शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 19 8

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव

उस अजनबी के विचित्र हावभाव और आदेशात्मक वक्तव्य से पिताश्री को ऐसा लगा जैसे वह व्यक्ति उनके परिवार का कोई अति घनिष्ट परिजन है ,कोई स्वजन है ! उसकी बातों  से ऐसा स्पष्ट था क़ी वह "हरबंस भवन" परिवार वालों की सभी गतिविधियों से भलीभांति  अवगत था! जैसे वह उस घर के आंगन में ही पला हो वहीं खेल कूद कर बड़ा हुआ हो और अभी सीधे वहीं से आ पहुँचा हो ! पिताश्री के लिए सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने अपने १७ - १८ वर्ष के जीवन में उस व्यक्ति को उस दिन से पहले ,कहीं भी और कभी भी नहीं देखा था!

वह व्यक्ति यह जानता था कि पिताश्री बलिया मे  अपना परीक्षाफल नहीं जानना चाहते थे और इस कारण ही वह बलिया से आजमगढ़ भाग आये थे ! यह बात ऎसी थीं जिसे  पिताश्री के अतिरिक्त कोई और जानता ही नहीं था ! पिताश्री यह समझने में असमर्थ थे कि वह ,एक बिल्कुल ही अनजान व्यक्ति उनक़ी निजी ,इतनी गोपनीय परन्तु सच बातें  कैसे जानता था !

पर वह व्यक्ति था कि बोले  ही जा रहा था ! " का बदुरी बाबू काहे पलात फिरत होऊ इहाँ से उहाँ !बलिया वारे वकील भइया से बहुत डेरात होऊ एह खातिर इहाँ जज भइया के पास भाजि आये होऊ ! का होई भागे भागे ,कछु आगे केर बिचारे के च ही " 

आश्चर्य के साथ साथ अब पिताश्री के हृदय में उस व्यक्ति के प्रति थोड़ी थोड़ी श्रद्धा जाग्रत हो रही थी ! अपनत्व प्रदर्शित करते हुए पिताश्री ने उस अजनबी व्यक्ति से कहा, " बाबाजी आपने पानी तो पिया ही नहीं, बड़ी गर्मी है थोड़ा पनापियाव हो जाये "! मुस्कुराते हुए वह व्यक्ति बोला "का बाबू सुख्खे पानी पियईहो ? क्छू ख्वईहो  नाहीं का ? आज मंगरवार है ,  महाबीर जी के दीँन है ,ह्म बिना परसाद पाए कुछु खात पियत नहीं हन ! जाओ बाबू पांच पैसा के गुड़ चबेना के प्रसाद चढाय लावो ,जब लगी ह्म कुइयां से जल काढ़त हन "

पिताश्री तुरत चल पड़े ! वहीं कुँए के पास वाली भडभूजे क़ी दुकान से उन्होंने पाँच पैसे का गुड़-चबेना लिया और कचहरी के गुमटी पर स्थित हनुमान मन्दिर की मूर्ति पर चढ़ाकर , अखबारी कागज़ की पुड़िया में प्रसाद ले कर ,कुँए की ओर मुड गये , जहाँ वह अजनबी व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा कर रहा था !

क्रमशः 
निवेदक:- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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