शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 2





हनुमत कृपा 
निज अनुभव 
हाँ तो ह्मारे दादाजी,उन अनजान आगंतुक के सुझाव के मुताबिक़ उस सरकारी कोठी में मुंशी जी के पीछे पीछे अंग्रेज मेमसाहेब के समक्ष अपनी फरियाद पेश करने जा रहे थे! 
केवल  भोजपुरी भाषा के ज्ञाता,ह्मारे दादाजी का अंग्रेज़ी भाषा से कोई दूर का भी नाता नहीं था ! पर विडम्बना देखें ,आज वह ही ह्मारे दादाजी ,गाजीपुर जिले के सर्वोच्च ब्रिटिश अधिकारी सर आर डबलू स्मिथ साहेब की गोरी मेंम साहिबा मेडम लेडी  केरोलीन से भेंट करने जा रहे थे !.प्रियजन आप लोग तो दुनिया घूमे है ! विदेशों में भाषा भेद के कारण कितना कष्ट होता है आप भली भांति जानते होंगे ! दादाजी की मनःस्थिति उस समय  कैसी होगी आप जान गये होंगे!

भैया ऎसी स्थिति में हुई मेरी अपनी दुर्दशा मुझे भली भांति याद है! ! पहली बार ,१९६३ के नवम्बर में लन्दन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा! शाम के चार बजे ही रात हो गयी थी !अंग्रेज़ी जानते हुए भी मैं वहाँ वालों की भाषा समझ नहीं पा रहा था !इतना नर्वस हुआ कि भारतीय दूतावास से मुझे लेने आये अधिकारियों द्वारा करवाया हुआ मेरे अपने नाम का  एनाउन्समेंट भी मेरी समझ में नहीं आया,फलस्वरूप वहाँ की ठंढक में भी ,पसीने में लथ  पथ हांफता हूँफ्ता ,अपना भारी  बैगेज अपने हाथों ढोता हुआ ,पहली बार लोकल ट्रेन और डबल डेकर बस का टिकट कटा कर इंडिया हाउस पहुंचा ! अभी भी याद है क़ि कैसे सडक पार करते समय ट्रेफिक पोलिस के आदेश न समझ पाने से और "जेब्राक्रोसिंग नियम "का उल्लंघन करने के कारण मुझे  कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी थी!

उस दिन गाजीपुर में उस अज्ञात अति प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले देवस्वरूपी पुरुष से प्रेरणा और मार्ग दर्शन पाकर,बलिया के छोटे से गाँव का एक साधारण किसान आज बड़ी निर्भयता के साथ जिले के सर्वोच्च अंग्रेज अधिकारी की पत्नी के समक्ष अपनी व्यथा सुनाने जा रहा था !दादाजी के चाल ढाल में कोई शिथिलता नहीं थी ! वह भर पूर आत्म- विश्वास के साथ मन में हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे !

कोठी के पिछवाड़े के बरामदे में मेमसाहेब की झलक मिली ! वह मिले जुले सफेद और लाल रंग का बिलायती सूट पहने हुए थीं और उनके सर पर उतनी ही चटक रंग की टोपी सोह रही थी ! और हाँ तब तक दादाजी ने हनुमान चालीसा का पाठ पूरा कर लिया था !


बरामदे के सामने वाले घास के मैदान में अन्य प्रार्थियों के बीच दादाजी को भी बैठाया गया ! सामने से मेमसाहेब को देखते ही दादाजी को ऐसे लगा जैसे वह किसी बड़े दुर्गा पूजा पंडाल में देवी माँ की भव्य मुर्ति के सन्मुख बैठे हैं ! श्रद्धा से उनकी आँखें आप से आप बंद हो गयी और वह मन ही मन माँ दुर्गा को मनाने लगे !



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