शनिवार, 31 जुलाई 2010
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
SRI SRI MAA AANANDMAYII
श्री श्री माँ आनंदमयी का संदेश
(माँ का चिन्तन - निवेदक के शब्दों में)
पिताजी ,सबसे पहले आपसे एक प्रार्थना करूंगी,क़ि आप हमे "माँ" कह कर न पुकारें . मैं आपकी बच्ची हूँ.आप सब मेरे माता पिता हैं. कृपया,आप सदा ही मुझे अपनी अबोध नन्ही बालिका के स्वरूप में स्वीकारिये .मुझे "माँ माँ" क़ह कर, देवी बना कर ,सोना-चांदी-या संगमरमर में गढ़वाकर, किसी मन्दिर में स्थापित कर ,ताले- कुंजी से बंद करके अपने से दूर न कर दीजिये. इस बच्ची को आपकी देख रेख ,आपका प्यार और आशीर्वाद चाहिए. मैं प्रार्थना करती हूँ मुझे अपने हृदय मन्दिर में थोड़ा स्थान दीजिये.और मुझे वहीं से सेवा करने का अवसर दीजिये. पिताजी आज आपके प्रश्नों के उत्तर देने से पहले स्पष्ट कर दूँ क़ि मेरा यह शरीर इस मानव जीवन में,जो थोड़ा बहुत स्वयं समझ पाया है उसके आधार पर वह आप लोगो की शंका का समाधान करेगा
.समस्त भव रोगों से मुक्ति की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम:उस सर्वशक्तिमान परमात्मा पर अखंड विश्वास रक्खे (TRUST HIM) और उस परम को ही अपना एकमात्र हितकारी और शुभचिंतकजानें
- यह विश्वास दृढ़ बनाये रक्खे क़ि हमारे जीवन में जो कुछ हुआ ,जो हो रहा है और जो कुछ भी भविष्य में होने वाला है वह सब उस परमपिता की इच्छा और कृपा से ही हो रहा है
- हम जो भी करें वह प्रभु की सेवा समझ कर करें.
- जितना बन पाए,अधिक से अधिक सत्संग करें.
- प्रभु का सुमिरन सदा करें
- सदा प्रभु को अपने अंग संग बनाये रखें .
- अपना समस्त भार प्रभु का सौंप दें .
- प्रभु केवल हमारे माता पिता ही नहीं ,वह हमारे सर्वस्व हैं.
- तुम मानो या न मानो पर वह जानते हैं क़ि तुम केवल उनके ही हो
- .वह इस सृष्टि के कण कण से झांक कर तुम्हारे समक्ष अपने आपको ज़ाहिर करते हैं पर तुम उन्हें पहचान नहीं पाते. ,इसलिए पहले मन में उन्हें पहचान पाने की तीव्र इच्छा जगाओ ,फिर एक दिन उनकी कृपा होगी और तुम न केवल उन्हें जान जाओगे तुम उन्हें पहचान भी लोगे .
- इस प्रकार तुम जान जाओगे क़ि इस सृष्टि के कण कण में हम सब का एकमात्र हितैषी और शुभ चिंतक सर्वशक्तिमान ,करुनानिधान प्रभु स्वयं व्याप्त है.
- तुम्हारा अज्ञान मिट जायेगा."THUS THE VEIL OF IGNORANCE WILL VANISH "
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क्रमश;"माँ का चिंतन " अगले संदेशों में
निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय मा जय माँ
श्री श्री माँ आनंमयी से अंतिम मिलन
आज स्मृति बीथियों में सैर करते हुए मेरी आँखों के सामने , वो सभी मनोहर चित्र ,जो पिछले ८०-८२ वर्षों में,उस चतुर चित्रकार ने बड़े प्यार से मेरे जीवन के केनवस पर खीचे हैं एक एक कर के जीवंत हो रहे हैं. ये चित्र मुझको उन सब मधुर पलों की याद दिला रहे हैं जब मेरे प्यारे प्रभू ने "आउट ऑफ़ द वे " जाकर , बहुत जुगाड़ ,हेरा फेरी और तिकडम कर के हमे वह सब प्रदान करा दिया ,जिसको मैं पाना तो चाहता था ,मगर जिसकी मांग मैंने अपने प्यारे प्रभु से कभी भी नही की.
बिना मांगे देना उनकी (मेरे प्यारे प्रभू की)फितरत है, इस बात पर हमें माँ आनंदमयी के मुंबई वाले १९७४ के सत्संग से सम्बन्धित एक बात याद आयी. मेरी बड़ी बेटी ,श्रीदेवी ने जो उस शाम ह्मारे साथ भजन के कार्यक्रम मे शामिल थी हमे, ह्म़ारा ब्लॉग देख कर ,बताया क़ि माँ ने उस प्रवचन में उसके भी एक प्रश्न का उत्तर दिया था. श्री देवी के मन में यह जानने की इच्छा थी क़ि "भगवान अथवा किसी देवी-देवता से प्रार्थना करते समय हमे उनसे क्या मांगना चाहिए." श्री देवी को अभी भी याद है क़ि माँ ने अपने प्रवचन में उसके इस मूक प्रश्न का क्या मुखर उत्तर दिया.माँ ने कहा था "ह्म और तुम उनसे क्या मांग सकते हैं ? जब सच यह है क़ि ह्म जानते ही नहीं क़ि हमे क्या चाहिए,ह्मारे लिए क्या हितकर है और क्या हमे नुक्सान पहुंचा सकता है, इसलिए उचित यह है क़ि ह्म उनसे केवल "बल.बुद्धि,विद्या ,विवेक तथा सुमति मांगे." यदि ये पञ्चरत्न हमे मिल गये,फिर हमे उनसे और कुछ मागने अथवा पाने की अभिलाषा ही नही रहेगी."
धर्म पत्नी डोक्टर कृष्णा जी ने भी कुछ अनुभवों की याद दिलायी,एक यह क़ि वह श्री माँ से अपने विवाह से पूर्व ग्वालियर में मिल चुकी थीं. श्री माँ ,राजमाता विजयाराजे सिंदिया के न्योते पर ग्वालियर पेलेस में पधारीं थीं .जहां सबने काफी निकट से उनके दर्शन किये थे .माँ का अति आकर्षक व्यक्तित्व .उनका बहुत कम बोलना, उनका सुरीला कंठ और सुमधुर भावपूर्ण भजन कीर्तन गायन कृष्णा जी को आज ५०-६० वर्ष के बाद भी अच्छी तरह से याद है, माँ ने तब एक कीर्तन किया था "कृष्ण कन्हइया ,बंसी बजइया ,रास रचइया'" माँ की दिव्य वाणी ने सबको मन्त्र मुग्ध कर दिया था.
इसके अतिरिक्त एक और बात उन्हें याद आयी जिससे उनको तभी विश्वास हो गया था क़ि श्री माँ दिव्य शक्तियुक्त हैं,वह बिना देखे सुने ही यह जान जाती हैं क़ि कहाँ क्या हो रहा है और किस के मन में क्या है ? . आदि ...एक विशिष्ट महिला माँ को विदाई देने स्टेशन नहीं आ सकीं, माँ ने ट्रेन छूटते छूटते किसी को बुला कर कहा की उस महिला से कह देना की "मैं उसकी मजबूरी जान गयी हूँ.वह दुखी न हो, गोपाल जी सब ठीक करेंगे."
१९५८ में कानपूर के स्वदेशी हाउस में,माँ पधारी थीं.मेरी गैरहाजरी में मेरी बड़ी भाभी जो उन दिनों गर्भवती थीं ,कृष्णा को लेकर वहां , इस दृढ़ निश्चय के साथ गयीं कि बिना माँ का प्रसाद और आशीर्वाद लिए वह वहां से नही लोटेंगी. सैकड़ों भक्तों की भीड़ में ये दोनों माँ की चौकी से काफी दूर बैठीं थीं. भक्तगण पुष्पमालाएं चढ़ा रहे थे जिन्हें वह तुरत ही लौटा देतीं थीं. एक सज्जन एक टोकरी फूल और एक माला लेकर आये , माँ ने टोकरी तो उन्हें लौटा दी ,पर फूलों की माला अपने हाथ में लेकर ,घुमा कर जनता की और फेंक दी. हवा में उडती वह माला पंडाल के बीचो बीच बैठी हमारी भाभी जी के गले में आप से आप ही पड़ गयी. भाभी ने जो संकल्प किया था वह पूरा हो गया.. उनको सीधे ,माँ के हाथ से दिया ,प्रसाद मिला. कहने की आवश्कता नही है कि माँ के उस आशीर्वाद से भाभी को कितना आत्मिक आनंद और भौतिक सुख मिला. आज भी वह उस आनंद के नशे में डूबी दिन रात, कृष्ण भक्ति के भजन रचतीं और गुनगुनाती रहती हैं. .
श्री माँ की कृपा एवं आशीर्वाद जनित आत्मिक आनंद के छोटे बड़े अनुभव, माँ भक्तों को अभी भी होते रहते हैं.आज ,जब उनकी स्थूल काया हमारे बीच नहीं हैं.,सूक्ष्म रूप में अब भी वह हर पल हमारे अंगसंग हैं. एक सुरक्षा कवच के समान वह हमे सभी संकटों से बचा
रही हैं.
जय माँ, जय माँ, जय जय माँ
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" दिनांक .२९,/ ३० जूलाई , २०१०
श्री माँ की कृपा एवं आशीर्वाद जनित आत्मिक आनंद के छोटे बड़े अनुभव, माँ भक्तों को अभी भी होते रहते हैं.आज ,जब उनकी स्थूल काया हमारे बीच नहीं हैं.,सूक्ष्म रूप में अब भी वह हर पल हमारे अंगसंग हैं. एक सुरक्षा कवच के समान वह हमे सभी संकटों से बचा
रही हैं.
जय माँ, जय माँ, जय जय माँ
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" दिनांक .२९,/ ३० जूलाई , २०१०
बुधवार, 28 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेट (भाग-३ )
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण , अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमे हमारा केवल एक उद्देश्य था क़ि किसी प्रकार , आप सब के समक्ष उस करुना सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदहारण पेश करके आपको कन्विंस करूं , आपको विश्वास दिला सकूं क़ि हमारा - आपका , इस विश्व में,एक मात्र हितेषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाज़ी में कहीं भी असत्य का सहारा नही लिया है.
इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये,कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमे. पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं. और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की . कृपया यकीन करिये क़ि मुझको कानपूर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया.और ...मैं नहीं जानता था क़ि श्री श्री माँ उन दिनों कानपूर में ही थीं,यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपूर जाकर उनके दर्शन कर सकता था.यह भी सोचने की बात है क़ि उस खास दिन मैं आगरे से,कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है -("बा बहू और बेबी" की मीनाक्षी की तरह), "भाई मैंने कुछ भी नह़ी किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई आप माने या न माने मेरा तो एक ही उत्तर है जो भी हुआ वह-मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया "प्रियजन, यह सच है ,सारी क़ि सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे..
अब आप दूसरी तरफ की कहानी सुनिए.:
माँ बिना कोई पूर्व सूचना दिए,अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपूर पहुंची थी.वह कानपूर के अपने होस्ट परिवार के, अति रुग्ण पितामह को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का भी विचार बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुचाने का आग्रह किया. होस्ट परिवार के युवराज उन्हें स्टेशन ले तो आये. पर अब माँ से पूछे कौन क़ि कहां का टिकट बनवाया जाये .इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था.उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी.अटकलें लग रहीं थीं ---
माँ शायद ,दिल्ली या देहरादून ,पश्चिम दिशा में कहीं जाना चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफोर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी..
पर जब श्री माँ ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा क़ि पूर्व की ओर जानेवाली एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है.माँ को वहाँ पहुंचना होग़ा .पर माँ आँख बंद किये बैठी रहीं ,चुपचाप, समझने वाले जान गये क़ि माँ वहा से उठना नहीं चाहतीं थीं. स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया , बमुश्किल तमाम राजी हो गये क़ि तूफ़ान को ६ के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ .
अब आपही बताएं मेरे प्रियजनों,ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है .ऎसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु ह्म सब का प्यारा प्रभू ही कर सकता है .उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है,और किसको हानि होती है,,यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग.कर कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो,नाम जपते रहो.कम से कम यह पढ़ते समय तो उनको याद कर लो, और फिर देखो रिद्धिसिद्धि कैसे आपको पुरुस्कृत करती है. अब तो मेरे प्यारे स्वजनों माँ की जयकारबोलो..
"सारे बोलो , मिल के बोलो , प्रेम से बोलो जय माँ , जय माँ"
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेट (भाग-३ )
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण , अभी तक मैंने अपने जो भी निजी अनुभव बयाँ किये उसमे हमारा केवल एक उद्देश्य था क़ि किसी प्रकार , आप सब के समक्ष उस करुना सागर -"परम" की अनंत उदारता और असीमित कृपा के कुछ सत्य उदहारण पेश करके आपको कन्विंस करूं , आपको विश्वास दिला सकूं क़ि हमारा - आपका , इस विश्व में,एक मात्र हितेषी, केवल "वह" ही है, मैंने इस बयानबाज़ी में कहीं भी असत्य का सहारा नही लिया है.
इस अंतिम एपिसोड को ही लीजिये,कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमे. पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं. और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की . कृपया यकीन करिये क़ि मुझको कानपूर जाने का विचार आगरे पहुचने के बाद आया.और ...मैं नहीं जानता था क़ि श्री श्री माँ उन दिनों कानपूर में ही थीं,यदि जानता तो मैं कभी भी सीधे कानपूर जाकर उनके दर्शन कर सकता था.यह भी सोचने की बात है क़ि उस खास दिन मैं आगरे से,कानपुर तूफ़ान के उस जर्जर कोच के उस विशेष कूपे में ही बैठ कर क्यों गया था ? आप कुछ भी जवाब दें मेरे पास इन सब सवालों का बस एक उत्तर है -("बा बहू और बेबी" की मीनाक्षी की तरह), "भाई मैंने कुछ भी नह़ी किया", आप पूछोगे तो फिर किया किसने ? भाई आप माने या न माने मेरा तो एक ही उत्तर है जो भी हुआ वह-मेरे इष्ट महावीर विक्रम बजरंगी ने किया "प्रियजन, यह सच है ,सारी क़ि सारी प्लानिंग, ऊपर उन्होंने ही की थी, वह डोर थामे कठपुतलियों को नचाते रहे..
अब आप दूसरी तरफ की कहानी सुनिए.:
माँ बिना कोई पूर्व सूचना दिए,अकस्मात ही उस दिन सबेरे कानपूर पहुंची थी.वह कानपूर के अपने होस्ट परिवार के, अति रुग्ण पितामह को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देने आयीं और उसी शाम कानपुर छोड़ देने का भी विचार बना लिया और तुरंत ही स्टेशन पहुचाने का आग्रह किया. होस्ट परिवार के युवराज उन्हें स्टेशन ले तो आये. पर अब माँ से पूछे कौन क़ि कहां का टिकट बनवाया जाये .इत्तफाक से उस दिन माँ का मौन व्रत भी था.उनसे बातचीत लिखा पढ़ी में हो रही थी.अटकलें लग रहीं थीं ---
माँ शायद ,दिल्ली या देहरादून ,पश्चिम दिशा में कहीं जाना चाहे इस लिए एक नम्बर प्लेटफोर्म पर उनकी आराम कुर्सी रक्खी गयी..
पर जब श्री माँ ने पश्चिम दिशा में अरुचि दिखायी तो यह विचार होने लगा क़ि पूर्व की ओर जानेवाली एकमात्र ट्रेन तूफ़ान को तो नम्बर ६ पर आना है.माँ को वहाँ पहुंचना होग़ा .पर माँ आँख बंद किये बैठी रहीं ,चुपचाप, समझने वाले जान गये क़ि माँ वहा से उठना नहीं चाहतीं थीं. स्टेशन मास्टर से अनुरोध किया गया , बमुश्किल तमाम राजी हो गये क़ि तूफ़ान को ६ के बजाय एक नम्बर पर लगाया जाये, और वही हुआ .
अब आपही बताएं मेरे प्रियजनों,ये जो कुछ भी हुआ क्या किसी मानव की करनी कही जा सकती है .ऎसे जुगाड़वादी करिश्मे वह सर्वशक्तिमान परम कृपालु ह्म सब का प्यारा प्रभू ही कर सकता है .उनके ऐसे करतब से कौन लाभान्वित होता है,और किसको हानि होती है,,यह व्यक्तियों के अपने पूर्व जन्मो से संचित प्रारब्ध, संस्कार और वर्तमान कर्मो पर निर्भर होता है अस्तु प्रियजनों, माँ के कहे मुताबिक कर्तापन का अभिमान-अहंकार त्याग.कर कर्तव्य करते रहो, काम करते रहो,नाम जपते रहो.कम से कम यह पढ़ते समय तो उनको याद कर लो, और फिर देखो रिद्धिसिद्धि कैसे आपको पुरुस्कृत करती है. अब तो मेरे प्यारे स्वजनों माँ की जयकारबोलो..
"सारे बोलो , मिल के बोलो , प्रेम से बोलो जय माँ , जय माँ"
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्रीश्री माँ आनंदमयी से अंतिम मिलन (भाग - २ )
कानपूर सेंट्रल के आउटर सिग्नल (पश्चमी) पर तूफ़ान जितनी देर खड़ी रही मैं बेचैनी से कूपे में इधर से उधर चहल कदमी करता रहा. बार बार ब्रीफ केस खोलता ,फेस-नेपकिन से चेहरा पोंछता ,शीशे में मुंह देखता हुआ अपने (तब के) काले घने बालों पर कंघी फेरता (अब की न पूंछो ,अब तो वे काले घुंघराले केश ,९९ प्रतिशत काल कलवित हो चुके हैं ,और जो १--२ प्रतिशत बचे हैं , वे भी अब गये, तब गये कर रहे हैं ).निज स्वभावानुसार मैं फिर भटक गया, मुआफ करना पाठकों. अब सम्हल गया हूँ ,चलिए विषय विशेष पर बढ़ें .
थोड़ी देर में कंडक्टर महोदय,जो आगरे पर ही अंतर्ध्यान हो गये थे सहसा प्रगट हो गये. "सर, क्या बताएँ ,सब सोते ही रहते हैं,स्टेशन पर कोई लाइन देने वाला नही. घंटे भर से तूफान खड़ी है किसी को फ़िक्र ही नही". वो टले तो कोच अटेंडेंट ,हाथ में झाडन फहराते मेरी सीट की सफाई में जुट गया. मैं उसका मकसद समझ गया और उसकी जवाबी सेवा मैंने भी कर दी.खुश हो कर बोला,"साहेब, इहाँ तो सबे क्न्फुस हैं , लाइन मैनो चक्कर मैं पड़ा है ,उसको स्टेशन से कोई बताता ही नही है क़ी कौन प्लेटफोर्म की लाइन बनावे ,रोज़ तो ६ नम्बर पर जाती है आज ,दहिने घूमी ,एक नम्बर पर जाने वाली है शायद , दहिने दरवज्जे उतरियेगा साहेब". अटेंन्देंट की "जी के" कंडक्टर साहेब से ज़्यादा अच्छी थी
खरामा खरामा ,जनवासे की चाल से रेंगती तूफ़ान कानपूर सेंट्रल के प्लेटफार्म नम्बर एक में दाखिल हुई.शुरू से आखिर तक सारा प्लेटफॉर्म बिलकुल सुनसान था , न कोई कुली ,न कोई पसिंजर ,न पान बीडी सिगरेट वाले ,न चाय वालों की आवाज़.,ऐसा लगा जैसे किसी करफ्यू लगे शहर में आ गये हैं. मैं हाथ में ब्रीफ केस लिए,पहले खिडकी से फिर दरवाजे पर खड़ा होगया. प्लेटफोर्म खतम होने को आया , जी आर पी , गुड्स बुकिंग शेड के सामने हमारा डिब्बा रुका. मैं खिडकी से दांये बाएं , आगे पीछे देखता रहा, कहीं कुछ न दिखा . बड़ी निराशा हुई , मैं,कानपुर का सपूत , एक अमेरिकन देश के विकास की चेष्टा सम्पन्न करके ३-४ वर्ष के बाद अपने शहर आया हूँ, और बाजा गाजा तो दूर, यहा एक प्राणी भी पुष्प माला लिए मेरे स्वागत के लिए नहीं आया है. ( यह है ,मानव के चारित्रिक दुर्बलता का एक ज्वलंत उदाहरण - चार वर्ष पूर्व ही ,श्री श्री माँ आनंदमयी ने जिस व्यक्ति को अहंकार शून्य करने की दीक्षा दी थी, वह व्यक्ति आज पुनः अहंकार के दलदल में धंसा जा रहा था )
अनमने भाव से मैं धीरे धीरे सम्हल कर कोच के बाहर आया. बाएं दायें वही सूनापन था गेट की ओर जाने को घूमाँ तो नजर आयीं , अँधेरे में,बिलकुल अकेली ,आराम कुर्सी पर आँख बंद किये बैठी , एक ऊंचे बंगाली परिवार की , असाधारण आकर्षक व्यक्तित्व वाली दीदी माँ - ठाकुर माँ (दादी माँ -नानी माँ )सरीखी महिला. ठिठक कर जहाँ था वही खड़ा रह गया. कौन हो सकतीं हैं यह ? सेन परिवार की अथवा गांगुली परिवार की? क्यों अकेले ही हैं वह यहाँ ? कुछ पलों को मैं इन्ही प्रश्नों में उलझा रहा. क़ि अचानक बिजली सी चमकी--मुह से अनायास ही निकलने लगा "जय माँ, जय माँ , जय माँ"
प्रियजन, वह कोई अन्य नहीं था , वह माँ ही थी.श्री श्री माँ आनंदमयी ही थीं . मैंने बिलकुल हाथ भर की दूरी से उन्हें देखा .हाथ जोड़ कर उनके आगे खड़ा रहा. उनकी पार्थिव आँखे बंद थीं .पर उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से अवश्य मुझको पहचान लिया था (आगे खुलेगा क़ि कैसे पता चला हमे यह.). इसी स्थिति में मेरे कुछ पल बीते , धीरे धीरे थोड़े ,बहुत थोड़े बस ५-७ लोग वहा आये. सिंघानिया परिवार के युवराज दिखायी दिए अपने स्टाफ के साथ स्वयम दौड़ धूप करके माँ की यात्रा सुखद बनाने की व्यवस्था करते हुए.हा तभी कोई टिकट लाने गया, कोई स्टेशन मास्टर से मिलकर अच्छी बर्थ रिजर्व करवाने. तभी माँ के परम भक्त सेवक , स्वामी निर्मलानंद जी (वही जिन्होंने १९७४ के मुंबई समारोह में हमे माँ की सेवा में भजन कीर्तन गाने का सौभाग्य दिलाया था) माँ का असबाब लिए आते दिखे. किसी ने उनका नाम पुकारा , इस प्रकार मैंने तो उन्हें पहचान लिया ,उन्होंने हमे पहचाना , या नहीं कहना मुश्किल है.
अब सबसे चमत्कार की बात सुने ,स्वामी जी ने माँ का बिस्तर उसी कोच में उसी बर्थ पर बिछाया जिस पर मेरा यह अधम शरीर दिन में ६-७ घंटे बैठा था. जिस पर बैठे बैठे मैंने भजन गा गा कर सफर का समय काटा था मैंने निश्चय किया क़ि गाड़ी छूटने तक वहीं रहूं. सो रुका रहा. आश्चर्य हुआ जब स्वामी जी ने मुझसे कान में कहा "माँ डाक्चेन आपोनाय " (माँ आपको बुला रहीं हैं )
मुझको और क्या चाहिए था,जिनके दर्शन के लिए वर्षों से ह्म तरस रहे थे वही माँ बुला रहीं थीं . .मैं दौड़ कर कोच पर माँ के पास उनके कूपे में पहुँच गया. स्वामी जी पीछे पीछे आये.. माँ ने एक पर्चा उन्हें दिया जिसे पढ़ कर वह हमसे बोले "माँ पूछ रही हैं आपका विदेश का प्रवास कैसा रहा? परिवार कैसा है?" मेरे मुह पर जैसे ताला लग गया हो , आँखे झर झर बरस पडीं कंठ अवरुद्ध हो गया. क्या बोलता ? माँ की दोनों चमकदार आँखें और उनके हाथों की वह आशीर्वादी मुद्रा अभी भी रोमांचित कर रही है हमे
प्रियजन मेरे साथ आप भी मन ही मन माँ का आवाहन कर उन्हें नमन करें और जय माँ ,जय माँ, कर के सम्पूर्ण जगत को आनंद से भर दें .
कल कुछ और बातें बताउँगा आज से ही सम्बंधित..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सोमवार, 26 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेंट. (भाग एक )
मुंबई की रासलीला में हुए श्री श्री माँ के दर्शन के साथ मेरे दफ्तर,घरबार और परिवार की सभी समस्याएं एक एक कर,आप ही आप सुलझ गयीं यह समझ में आया क़ी जिस व्यक्ति के माथे पर उसके माता -पिता एवं गुरुजन के आशीर्वाद की शीतल अमृत वर्षा सतत हो रही हो उस व्यक्ति को किसी प्रकार का सांसारिक ताप कैसे सता सकता.है. जो व्यक्ति ईश कृपा का सुरक्षा कवच धारण किये हो उसे बलवान से बलवान शत्रु घायल नहीं कर सकता,उसे परास्त होने का तो सवाल ही नहीं है.
मेरे विभाग वाले,मुंम्बई से मेरा तबादला किसी कष्टप्रद स्थान में करवाना चाहते थे,पर हरि इच्छा देखिये;भारत सरकार ने मुझे ,साऊथ अमेरिका के एक पिछड़े देश के ओउद्योगिक विकास हेतु,उस देश की सरकार का सलाहकार नियुक्त करवा दिया. यह एक सम्मानजनक पोस्ट थी. मुझे शीघ्रातशीघ्र वहाँ जाना पड़ा .अस्तु ह्म १९७५ में ,२-३ वर्ष के डेपुटेशन पर मुंबई से, परिवार सहित वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना हो गये..
लगभग ३ वर्ष बाद वेस्ट इंडीज़ से भारत लौटने पर,१९७८ में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हो गयी .यहाँ मैं अपने विभाग में उत्तर भारत क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त हुआ. इसमें हमे निरीक्षण के लिए काफी टूर करने पड़ते थे.
भारत आ कर ह्मारे मन में श्री माँ के दर्शन की लालसा दिनों दिन प्रबल होने लगी.एक बार ह्म कालकाजी में श्री माँ के आश्रम गये भी पर इस बार माँ का जन्म दिवस बेंगलूर में मनाया जा रहा था, माँ वहाँ गयीं थी. अस्तु माँ के दर्शन नहीं हुए. ह्म अशोक विहार से कालका जी गये थे , दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर पर. बड़ी निराशा हुई
अगली सुबह मुझ को टूर पर आगरा जाना था .शाम की निराशा से मन दुख़ी था जाने को मन नहीं कर रहा था.पर जाना तो था ही.विचार किया, व्यक्ति एक निराशा के कारण अपने कर्म तो नही छोड़ सकता. अस्तु सबेरे ७ बजे , ताज से रवाना हुआ, १० बजे पहुंचा, १२ बजे तक निरीक्षण पूरा करके आगे कानपूर ऑफिस का आकस्मिक निरीक्षण करने का . कार्यक्रम बना लिया. आगरे से कानपूर तक की रेल यात्रा की व्यवस्था हो .गयी और मैं तूफान मेल पर सवार हो गया
पहले दर्जे की कोच एकदम जर्जर दशा में थी. दरवाजे बंद नही होते थे खिडकियों में शीशे नहीं थे. कंडक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया "सर,माफ़ करे, विदयारथियों का राज है सर आप दरवाज़ा लोक कर के बैठें. खोलिएगा नहीं,चाहे लाख खटखताएं, कानपूर में ही दरवाज़ा खोलियेगा". कुछ जुगाड़ कर के उसने कूपे बंद करवा दिया .
मैं नीचे बर्थ पर बैठता,लेटता कभी कुछ पढ़ कर कभी कोई भजन गुनगुना कर समय काटता रहा.स्वामी जी के भजनों की पुस्तिका पॉकेट में थी, उसमे का यह भजन कल से ही पूरे जोर शोर से कंठ से फूट रहा था .बंद रेल के डिब्बे को मैं इसी धुन से गुंजाता रहा .
कानपूर के आउटर सिग्नल पर गाड़ी रुक गयी. और उसके बाद जो कुछ भी हुआ कल सुनाऊंगा. तब तक आप भी जयकारे में शमिल हो जाइये
जय माँ, जय माँ, जय जय जय जय माँ..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
श्री श्री माँ आनंदमयी से अंतिम भेंट. (भाग एक )
मुंबई की रासलीला में हुए श्री श्री माँ के दर्शन के साथ मेरे दफ्तर,घरबार और परिवार की सभी समस्याएं एक एक कर,आप ही आप सुलझ गयीं यह समझ में आया क़ी जिस व्यक्ति के माथे पर उसके माता -पिता एवं गुरुजन के आशीर्वाद की शीतल अमृत वर्षा सतत हो रही हो उस व्यक्ति को किसी प्रकार का सांसारिक ताप कैसे सता सकता.है. जो व्यक्ति ईश कृपा का सुरक्षा कवच धारण किये हो उसे बलवान से बलवान शत्रु घायल नहीं कर सकता,उसे परास्त होने का तो सवाल ही नहीं है.
"जाको राखे साइयां मार सके ना कोय
बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय "
मेरे विभाग वाले,मुंम्बई से मेरा तबादला किसी कष्टप्रद स्थान में करवाना चाहते थे,पर हरि इच्छा देखिये;भारत सरकार ने मुझे ,साऊथ अमेरिका के एक पिछड़े देश के ओउद्योगिक विकास हेतु,उस देश की सरकार का सलाहकार नियुक्त करवा दिया. यह एक सम्मानजनक पोस्ट थी. मुझे शीघ्रातशीघ्र वहाँ जाना पड़ा .अस्तु ह्म १९७५ में ,२-३ वर्ष के डेपुटेशन पर मुंबई से, परिवार सहित वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना हो गये..
लगभग ३ वर्ष बाद वेस्ट इंडीज़ से भारत लौटने पर,१९७८ में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हो गयी .यहाँ मैं अपने विभाग में उत्तर भारत क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त हुआ. इसमें हमे निरीक्षण के लिए काफी टूर करने पड़ते थे.
भारत आ कर ह्मारे मन में श्री माँ के दर्शन की लालसा दिनों दिन प्रबल होने लगी.एक बार ह्म कालकाजी में श्री माँ के आश्रम गये भी पर इस बार माँ का जन्म दिवस बेंगलूर में मनाया जा रहा था, माँ वहाँ गयीं थी. अस्तु माँ के दर्शन नहीं हुए. ह्म अशोक विहार से कालका जी गये थे , दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर पर. बड़ी निराशा हुई
अगली सुबह मुझ को टूर पर आगरा जाना था .शाम की निराशा से मन दुख़ी था जाने को मन नहीं कर रहा था.पर जाना तो था ही.विचार किया, व्यक्ति एक निराशा के कारण अपने कर्म तो नही छोड़ सकता. अस्तु सबेरे ७ बजे , ताज से रवाना हुआ, १० बजे पहुंचा, १२ बजे तक निरीक्षण पूरा करके आगे कानपूर ऑफिस का आकस्मिक निरीक्षण करने का . कार्यक्रम बना लिया. आगरे से कानपूर तक की रेल यात्रा की व्यवस्था हो .गयी और मैं तूफान मेल पर सवार हो गया
पहले दर्जे की कोच एकदम जर्जर दशा में थी. दरवाजे बंद नही होते थे खिडकियों में शीशे नहीं थे. कंडक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया "सर,माफ़ करे, विदयारथियों का राज है सर आप दरवाज़ा लोक कर के बैठें. खोलिएगा नहीं,चाहे लाख खटखताएं, कानपूर में ही दरवाज़ा खोलियेगा". कुछ जुगाड़ कर के उसने कूपे बंद करवा दिया .
मैं नीचे बर्थ पर बैठता,लेटता कभी कुछ पढ़ कर कभी कोई भजन गुनगुना कर समय काटता रहा.स्वामी जी के भजनों की पुस्तिका पॉकेट में थी, उसमे का यह भजन कल से ही पूरे जोर शोर से कंठ से फूट रहा था .बंद रेल के डिब्बे को मैं इसी धुन से गुंजाता रहा .
जगन मात जगदम्बे तेरे जयकारे
तू शक्ती भगवती भवानी ,महिमा मय महामाया बखानी,
विश्व रचे पाले संघारे
जगन मात जगदम्बे तेरे जय कारे
जय माँ, जय माँ, जय जय जय जय माँ..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
रविवार, 25 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी क़ी कृपा दृष्टि
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आज २५ जुलाई २०१० है, गुरु पूर्णिमा का मंगल दिवस.
सभी गुरुजनों को हमारा कोटिश प्रणाम .गुरुजन कृपा करें, हमें सुबुद्धि एवं सुप्रेरणा प्रदान करे.
हम जहाँ भी रहें हमें सत्संग का लाभ मिलता रहे.
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मैया मोहे मंगल दर्शन दीजे
विमल मधुर तेजोमयी मूरति, मनोगमा मैं निहांरू,
निज ममता-मंदिर में ,मैया , मुझको अपना लीजे
मंगल दर्शन दीजे मैया
श्री स्वामी जी महाराज का मातृवंदन का यह पद मैं , १९५९ के अपने प्रथम पंच- रात्रि -सत्संग में शामिल होने के बाद अक्सर श्री राम शरणम के सत्संगी साधकों के सन्मुख गाता रहता हूँ. कितनी बार इसे गाते गाते बहुत भावुक हो गया, एक विचित्र स्थिति में पहुच गया , किसी ने उसे आवेश कहा किसी ने कहा "हाल में इनकी माँ नहीं रहीं , इससे भावुक हो रहे हैं"आदि आदि..सच पूछो तो मुझे स्वयम नहीं पता क़ी कभी कभी भजन गाते गाते. मुझे की हो जाता है. मैं तो केवल इतना जानता हूँ:
जब भी उन को भजन सुनाता , जाने क्या मुझको हो जाता,
रुन्धता कंठ ,नयन भर आते , बरबस मैं गुमसुम हो जाता .
रासलीला मंचन के समापन पर हमे श्री माँ का मंगलमय दर्शन, अति निकट से हुआ . श्री माँ की ज्योतिर्मयी आँखों से निकली वात्सल्य-करुणा व ममतामयी शुभ कामनाओं की संजीवनी फुहार ने मेरी दर्शन प्यासी आँखों
को तृप्त कर दिया .पूर्णमासी का चाँद देख कर जैसे सागर का ज्वार तट की तरफ दौड़ पड़ता है , वैसे ही परमानंद क़ी धारा मेरे अन्तस्थल में प्रवेश कर गई . प्रियजन,मेरा अंतर्घट पूरा भर कर छलकने लगा , मेरी आँखे भर आयीं
वह मई १९७४ की एक शाम थी और आज जुलाई २०१० का यह सवेरा है, ३६ वर्ष से ऊपर हो गये , अभी भी, ह्मारे मन में ,माँ से दृष्टि दीक्षा में मिली, आनंद की वह लहराती भेट वैसे ही हिचकोले ले रही है,विश्वास करिये अभी इस पल भी, मैं रोमांचित हो रहा हूँ श्री श्री माँ के स्मरण मात्र से. (और फिर आज तो गुरु पूर्णिमा है ) मन करता है जय माँ, जय माँ जय माँ जय माँ करके सारा भू-मंडल गुंजायमान कर दूँ.
हाँ १९७४ के बाद भी मैंने अनेक प्रयास किये माँ के दर्शन प्राप्ति के लिए. पर सफल केवल एक बार हुआ. वह घट्ना भी अति मार्मिक और चमत्कारिक है.प्रियजन, मेरा सौभाग्य सराहिये , इस बार हमे एकदम एकांत में केवल दो हाथ की दूरी से माँ का दर्शन हुआ. कल सविस्तार पूरी कथा सुनाऊंगा.
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
शनिवार, 24 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
माँ आनंदमयी की कृपा दृष्टि
अगली शाम ह्म माँ के पंडाल में समय से काफी पहले पहुँच गये. उस दिन "रास लीला" का कार्यक्रम था. लालचन ,ह्म कल की तरह आज भी सबसे आगे बैठना चाहते थे.हमे माँ के सामने बैठने का आनंद जो कल मिला था उसका सुखद एहसास ह्म आज एक बार फिर करना चाहते थे.पर आज वहाँ हमे कोई पूछने वाला नह़ी था कल के "वी . आई .पी" आज फुट-पाथी (जन साधारण )बन गये थे. कल की दूध सी सफेद चादर के नीचे पड़े मोटे कालीन की जगह आज ,(जल्दी आने के बावजूद) हमे चौथी कतार में लाल काली स्ट्राइप वाली धूल धूसरित दरी पर ,श्री श्री माँ के चरण कमलों से लगभग २० मीटर की दूरी पर बैठने की जगह मिली.
थोड़ी देर में ,शंखनाद के साथ श्री श्री माँ आयीं .उनकी साक्षात देवी लक्ष्मी सी मनोहारिणी छवि देखते ही हमारा मन पवित्रता एवं दिव्यता के प्रकाश से भर गया. कल के सत्कार के कारण उभरा मन का अहंकार और आज अपनी असली हैसियत पहचान कर ,अपनी साधारणता का ज्ञान होने पर ह्मारे मन में उठा क्षोभ का सैलाब ,माँ के दर्शन मात्र से ,पल भर में छूमंतर हो गया .
रासलीला कब शुरू हुई कब खतम हुई ,उसमे क्या क्या हुआ,हमसे न पूछिये; हमारी निगाहें तो माँ के मुखारविंद पर,उनके अति आकर्षक दिव्य विग्रह पर टिकी हुई थीं .वहाँ
से हटना ही नहीं चाहती थीं. बताऊं क्यों? एक तो उनका दिव्य आकर्षण और दूसरी थी : हमारी क्षुद्रता या मानवीय कमजोरी;.बता ही दूँ जब सच बोलना है तो क्या छुपाना? मेरे मन के किसी कोने में एक चोर बैठा था. मुझसे कहता था ,कल तुमने भजन सुना कर माँ को इतना प्रसन्न किया , माँ आज भी तुम्हे पंडाल के भीड़ भाड़ में जरूर खोज रहीं होंगी उस समय पुनः हमे अहंकार नामक चोर ने अपने वश में कर लिया था. मेरे प्यारे स्वजन देखा आपने मानव कितना असहाय, कितना बेबस, कितना मूर्ख बन जाता है. अभी कल ही माँ ने ,अहंकार शून्य करने की सीख दी .और आज ह्म, वापस जाने के बजाय झूठे अहंकार की डगर पर चार कदम आगे ही बढ़ गये .
मैं उचक उचक कर अपने आप को प्रदर्शित करने का निष्फल प्रयास करता रहा.माँ ने मेरी और देखा तक नहीं. वह कृष्ण लीला का आनंद लूट रहीं थीं. उन्हें उस लीला में,उनके इष्ट राधा-कृष्णा के साक्षात् दर्शन हो रहे थे. मेरी निराशा की सीमा नहीं थीलीला समाप्त भी हो गयी.सब जाने लगे .माँ भी उठीं. मचान से उतरीं. मैं अपनी जगह पर ही खड़ा हो गया श्री .माँ हमारी तरफ न आकर दूसरी और मुड गयीं. मुझे निराशा का एक और धक्का लगा. दुख़ी हो मैंने अपनी आँखे बंद करलीं. रोने को मन कर रहा था .माँ कल बाबा मुक्तानंद के गणेशपुरी आश्रम जा रहीं थी.अब मुझे माँ के दर्शन कब और कहा हो पाएंगे ?
माँ आनंदमयी की कृपा दृष्टि
अगली शाम ह्म माँ के पंडाल में समय से काफी पहले पहुँच गये. उस दिन "रास लीला" का कार्यक्रम था. लालचन ,ह्म कल की तरह आज भी सबसे आगे बैठना चाहते थे.हमे माँ के सामने बैठने का आनंद जो कल मिला था उसका सुखद एहसास ह्म आज एक बार फिर करना चाहते थे.पर आज वहाँ हमे कोई पूछने वाला नह़ी था कल के "वी . आई .पी" आज फुट-पाथी (जन साधारण )बन गये थे. कल की दूध सी सफेद चादर के नीचे पड़े मोटे कालीन की जगह आज ,(जल्दी आने के बावजूद) हमे चौथी कतार में लाल काली स्ट्राइप वाली धूल धूसरित दरी पर ,श्री श्री माँ के चरण कमलों से लगभग २० मीटर की दूरी पर बैठने की जगह मिली.
थोड़ी देर में ,शंखनाद के साथ श्री श्री माँ आयीं .उनकी साक्षात देवी लक्ष्मी सी मनोहारिणी छवि देखते ही हमारा मन पवित्रता एवं दिव्यता के प्रकाश से भर गया. कल के सत्कार के कारण उभरा मन का अहंकार और आज अपनी असली हैसियत पहचान कर ,अपनी साधारणता का ज्ञान होने पर ह्मारे मन में उठा क्षोभ का सैलाब ,माँ के दर्शन मात्र से ,पल भर में छूमंतर हो गया .
रासलीला कब शुरू हुई कब खतम हुई ,उसमे क्या क्या हुआ,हमसे न पूछिये; हमारी निगाहें तो माँ के मुखारविंद पर,उनके अति आकर्षक दिव्य विग्रह पर टिकी हुई थीं .वहाँ
से हटना ही नहीं चाहती थीं. बताऊं क्यों? एक तो उनका दिव्य आकर्षण और दूसरी थी : हमारी क्षुद्रता या मानवीय कमजोरी;.बता ही दूँ जब सच बोलना है तो क्या छुपाना? मेरे मन के किसी कोने में एक चोर बैठा था. मुझसे कहता था ,कल तुमने भजन सुना कर माँ को इतना प्रसन्न किया , माँ आज भी तुम्हे पंडाल के भीड़ भाड़ में जरूर खोज रहीं होंगी उस समय पुनः हमे अहंकार नामक चोर ने अपने वश में कर लिया था. मेरे प्यारे स्वजन देखा आपने मानव कितना असहाय, कितना बेबस, कितना मूर्ख बन जाता है. अभी कल ही माँ ने ,अहंकार शून्य करने की सीख दी .और आज ह्म, वापस जाने के बजाय झूठे अहंकार की डगर पर चार कदम आगे ही बढ़ गये .
मैं उचक उचक कर अपने आप को प्रदर्शित करने का निष्फल प्रयास करता रहा.माँ ने मेरी और देखा तक नहीं. वह कृष्ण लीला का आनंद लूट रहीं थीं. उन्हें उस लीला में,उनके इष्ट राधा-कृष्णा के साक्षात् दर्शन हो रहे थे. मेरी निराशा की सीमा नहीं थीलीला समाप्त भी हो गयी.सब जाने लगे .माँ भी उठीं. मचान से उतरीं. मैं अपनी जगह पर ही खड़ा हो गया श्री .माँ हमारी तरफ न आकर दूसरी और मुड गयीं. मुझे निराशा का एक और धक्का लगा. दुख़ी हो मैंने अपनी आँखे बंद करलीं. रोने को मन कर रहा था .माँ कल बाबा मुक्तानंद के गणेशपुरी आश्रम जा रहीं थी.अब मुझे माँ के दर्शन कब और कहा हो पाएंगे ?
माँ के आगे पीछे लोग इधर उधर भाग रहे थे. मैं यथा स्थान खड़ा रहा ,आंसू भरी बंद आँखें लिए और दोनों हाथ जुड़े हुए,नमस्कार की मुद्रा में. कुछ पलों में ऐसा लगा जैसे माँ ह्मारे आगे से निकल कर दूर चलीं गयीं . मैंने धीरे से आँखें खोलीं.प्रियजन क्या देखता हूँ क़ी उसी पल ,हमसे काफी आगे निकली हुई माँ,अनायास ही घूम गयीं और मेरी तरफ देख कर उन्होंने आशीर्वाद के मुद्रा में अपना हाथ उठाया .संयोग देखिये उस पल भी मेरे और माँ के बीच कोई व्यक्ति या अन्य कोई व्यवधान नहीं था .वह मेरे इतने निकट थीं क़ी मैं सुनहरे फ्रेम के नीचे से चमकती हुईं उनकी दोनों आँखों को साफ़ साफ देख पाया.
मेरे अतिशय प्रिय स्वजन ,मैं बयान नहीं कर पाउँगा क़ी श्री माँ की उन दोनो आँखों में कितना आशीर्वाद और कितनी स्नेहिल शुभ कामनाएं भरीं थीं. मेरी अपनी जननी माँ की आँखों में जो वात्सल्य,करुणा और प्यार दुलार की घटाएं मैं ४० -५० वर्ष पूर्व देखा करता था ,वही आज श्री श्री माँ की आँखों से उमड़ घुमड़ कर मेरे सम्पूर्ण मानस पर अमृतवर्षा कर रही थी, मेरा जीवन .मेरा तन मन सर्वस्व धन्य हो गया था .मैं नख से शिख तक रोमांचित था. अभी इस समय भी मेरी कुछ वैसी ही दशा हो रही है. आगे लिख न पाउँगा .
अब जो कहूँगा कल ही कहूँगा
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" .
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" .
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा
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जब जागेगी हृदय में, राम मिलन की चाह
स्वयम प्रगट हो संत जन ,दिखलायेंगे राह
अनायास आकर गुरू ,पकड़ तुम्हारा हाथ,
परम धाम ले जायेंगे ,तुमको अपने साथ
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जब जागेगी हृदय में, राम मिलन की चाह
स्वयम प्रगट हो संत जन ,दिखलायेंगे राह
अनायास आकर गुरू ,पकड़ तुम्हारा हाथ,
परम धाम ले जायेंगे ,तुमको अपने साथ
ह्मारे गुरुदेव, प्रातःस्मरणीय ब्रह्मलीन श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने अपने उपदेशों एवं रचनाओं में समवेत भजन-कीर्तन गायन तथा सिद्ध- संत-परिवेश में धरती पर प्रगटे दिव्य-आत्माओं के दर्शन एवं सत्संग की महिमा पर प्रचुर प्रकाश डाला है.स्वामी जी के बाद ,श्री प्रेम जी महाराज एवं वर्तमान सद्गुरु डोक्टर विश्वमित्र जी महाराज ने भी साधकों के चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास के लिए जीवन में अधिकाधिक सिद्ध संतो का संग - सत्संग ,करने पर जोर दिया है स्वामी जी महाराज ने कहा है क़ी सत्संग में बैठने तथा अपने इष्ट का नाम जाप करने से ,साधक को मन वांछित फल मिलता है. :
सच्चे संत की सरन में बैठ मिले विश्राम ,
मन माँगा फल तब मिले जपे राम का नाम.
गुरुदेव श्री डाक्टर विश्वमित्र जी महराज अपने प्रवचन में वर्तमान समय के सच्चे- सिद्ध संत जनों का उल्लेख करते हुए कभी कभी ब्रह्मलीन स्वामी अखंडानंद जी महराज ,स्वामी शरनानंद जी महाराज एवं श्री श्री माँ आनंदमयी का नाम बड़े प्रेम और अतीव श्रद्धा से लेते हैं .
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श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा दृष्टि का निज अनुभव :-
उस शाम श्री माँ ने जो बात केवल मुझसे कही थी,वो सविस्तार अपने सात जुलाई से ९ जुलाई के संदेशों में लिख चुका हूँ.फिर भी याद दिलादूँ,क़ी श्री माँ ने वह वार्ता किस वाक्य से शुरू की थी.माँ ने कहा था , "पिता जी सारा दीन सोई (signature)करता है ?"आपको याद आगया होग़ा. यदि नही तो
प्लीज़ पुराने ७ से ९ जुलाई २०१० ,तक के मेरे संदेश फिर पढ़ लीजियेगा.
माँ के उस शाम के प्रवचन ने मुझे विश्वास दिला दिया क़ी माँ अपूर्व /दिव्य शक्तियों से भरपूर हैं , माँ त्रिकाल दर्शिनी हैं साधकों उपासकों सेवकों और वास्तविक भक्तों के प्रॉब्लम ,उनके प्रश्न / उनकी चिंता के विषय और उनके कारण,तथा समाधान की विधी ,माँ सब कुछ बिना पूछे ही जान लेती हैं. आपने देखा ही कैसे जब ह्म पंडाल में घुस तक नहीं पा रहे थे श्री माँ ने हमे अपने पास बुला कर इतने निकट बैठा लिया और कितनी लगन से और मन लगाकर उन्होंने ह्मारे भजन कीर्तन सुने (केवल सुने ही नहीं वरन ह्मारे स्वर में स्वर मिला कर ह्मारे साथ साथ गाये भी -जैसा अनेक प्रत्यक्ष दर्शियों ने हमे बाद में बताया ) जितनी देर ह्म वहाँ बैठे रहे माँ के स्नेहिल आशीर्वाद की अमृत वर्षा ह्म पर होती रही.
कार्यक्रम के समापन पर एलान हुआ क़ी अगले दिन वृन्दाबन के गोस्वामी जी की पार्टी रास लीला प्रस्तुत करेगी. ह्म ने मन बना लिया क़ी ह्म सब अगले दिन भी वहाँ जायेंगे.रास लीला के बहाने एक बार फिर माँ का दर्शन होग़ा सबसे बड़ी लालच यह थी..प्रियजन, अभी इतना ही ,कल का हाल कल बताउंगा . फ़िलहाल राम राम..
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा
श्री माँ के लिए सभी पुरुष "पिताजी" ,सब स्त्रियाँ "देवी माँ"सदृश्य और बाल वृन्द "कन्हैया के गोप - गोपी मंडल " के सदस्य थे. स्वयम उनका निजी अहम् उनके शैशव से ही शून्य हो गया था. उन्होंने अपनी काया को आजीवन "मैं" की संज्ञा नहीं दी. उन्होंने "मैं और मेरा" जाना ही नहीं. बंगला भाषा में जिन्हें "आमी आर आमार" कहते हैं , उसके लिए वह कहतीं थीं, "आमार" में से "आ" निकाल लें और फिर जो बचा - क्या ? "मार",बस वह ही हमारा तुम्हारा है. बंगला में "मार" शब्द का अर्थ है "माँ का" .इस कथन से माँ समझातीं थीं क़ी संसार में जो कुछ भी है वह सब उस " परमेश्वरी, जग जननी माँ " का है ,तुम्हारा कुछ भी नही है फिर क्यों मेरा तेरा के चक्कर में पड़े हो.?"
याद आया ,उस शाम माँ के आगे हमने ,संत कबीरदासजी की ,पारम्परिक शैली क़ी एक रचना प्रस्तुत की थी.
हरि बिनु तेरो ,मेरे मनुआ, अपना कोई नही
महल बनायो ,किला बनायो,तू कहे घर मेरा ,
पर ये तन भी तेरा नाही , चार दिनों का डेरा रे . अपना कोई नहीं ..
श्री श्री माँ कहतीं थीं .
संसारिकता में लिप्त साधारण मानव जो कर्म करता है ,अधिकतर वह निज स्वार्थ सिद्धि जैसे -नाम,धन,धाम कमाने के लिए होता है .ऐसे कर्म मनुष्यों की निजी इच्छा से होते हैं.और उनकी चेष्टाओं के अनुरूप उनको सफलता अथवा असफलता मिलती रहती है
शरणागत मनुष्यों को कर्म की प्रेरणा प्रभु स्वयम देता है. परमपिता परमात्मा स्वयम एक अदृश्य प्रेरणा-शक्ति स्रोत बन कर उस कार्य के शुभारम्भ से समापन तक ,उस व्यक्ति का हाथ थामे उसका कार्य करवाता रहता है और अंततः उसे सफल बना देता है. पर प्रभु से
सहयोग पाने के इच्छुक व्यक्ति को एक पल के लिए भी उस अदृश्य प्रेरणा,बुद्धि, शक्ति प्रदायक श्रोत (सर्व शक्ति सम्पन्न परमात्मा )की सुधि नहीं बिसरानी चाहिए.अपना कार्य करते समय उसे मन ही मन अपने इष्ट का सिमरन करते रहना चाहिए .हाथ काम करे
पर मन में प्रार्थना चलती रहे.
राम अपनी कृपा से हमे शक्ति दो,
राम अपनी कृपा से हमे भक्ति दो ,
नाम जपता रहूं ,काम करता रहूँ
तन से सेवा करूं मन से सय्य्म करूं
नाम जपता रहूँ काम करता रहूँ
श्री राम जय राम जय जय राम
निवेदक:
व्ही , एन, श्रीवास्तव "भोला"
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
माँ आनंदमयी की कृपा
लगभग आधे घंटे की (होई-चोई)-,धूम -धडाके दार (होरी)-हरिकीर्तन रुकने पर एक अनोखी निश्त्ब्धता पूरे पंडाल में छा गयी.करीबन मिनिट भर के लिए जैसे सब कुछ थम गया .ऎसी नीरवता कि यदि सुई गिरती तो उसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ जाती.
सब स्तब्ध थे.ह्म माँ के सबसे करीब,ठीक उनके सामने बैठे थे.ह्मारे और उनके बीच पुष्पों ,अगर बत्तियों और धूप की पवित्र सुगन्धि से भरे सूक्ष्म वायुमंडल के अतिरिक्त और कुछ भी नही था. माँ की पतितपावनी विग्रह से प्रसारित हो रहीं उनकी परमानन्द दायिनी ऊर्जा ,अछूती ,सीधे मुझे सिर से पाँव तक रोमांचित कर रही थी. सर्वत्र शांति ही शांति थी.आनंद ही आनंद था.
थोड़ी देर में एक हल्की सी आवाज़ स्पीकर पर सुनाई पड़ी "हे राम" .ह्मारे कान खड़े हो गये..मेरी आँखे बंद थीं समझ न सका किसने लगाई यह प्रेम भरी गुहार ह्मारे इष्ट देव को.. चंद पल बाद सुनाई दिया एक अन्य अनूठा संबोधन "पिताजी..."(ह्मने पहिले कभी माँ का प्रवचन नहीं सुना था इसलिए नहीं जानता था कि माँ अक्सर यह सम्बोधन पंडाल के सभी पुरुषों का ध्यान एकाग्र करने के लिए करतीं थीं). मैंने भी सुना "पिताजी" पर तब तक न मेरी आँखे खुलीं थीं ,न मेरा द्रवीभूत हृदय ही स्थिर हो पाया था अस्तु समझ न पाया कि कौन बोल रहा है ..पर एकाग्रता से सुनता रहा .कुछ पलों में जान गया कि जो मैंने सुनी वह श्री श्री माँ आनंदमयी की ही अमृतवाणी थी.आगे माँ बोलीं:
"पिताजी ,आप सब बहुत बहुत दूर से यहाँ आये हैं.कितना कितना बस और लोकल में धक्का खाकर यहाँ पहुंचे हैं. क्यों आये और कैसे आ पाए आप ?बोलून, पिताजी " कौन बोलता,माँ ने स्वयम ही अपने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया.\
"पिताजी, कोई भी कार्य भलीभांति सम्पन्न करने के लिए कर्ता को ये तीन बातों का ध्यान रखना है ,जैसा आपने भी किया होग़ा . "प्रथम-आपने यहाँ आने का दृढ़ निश्चय किया होग़ा . दूसरा आप निकल पड़े होंगे और तीसरी सबसे विशेष क्रिया जो आपने की होगी यह कि अपने आपको पूर्णतः अपने भगवान को समर्पित कर दिया होग़ा .इस प्रकार (1.Determination ,2.Action ,3.Surrender ) आपकी इन तीनों क्रियाओं ने आपको यहाँ पहुंचा दिया.यदि आप इन तीनो मे से एक क्रिया भी ठीक से नहीं करते तो आप यहाँ तक नहीं पहुँच पाते."
क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन, श्रीवास्तव "भोला"
.
सोमवार, 19 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ जय माँ
माँ आनंदमयी की कृपा
हमारे ग्रुप में ४ वर्ष की सरगम से लेकर ४५ वर्ष का मैं था.आज ३५ वर्ष बाद कोई आश्चर्य नहीं क़ी ह्म में से किसी को भी याद नहीं है क़ी उन ४०-४५ मिनिटों में ,जब ह्म भजन गा रहे थे तब ह्मारे आमने सामने या आगे पीछे क्या हो रहा था .अतीत के धूमिल पृष्ठ पलट कर देखता हूँ.
अपनी भजनान्जिली अर्पित करने से पूर्व हमने केवल इतना ही देखा था :
अति सुगंधमय उज्ज्वल पुष्पों से सुसज्जित उच्च सिंघासन पर बिराजीं ,दूध से भी धवल परिधान धारण किये श्री श्री माँ का दिव्य विग्रह.माँ की मुस्कुराती हुई मनमोहिनी छवि.और सोने के फ्रेम में से ,ज्योति शिखा सी दमकतीं कृपा लुटाती उनकी दो बड़ी बड़ी आँखें तथा श्री माँ की वह नजर जो जिधर घूमतीं उधर प्रेमामृत की बौछार हो जाती. हमारे जीवन का यह पहला अवसर था जब ह्म किसी ऎसी सिद्ध विभूति को इतने निकट से देख पा रहे थे. ह्म रोमांचित थे, हमे एक अति विशेष आत्मिक आनंद का रसास्वादन हो रहा था.
ह्म एक के बाद एक ,मात्रु वन्दन के पद गा रहे थे. अगला पद हमारी छोटी बहन मधू चंद्रा ने शुरू किया. .धीरे धीरे ह्म सब और ह्मारे साथ साथ पूरा पंडाल ही गा उठा
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय। जगजननी ..
तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव सुर-भूपा॥ जगजननी ..
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥ जगजननी ..
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥ जगजननी ..
तू विधि वधू, रमा तू , उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥ जगजननी ..
जग जननी जय जय ,माँ जग जननी जय जय
प्रियजन. ह्म सब गा रहे थे .सारा पंडाल माँ की जयकार से गूँज रहा था .जैसा बता चुका हूँ,मेरी आँखें बंद थीं,बंद ही रहीं जब तक माँ बोलीं नहीं.
अभी अनेक भजन हैं जो हमने उस शाम गाये थे लेकिन मैं आपको सब नहीं सुना रहा हूँ .आपकी तरह मैं भी बेताब हूँ माँ का अमोलक प्रवचन सुनने सुनाने को, कल कहूंगा.
निवेदक:: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
अति सुगंधमय उज्ज्वल पुष्पों से सुसज्जित उच्च सिंघासन पर बिराजीं ,दूध से भी धवल परिधान धारण किये श्री श्री माँ का दिव्य विग्रह.माँ की मुस्कुराती हुई मनमोहिनी छवि.और सोने के फ्रेम में से ,ज्योति शिखा सी दमकतीं कृपा लुटाती उनकी दो बड़ी बड़ी आँखें तथा श्री माँ की वह नजर जो जिधर घूमतीं उधर प्रेमामृत की बौछार हो जाती. हमारे जीवन का यह पहला अवसर था जब ह्म किसी ऎसी सिद्ध विभूति को इतने निकट से देख पा रहे थे. ह्म रोमांचित थे, हमे एक अति विशेष आत्मिक आनंद का रसास्वादन हो रहा था.
ह्म एक के बाद एक ,मात्रु वन्दन के पद गा रहे थे. अगला पद हमारी छोटी बहन मधू चंद्रा ने शुरू किया. .धीरे धीरे ह्म सब और ह्मारे साथ साथ पूरा पंडाल ही गा उठा
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय। जगजननी ..
तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव सुर-भूपा॥ जगजननी ..
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥ जगजननी ..
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥ जगजननी ..
तू विधि वधू, रमा तू , उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥ जगजननी ..
जग जननी जय जय ,माँ जग जननी जय जय
प्रियजन. ह्म सब गा रहे थे .सारा पंडाल माँ की जयकार से गूँज रहा था .जैसा बता चुका हूँ,मेरी आँखें बंद थीं,बंद ही रहीं जब तक माँ बोलीं नहीं.
अभी अनेक भजन हैं जो हमने उस शाम गाये थे लेकिन मैं आपको सब नहीं सुना रहा हूँ .आपकी तरह मैं भी बेताब हूँ माँ का अमोलक प्रवचन सुनने सुनाने को, कल कहूंगा.
निवेदक:: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
रविवार, 18 जुलाई 2010
JAI MAA JAI MAA
जय माँ , जय माँ
माँ आनंदमयी की कृपा
प्रियजन, मैं जो भी बयान कर रहा हूँ वह केवल इस मकसद से क़ी मैं आपको उस महान जादूगर के अप्रत्याशित करतब का एक छोटा सा नमूना दिखा सकूँ .
कहाँ हमे पंडाल में प्रवेश नहीं मिल रहा था और कहाँ माँ के अति निकट उनसे केवल दो गज की दूरी पर,बिलकुल उनके सामने बैठने का अवसर मिल जाना.क्या यह किसी अजूबे से कम है?आप ही देखें,कैसे ह्मारे प्यारे प्रभु ने ह्म जैसे नगण्य व्यक्तियों को श्री श्री माँ आनंदमयी के दिव्य विग्रह का ऐसा भव्य दर्शन इतने पास से संभव करा दिया. प्रियजन तुलसी ने कितना सच कहा है:
"कोमल चित अति दीन दयाला , कारण बिनु रघुनाथ कृपाला."
कार्यक्रम का विधिवत शुभारम्भ हुआ,हमे माँ के सन्मुख भजन सुनाने का आदेश हुआ.समय दिया गया पन्द्रह मिनिट का .हमने प्रारंभ किया देवी माता की अति प्रसिद्द प्राचीन वन्दना से.
सर्व मंगल मान्गालाये शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्ये त्रेम्बिकेगौरी नारायणी नमोस्तुते
और उसके बाद ह्म सबने गाया हरि ॐ शरण जी का अति लोकप्रिय भजन :
जगदम्बिके जय जय जग जननी माँ क्या मनहर नाम सुहाया है
वारूँ सब कुछ माँ चरणों पर , मेरे मन को यह भाया है.....
जगदम्बिके ..जय माँ.....
श्री राम तुही श्री कृष्ण तुही दुर्गा काली श्री राधा तू ,
ब्रम्हा बिष्णू शिव शंकर में तेरा ही तेज समाया है.......
जगदम्बिके....जय माँ .....
जय माँ ,जय माँ ,जय माँ ,जय माँ ................................................
और फिर न जाने कितनी देर तक जय माँ जय माँ की धुन माँ के पंडाल में गूंजती रही.जब ह्म रुक जाते इधर उधर से फिर वही जय माँ जय माँ की धुन उठ आती और उसके रुकने से पहले फिर कोई धीरे से कहता " प्लीज़ रुकिए नहीं,गाते रहिये "हमारी मंडली से कोई एक हमारा नया भजन शुरू कर देता. यही क्रम चलता रहा,.
केवल इतना ही नही आगे बहुत कुछ हुआ जिसकी कथा फिर कभी जब भी प्रभु की आज्ञा होगी सुनाऊंगा. भाई अब वादा नही करूँगा. वादा तोड़ना बुरी बात है ,लेकिन कभी कभी वादे टूट ही जाते हैं .कल की ही लें ,बहुत चाह कर भी सन्देश नही भेज पाया.ऊपर वाले की मर्ज़ी नही थी.मैं क्या करता..
निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
माँ आनंदमयी की कृपा
प्रियजन, मैं जो भी बयान कर रहा हूँ वह केवल इस मकसद से क़ी मैं आपको उस महान जादूगर के अप्रत्याशित करतब का एक छोटा सा नमूना दिखा सकूँ .
कहाँ हमे पंडाल में प्रवेश नहीं मिल रहा था और कहाँ माँ के अति निकट उनसे केवल दो गज की दूरी पर,बिलकुल उनके सामने बैठने का अवसर मिल जाना.क्या यह किसी अजूबे से कम है?आप ही देखें,कैसे ह्मारे प्यारे प्रभु ने ह्म जैसे नगण्य व्यक्तियों को श्री श्री माँ आनंदमयी के दिव्य विग्रह का ऐसा भव्य दर्शन इतने पास से संभव करा दिया. प्रियजन तुलसी ने कितना सच कहा है:
"कोमल चित अति दीन दयाला , कारण बिनु रघुनाथ कृपाला."
कार्यक्रम का विधिवत शुभारम्भ हुआ,हमे माँ के सन्मुख भजन सुनाने का आदेश हुआ.समय दिया गया पन्द्रह मिनिट का .हमने प्रारंभ किया देवी माता की अति प्रसिद्द प्राचीन वन्दना से.
सर्व मंगल मान्गालाये शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्ये त्रेम्बिकेगौरी नारायणी नमोस्तुते
और उसके बाद ह्म सबने गाया हरि ॐ शरण जी का अति लोकप्रिय भजन :
जगदम्बिके जय जय जग जननी माँ क्या मनहर नाम सुहाया है
वारूँ सब कुछ माँ चरणों पर , मेरे मन को यह भाया है.....
जगदम्बिके ..जय माँ.....
श्री राम तुही श्री कृष्ण तुही दुर्गा काली श्री राधा तू ,
ब्रम्हा बिष्णू शिव शंकर में तेरा ही तेज समाया है.......
जगदम्बिके....जय माँ .....
जय माँ ,जय माँ ,जय माँ ,जय माँ ................................................
और फिर न जाने कितनी देर तक जय माँ जय माँ की धुन माँ के पंडाल में गूंजती रही.जब ह्म रुक जाते इधर उधर से फिर वही जय माँ जय माँ की धुन उठ आती और उसके रुकने से पहले फिर कोई धीरे से कहता " प्लीज़ रुकिए नहीं,गाते रहिये "हमारी मंडली से कोई एक हमारा नया भजन शुरू कर देता. यही क्रम चलता रहा,.
केवल इतना ही नही आगे बहुत कुछ हुआ जिसकी कथा फिर कभी जब भी प्रभु की आज्ञा होगी सुनाऊंगा. भाई अब वादा नही करूँगा. वादा तोड़ना बुरी बात है ,लेकिन कभी कभी वादे टूट ही जाते हैं .कल की ही लें ,बहुत चाह कर भी सन्देश नही भेज पाया.ऊपर वाले की मर्ज़ी नही थी.मैं क्या करता..
निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
GURUs GRACE
गुरुजन की कृपा
निज अनुभव
पिछले कुछ दिनों से गुरुजन की स्मृति मन में एक दिव्य आनंद-ज्योति जगा रही है. .
प्रेम योगिनी जननी माँ ने विशुद्ध प्रेम,सत्य एवं करुना युक्त भक्ति का पय पान, करा कर हमे शैशव में ही आत्मोत्थान के प्रथम सोपान पर चढ़ा दिया. तदोपरांत धर्म पत्नी के साथ साथ दहेज़ में मिली ,हमारी सुसुराल की दैनिक प्रार्थना की पुस्तिका "उत्थान पथ" ने हमारा मार्ग दर्शन किया .यह पुस्तिका मेरे विवाह के अवसर पर उपहार स्वरूप देने के लिए ही मेरे सुसुराल में छपवाई गयी थी . इस पुस्तिका के पदार्पण ने ह्मारे पूरे परिवार के आत्मिक उत्थान में बड़ा योग दान दिया जिसके फल स्वरूप ही मैं यह सन्देश भेजने के काबिल हो पाया हूँ. जननी माँ और सुसुराल की प्रेरणा से प्राप्त मार्गदर्शन के बाद गुरुदेव श्री श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने हमारा परिचय वास्तविक आध्यात्म से करवाया उन्होंने हमे भगवत प्राप्ति हेतु अति सरल साधन बताया "श्रद्धा-विश्वास सहित नाम-जाप, सिमरन तथा ध्यान".महाराज जी ने ये सरलतम मार्ग दिखा कर हमारी साधन यात्रा अति सुगम कर दी
.
इस साधना ने मन में एक प्यास जगा दी ,अधिक से अधिक संतो से मिलने की. .महाराज जी के स्नेहिल आशीर्वाद के फल स्वरूप ही मुझे जीवन में, अनेकानेक संतो के दर्शन हुए, हमे हर जगह-क्या दफ्तर क्या घर ,क्या रेल-क्या बस यात्रा ,क्या हवाई सफर ,हर जगह ही संत मिलते रहे और श्री हरि कृपा से फिर आनंद हीआनंद.
तुलसी क़ी ये लोकोक्तियाँ "बिनु हरि कृपा मिलही नहि संता "और "संत मिलन सम सुख जग नाहीं"ह्मारे जीवन में चरितर्थ होती ही गईं .मुंबई की पोस्टिंग में योगीराज स्वामी मुक्तानंद जी महाराज , श्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज ,श्री स्वामी चिन्मयानद जी ,श्री श्री माँ निर्मला देवी जी, श्री माँ योग शक्ति और अंततःसर्वोपरि श्री श्री माँ आनंदमयी के दिव्य दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ साथ ही सभी संतों के सान्निध्य का ,उनकी.कृपा और उनके आशीर्वाद पाने का भी सुअवसर मिला मेरा तो जीवन धन्य हो गया और जैसा तुलसी ने कहा .मैं गुनगुना उठा :
"आज धन्य मैं धन्य अति ,यद्यपि सब बिधि हीन .
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन". तथा
" यह सुख साधन से नही होई,: राम कृपा बिनु सुलभ न सोई"
अस्तु प्रियजन '"मांगूं में राम कृपा दिनरात "का गायन करते हुए प्रभु की कृपा प्राप्ति के साधना में जुटे रहिये..फिर बच कर वो जायेंगे कहाँ . निज स्वभावानुसार कृपा करेंगे ही
माँ की कृपा-कथा कल सुनाऊंगा . भरोसा रखिये कल भटकूंगा नही. ये वादा रहा.
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
Gems of Wisdom
कुछ उपयोगी सूत्र
डोक्टर विश्वास वर्मा के सौजन्य से
जब आप यह संदेश पढ़ेंगे ,भारत में १६ जूलाई २०१० का सवेरा हो ही गया होगा और विश्व में जहाँ कहीं नही हुआ होग़ा थोड़ी देर में हो ही जायेगा. अस्तु चलिए ह्म आज जन्मे सभी व्यक्तियों को, एक साथ बधाई दे दें .हाँ आपके नक्कारखाने में मैं भी अपनी हल्की फुल्की तूती की आवाज़ जोड़ ही दूं. so let us say HAPPYBIRTHDAY to all PERSONS born on this big day Dear ones. but let me have the liberty to say THANK YOU on behalf of all who share this day.
.
हो चुकी हल्की फुलकी बातें.आइये अब कुछ गम्भीर बातें हो जाएँ .चलिए सागर तट पर बालू के किले बनाने के बजाय ह्म सीपियों में से अनमोल मोती निकालें. मुझसे तो यह सपरेगा नहीं इसलिए उन बच्चों से ही मदद ली जाये जिन्होंने राम परिवार के पितामह से अपने शैशव में आध्यात्म की शिक्षा पायी है..
जब आप यह संदेश पढ़ेंगे ,भारत में १६ जूलाई २०१० का सवेरा हो ही गया होगा और विश्व में जहाँ कहीं नही हुआ होग़ा थोड़ी देर में हो ही जायेगा. अस्तु चलिए ह्म आज जन्मे सभी व्यक्तियों को, एक साथ बधाई दे दें .हाँ आपके नक्कारखाने में मैं भी अपनी हल्की फुल्की तूती की आवाज़ जोड़ ही दूं. so let us say HAPPYBIRTHDAY to all PERSONS born on this big day Dear ones. but let me have the liberty to say THANK YOU on behalf of all who share this day.
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हो चुकी हल्की फुलकी बातें.आइये अब कुछ गम्भीर बातें हो जाएँ .चलिए सागर तट पर बालू के किले बनाने के बजाय ह्म सीपियों में से अनमोल मोती निकालें. मुझसे तो यह सपरेगा नहीं इसलिए उन बच्चों से ही मदद ली जाये जिन्होंने राम परिवार के पितामह से अपने शैशव में आध्यात्म की शिक्षा पायी है..
लखनऊ के एक शिशु ने चुने हैं ऐसे कुछ अनमोल रत्न जो ह्म आप की सेवा में प्रेषित कर रहे हैं.
आज की संवेदना, विचार एवं चिंतन के परिप्रेक्ष्य में डॉक्टर विश्वास वर्मा (शिशु)ने बहुत ही उपयोगी सूत्रों का निरूपण किया है ,जिनका उपयोग यदि ह्म प्रतिदिन के अपने कार्य -कलाप में और आचार-विचार -व्यवहार में कर सकें तो सहज रूप में जीवन को सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं
१-यदि हर काम यह समझ कर किया जाए की ईश्वर मेरा साथी है या ईश्वर मेरे साथ है , तो असंभव कार्य भी संभव हो जाता है/
१-यदि हर काम यह समझ कर किया जाए की ईश्वर मेरा साथी है या ईश्वर मेरे साथ है , तो असंभव कार्य भी संभव हो जाता है/
२- कभी कभी हम दूसरों को बदलने के लिए बाध्य कर देते हैं, क्योंकि हम चाहते हैं की वह वैसे ही बनें जैसा हम चाहते हैं/ तो उस जगह पर अपने आप को रख कर सोचें..की जो भी हम कर रहे हैं क्या सही है/
३ प्रत्येक का जीवन अपार अनुभवों से होकर गुज़रता है....जिसमें कुछ गुणों को ग्रहण करना पड़ता है और कुछ क़ी अवज्ञा करते हुए उन्हें त्यागना पड़ता है./.
४ मेनेजमेंट में स्वयं का प्रबंधन (self management )करो ;यह कहना जितना सरल एवं सहज है ,उतना ही अपने जीवन में उतारना अत्यंत जटिल है इसके लिए आवश्यक है क़ी बच्चों को शैशव से ही कुछ न कुछ सिखाया जाये...मैनेजमेंट(management ) कई प्रकार के होते हैं जिसमें सबसे प्रबल है- स्व-मैनेजमेंट (स्वयं का मैनेजमेंट अर्थात self -management )-- ,जिसमें आवश्यक है
३ प्रत्येक का जीवन अपार अनुभवों से होकर गुज़रता है....जिसमें कुछ गुणों को ग्रहण करना पड़ता है और कुछ क़ी अवज्ञा करते हुए उन्हें त्यागना पड़ता है./.
४ मेनेजमेंट में स्वयं का प्रबंधन (self management )करो ;यह कहना जितना सरल एवं सहज है ,उतना ही अपने जीवन में उतारना अत्यंत जटिल है इसके लिए आवश्यक है क़ी बच्चों को शैशव से ही कुछ न कुछ सिखाया जाये...मैनेजमेंट(management ) कई प्रकार के होते हैं जिसमें सबसे प्रबल है- स्व-मैनेजमेंट (स्वयं का मैनेजमेंट अर्थात self -management )-- ,जिसमें आवश्यक है
- 1- वाक् -अर्थात बोलना - मधुर बोलें, quality एंड quantity से भी ज्यादा important है ना बोलें /
- २-silence को हमेशा कमजोरी समझा जाता है..परन्तु silence कहीं ज्यादा powerful है, वाणी से /
- ३- श्रवण (try to be a good listener )..जबकि हो सकता है अपने interest का विषय ना हो /
- ४-अपनी नित्य क्रिया - सुबह प्रतिदिन एक समय पर उठना, शौच जाना,व्यायाम करना, भोजन करना, आराम करना,,इत्यादि ...और आप यह अनुभव करेंगे की आपका शरीर आपका मन ...आपके अनुसार tune हो गया है..
जब युक्त सोना जागना आहार और विहार हों|
हो दुक्ख्हारी योग जब परिमित सभी व्यवहार हों (अध्याय ६ श्लोक १७ )
इसलिए ह्म आज ही प्लान करें कल का कार्यक्रम और उसे लिखें planner में या अपने mobile मेंऔर समय सारिणी बनाएं .और उसके अनुसार कार्य करें तभी .इस निजी मेनेजमेंट को साध कर श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार अपने मित्र बन कर अपना जीवन सार्थक कर पाएंगे
उद्धार अपना आप कर निज को न गिरने दे कभी
नर आप ही है शत्रु अपना आप ही है मित्र भी (अध्याय ६ श्लोक ५ ) --------- -------------------------------------------------------------------------------------------------------
कल से पुनः श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा कथा सुनाउंगा
निवेदक: व्ही, एन. श्रीवास्तव. "भोला"
बुधवार, 14 जुलाई 2010
SRI MAA ANANDAMAYIs GRACE
श्री श्री माँ आनंदमयी की कृपा
गतांक से आगे
लगभग आधे घंटे तक की बेतहाशा दौड़ धूप के बाद प्रभु ने ह्म सब पर कृपा की और फिर जब ह्म चिंता मुक्त हो कर पंडाल में बैठ गये ,मुझे नाना जी मरहूम जनाब 'राद" साहब का ये कलाम याद आया ,
अय राद न कर फ़िक्र न कर दिल में ज़रासोच,
भगवान के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या सोच
इक वख्त मुकररर है हर इक काम का अय दिल,
बेकार तेरी फ़िक्र है बेकार तेरी सोच
मै सोच रहा था ,काश मेरा विश्वास अपनी कुर्सी और अपने ओहदे,के बजाय प्रभु कृपा पर होता तो हमे इतनी चिंता और इतनी निराशा का सामना नह़ी करना पड़ता.मुझे उस समय यकीन हो गया क़ी अहंकार ने मेरा दामन अभी भी नहीं छोड़ा है. मेरे परिवार के अन्य सभी सदस्यों में मुझसे कहीं अधिक परमात्मा की अहैतुकी कृपा पर श्रद्धा और विश्वास है .Thanks to the influence of our Rev. late Hon. Chief Justice Shivdayaal ji, who mentored our entire family by eplaining spiritualism (true BHAKTI) to children from their early childhood शैशव से ही हमारे बच्चे अपनी दैनिiक प्रार्थना में संत तुलसीदास जी की ये चौपाइयां गाते थे .-
गतांक से आगे
लगभग आधे घंटे तक की बेतहाशा दौड़ धूप के बाद प्रभु ने ह्म सब पर कृपा की और फिर जब ह्म चिंता मुक्त हो कर पंडाल में बैठ गये ,मुझे नाना जी मरहूम जनाब 'राद" साहब का ये कलाम याद आया ,
अय राद न कर फ़िक्र न कर दिल में ज़रासोच,
भगवान के होते हुए क्या फ़िक्र है क्या सोच
इक वख्त मुकररर है हर इक काम का अय दिल,
बेकार तेरी फ़िक्र है बेकार तेरी सोच
मै सोच रहा था ,काश मेरा विश्वास अपनी कुर्सी और अपने ओहदे,के बजाय प्रभु कृपा पर होता तो हमे इतनी चिंता और इतनी निराशा का सामना नह़ी करना पड़ता.मुझे उस समय यकीन हो गया क़ी अहंकार ने मेरा दामन अभी भी नहीं छोड़ा है. मेरे परिवार के अन्य सभी सदस्यों में मुझसे कहीं अधिक परमात्मा की अहैतुकी कृपा पर श्रद्धा और विश्वास है .Thanks to the influence of our Rev. late Hon. Chief Justice Shivdayaal ji, who mentored our entire family by eplaining spiritualism (true BHAKTI) to children from their early childhood शैशव से ही हमारे बच्चे अपनी दैनिiक प्रार्थना में संत तुलसीदास जी की ये चौपाइयां गाते थे .-
मैं शिशु प्रभु सनेह प्रति पाला, मंदरु मेरु क़ी ले हि मराला .
मोरे सबई एक तुम स्वामी , दीन बन्धु उर अन्तर जामी
मोरे तुम प्रभु गुरु पितुमाँता,जाऊं कहाँ तजि पग जलजाता
बालक ज्ञान बुद्धि बल हीना राखहु सरन जान जन दीना.
पूरे परिवार की इस समवेत प्रार्थना से प्रसन्न हो कर प्रभु ने हमारी उस शाम की मनो कामना पूरी की.पर भाई ऐसा न सोचिये क़ी मैं यह प्रार्थना नहीं जानता था . जानता तो था लेकिन मैं अपनी प्रार्थना में वह समर्पण का भाव ,वह अहंकार शून्यता मन की निर्मलता शायद नहीं ला पाता था जितना प्यारे प्रभु को चाहिए. तुलसी के राम ने मानस में स्वयम कहा है:-:
निर्मल मन जन सो मोही पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा.
जो निर्मलताऔर जो निष्कामता प्रभु श्री राम को प्रिय है वह शायद मेरी निजी विनती में नहीं थी .यह़ी कारण था क़ी कुर्सी और अधिकार के अहंकार से प्रेरित मेरी यह कामना क़ी कोई सेठ एक्सपोर्टर मुझे पंडाल में बैठाये ,प्रभु ने नहीं पूरी होने दी .और इस प्रकार प्रभु ने मुझे एक अनैतिक और गलत काम करने से बचा लिया.
प्यारे प्रभु ने निष्काम एवं निरहंकारी भाव से की हुई हमारे परिवार क़ी प्रार्थना स्वीकार करके हमे न केवल पंडाल के भीतर पहुंचाया , हमे माँ का अलौकिक दर्शन करवाया. हमे माँ के दर्शन मात्र से जो दिव्य आनंद=प्रसाद मिला उसका स्वाद ह्म आज तक भूल नहीं पाए हैं..आज भी उस शाम के आंनद और श्री श्री माँ के मुखारविंद से निकले उनके अमृत वचनों की याद आने पर हमे जिस आनंद की अनुभूति होती है,उसकी स्मृति मात्र से हमारा सारा तन रोमांचित हो जाता है.और मन एक अलौकिक प्रकाश से भर जाता है . .
क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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