कर गये पर उनके कानों में बाबाजी का वह अंतिम वाक्य "पीछे मुड़ कर मत देखो,आगे बढ़ो " देव मन्दिर के घंटे घड़ियालों के समान बड़ी देर तक गूंजता रहा !

प्रियजन ! मेरे जीवन में भी कुछ कुछ ऎसी स्थिति आयी थी ! मैं भी लगभग १९ वर्ष का था जब मैं अपनी फाइनल ग्रेजूएशन परिक्षा में एक ऐसे विषय में फेल हुआ जिसमे तब तक के मेरे विश्वविद्यालय के इतिहास में कभी कोई फेल हुआ ही नहीं था !मैं अति दुख़ी था !मेरे सहपाठी और  शिक्षक सभी आश्चर्यचकित थे ! डरते डरते मैंने पिताश्री को अपना नतीजा बताया! बजाय क्रोधित होने के पिताश्री ने मुझे  स्वयं अपने फेल होने की और आजमगढ़ में उन बाबाजी से मिलने की पूरी कहानी सुनाई जिसको मैं आप लोगों को सुना  रहा था !आपको याद होग़ा ,अंतर्ध्यान होने से पहिले उन बाबाजी ने पिताश्री से  कहा  था "tआगे बढो पीछे मुड कर मत देखो" !

पिताश्री ने मुझे भी वही बाबाजी वाला संदेश दिया ! मुझे याद है उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए कहा था ,"गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में " बेटा जो घोड़े पर चढ़ेगा ही नहीं ,वह कैसे आगे बढ़ पाएगा ?  मुझे और प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा , हार मान कर निष्क्रिय न हो जाओ अपनी कोशिश करते रहो "और फिर वह गुनगुनाये थे 

बढ़ते रहे तो पंहुंच  ह़ी जाओगे दोस्तों 
जो रुक गये तो हार ही पाओगे दोस्तों,

पिताश्री ने ३०-४० वर्ष पूर्व उन बाबाजी के जिन शब्दों से प्रोत्साहित होकर अपना जीवन संवारा था उन्ही शब्दों से उन्होंने मेरा मार्ग दर्शन किया ! उन्होंने मुझे यह विश्वास दिला दिया क़ि जो हुआ वह मेरे हित के लिए ही हुआ है ,प्रियजन वास्तव में ऐसा हुआ भी था !
मेरा वह फेल होना सचमुच ही मेरे लिए अत्यंत भाग्यशाली सिद्ध हुआ ,क्यों और कैसे? वह पूरी कथा मैं अपने हनुमत कृपा के निज अनुभवों की गाथा में भविष्य में लिखूँगा अभी केवल यह कहूँगा क़ि विश्वविद्यालय के निकट वाले मंदिर के संकटमोचन हनुमान जी ने मेरी प्रार्थना सुन कर ,मुझ पर अतिशय कृपा की जो मैं उस वर्ष फेल हो गया! हाँ यह बिल्कुल सच है !

उधर पिताश्री की शताब्दी पूर्व की कथा में ,उन बाबाजी के जाने के बाद क्या हुआ !सुनिए 
प्रसाद की पुड़िया खोल कर पिताश्री ने उस अखबार के टुकड़े को देखा ,उसमे इश्तहारों के सिवाय और कुछ भी नहीं था ! क्या कुछ और चमत्कार दिखाने वाले हैं बाबाजी ?सोचते हुए पिताश्री जज भैया की कोठी की ओर चल पड़े !

क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

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