सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

बुधवार, 28 जुलाई 2010

JAI MAA JAI MAA

जय माँ जय माँ


श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेट (भाग-३ )

मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण , अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमे हमारा केवल एक उद्देश्य था क़ि किसी प्रकार , आप सब के समक्ष उस करुना सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदहारण पेश करके आपको कन्विंस करूं , आपको विश्वास दिला सकूं क़ि हमारा - आपका , इस विश्व में,एक मात्र हितेषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाज़ी में कहीं भी असत्य का सहारा नही लिया है.

इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये,कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमे. पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं. और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की . कृपया यकीन करिये क़ि मुझको कानपूर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया.और ...मैं नहीं जानता था क़ि श्री श्री माँ उन दिनों कानपूर में ही थीं,यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपूर जाकर उनके दर्शन कर सकता था.यह भी सोचने की बात है क़ि उस खास दिन मैं आगरे से,कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है -("बा बहू और बेबी" की मीनाक्षी की तरह), "भाई मैंने कुछ भी नह़ी किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई आप माने या न माने मेरा तो एक ही उत्तर है जो भी हुआ वह-मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया "प्रियजन, यह सच है ,सारी क़ि सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे..

अब आप दूसरी तरफ की कहानी सुनिए.:

माँ बिना कोई पूर्व सूचना दिए,अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपूर पहुंची थी.वह कानपूर के अपने होस्ट परिवार के, अति रुग्ण पितामह को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का भी विचार बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुचाने का आग्रह किया. होस्ट परिवार के युवराज उन्हें स्टेशन ले तो आये. पर अब माँ से पूछे कौन क़ि कहां का टिकट बनवाया जाये .इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था.उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी.अटकलें लग रहीं थीं ---

माँ शायद ,दिल्ली या देहरादून ,पश्चिम दिशा में कहीं जाना चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफोर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी..

पर जब श्री माँ ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा क़ि पूर्व की ओर जानेवाली एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है.माँ को वहाँ पहुंचना होग़ा .पर माँ आँख बंद किये बैठी रहीं ,चुपचाप, समझने वाले जान गये क़ि माँ वहा से उठना नहीं चाहतीं थीं. स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया , बमुश्किल तमाम राजी हो गये क़ि तूफ़ान को ६ के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ .

अब आपही बताएं मेरे प्रियजनों,ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है .ऎसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु ह्म सब का प्यारा प्रभू ही कर सकता है .उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है,और किसको हानि होती है,,यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग.कर कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो,नाम जपते रहो.कम से कम यह पढ़ते समय तो उनको याद कर लो, और फिर देखो रिद्धिसिद्धि कैसे आपको पुरुस्कृत करती है. अब तो मेरे प्यारे स्वजनों माँ की जयकारबोलो..

"सारे बोलो , मिल के बोलो , प्रेम से बोलो जय माँ , जय माँ"

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",

JAI MAA JAI MAA

जय माँ   जय माँ
श्रीश्री माँ आनंदमयी से अंतिम मिलन (भाग - २ )

कानपूर सेंट्रल के आउटर सिग्नल (पश्चमी) पर तूफ़ान जितनी देर खड़ी रही मैं बेचैनी से कूपे में इधर से उधर चहल कदमी करता रहा. बार बार ब्रीफ केस खोलता ,फेस-नेपकिन से चेहरा पोंछता ,शीशे में मुंह देखता हुआ अपने (तब के) काले घने बालों पर कंघी फेरता (अब की न पूंछो ,अब तो वे काले घुंघराले केश ,९९ प्रतिशत काल कलवित हो चुके हैं ,और जो १--२ प्रतिशत बचे हैं , वे भी अब गये, तब गये कर रहे हैं ).निज स्वभावानुसार मैं फिर भटक गया, मुआफ करना पाठकों. अब सम्हल गया हूँ ,चलिए विषय विशेष पर बढ़ें .

थोड़ी देर में कंडक्टर महोदय,जो आगरे पर ही अंतर्ध्यान हो गये थे सहसा प्रगट हो गये. "सर, क्या बताएँ ,सब सोते ही रहते हैं,स्टेशन पर कोई लाइन देने वाला नही. घंटे भर से तूफान खड़ी है किसी को फ़िक्र ही नही". वो टले तो कोच अटेंडेंट ,हाथ में झाडन फहराते मेरी सीट की सफाई में जुट गया. मैं उसका मकसद समझ गया और उसकी जवाबी सेवा मैंने भी कर दी.खुश हो कर बोला,"साहेब, इहाँ तो सबे क्न्फुस हैं , लाइन मैनो चक्कर मैं पड़ा है ,उसको स्टेशन से कोई बताता ही नही है क़ी कौन प्लेटफोर्म की लाइन बनावे ,रोज़ तो ६ नम्बर पर जाती है आज ,दहिने घूमी ,एक नम्बर पर जाने वाली है शायद , दहिने दरवज्जे उतरियेगा साहेब". अटेंन्देंट की "जी के" कंडक्टर साहेब से ज़्यादा अच्छी थी

खरामा खरामा ,जनवासे की चाल से रेंगती तूफ़ान कानपूर सेंट्रल के प्लेटफार्म नम्बर एक में दाखिल हुई.शुरू से आखिर तक सारा प्लेटफॉर्म बिलकुल सुनसान था , न कोई कुली ,न कोई पसिंजर ,न पान बीडी सिगरेट वाले ,न चाय वालों की आवाज़.,ऐसा लगा जैसे किसी करफ्यू लगे शहर में आ गये हैं. मैं हाथ में ब्रीफ केस लिए,पहले खिडकी से फिर दरवाजे पर खड़ा होगया. प्लेटफोर्म खतम होने को आया , जी आर पी , गुड्स बुकिंग शेड के सामने हमारा डिब्बा रुका. मैं खिडकी से दांये बाएं , आगे पीछे देखता रहा, कहीं कुछ न दिखा . बड़ी निराशा हुई , मैं,कानपुर का सपूत , एक अमेरिकन देश के विकास की चेष्टा सम्पन्न करके ३-४ वर्ष के बाद अपने शहर आया हूँ, और बाजा गाजा तो दूर, यहा एक प्राणी  भी पुष्प माला लिए मेरे स्वागत के लिए नहीं आया है. ( यह है  ,मानव के चारित्रिक दुर्बलता का एक ज्वलंत उदाहरण - चार वर्ष पूर्व ही ,श्री श्री माँ आनंदमयी ने जिस व्यक्ति को अहंकार शून्य करने की दीक्षा दी थी, वह व्यक्ति आज पुनः अहंकार के दलदल में धंसा जा रहा था )

अनमने भाव से मैं धीरे धीरे सम्हल कर कोच के बाहर आया. बाएं दायें वही सूनापन था गेट की ओर जाने को घूमाँ तो नजर आयीं , अँधेरे में,बिलकुल अकेली ,आराम कुर्सी पर आँख बंद किये बैठी , एक ऊंचे बंगाली परिवार की , असाधारण आकर्षक व्यक्तित्व वाली दीदी माँ - ठाकुर माँ (दादी माँ -नानी माँ  )सरीखी महिला. ठिठक कर जहाँ था वही खड़ा रह गया. कौन हो सकतीं हैं यह ? सेन परिवार की अथवा गांगुली परिवार की? क्यों अकेले ही हैं वह यहाँ ? कुछ पलों को मैं इन्ही प्रश्नों में उलझा रहा. क़ि अचानक बिजली सी चमकी--मुह से अनायास ही निकलने लगा "जय माँ, जय माँ , जय माँ"

प्रियजन, वह कोई अन्य नहीं था , वह माँ ही थी.श्री श्री माँ आनंदमयी ही थीं . मैंने बिलकुल हाथ भर की दूरी से उन्हें देखा .हाथ जोड़ कर उनके आगे खड़ा रहा. उनकी पार्थिव आँखे बंद थीं .पर उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से अवश्य मुझको पहचान लिया था (आगे खुलेगा क़ि कैसे पता चला हमे यह.). इसी स्थिति में मेरे कुछ पल बीते , धीरे धीरे थोड़े ,बहुत थोड़े बस ५-७ लोग वहा आये. सिंघानिया परिवार के युवराज दिखायी दिए अपने स्टाफ के साथ स्वयम दौड़ धूप करके माँ की यात्रा सुखद बनाने की व्यवस्था करते हुए.हा तभी कोई टिकट लाने गया, कोई स्टेशन मास्टर से मिलकर अच्छी बर्थ रिजर्व करवाने. तभी माँ के परम भक्त सेवक , स्वामी निर्मलानंद जी (वही जिन्होंने १९७४ के मुंबई समारोह में हमे माँ की सेवा में भजन कीर्तन गाने का सौभाग्य दिलाया था) माँ का असबाब लिए आते दिखे. किसी ने उनका नाम पुकारा , इस प्रकार मैंने तो उन्हें पहचान लिया  ,उन्होंने हमे पहचाना , या नहीं कहना मुश्किल है.

अब सबसे चमत्कार की बात सुने ,स्वामी जी ने माँ का बिस्तर उसी कोच में उसी बर्थ पर बिछाया जिस पर मेरा यह अधम शरीर दिन में ६-७ घंटे बैठा था. जिस पर बैठे बैठे मैंने भजन गा गा कर सफर का समय काटा था मैंने निश्चय किया क़ि गाड़ी छूटने तक वहीं रहूं. सो रुका रहा. आश्चर्य हुआ जब स्वामी जी ने मुझसे कान में कहा "माँ डाक्चेन आपोनाय " (माँ आपको बुला रहीं हैं )

मुझको और क्या चाहिए था,जिनके दर्शन के लिए वर्षों से ह्म तरस रहे थे वही माँ बुला रहीं थीं . .मैं दौड़ कर कोच पर माँ के पास उनके कूपे में पहुँच गया. स्वामी जी पीछे पीछे आये.. माँ ने एक पर्चा उन्हें दिया जिसे पढ़ कर वह हमसे बोले "माँ पूछ रही हैं आपका विदेश का प्रवास कैसा रहा? परिवार कैसा है?"  मेरे मुह पर जैसे ताला लग गया हो , आँखे झर झर बरस पडीं कंठ अवरुद्ध हो गया. क्या बोलता ? माँ की दोनों चमकदार आँखें और उनके हाथों की वह आशीर्वादी मुद्रा अभी भी रोमांचित कर रही है हमे

प्रियजन मेरे साथ आप भी मन ही मन माँ का आवाहन कर उन्हें नमन करें और जय माँ ,जय माँ, कर के सम्पूर्ण जगत को आनंद से भर दें .

कल कुछ और बातें बताउँगा आज से ही सम्बंधित..

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"