मंगलवार, 31 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.31, '10)

हनुमत कृपा -निज अनुभव

गातांक से आगे 

प्रियतमप्रभु  के प्रतिनिधि- ह्मारे  माता  पिता तथा आध्यात्मिक सद्गुरु श्री श्रीब्रह्मलीन  सत्यानंदजी महाराज और उनके आशीर्वाद के फलस्वरूप इस जीवन में ह़ी  मिलीं श्री श्री माँ आनन्दमयी की  मूक प्रेमाभक्ति दीक्षा  ने ह्मारे  शुष्क हृदय को प्रेम रस से भर दिया है. इस प्रकार हमे वहपुष्पवाटिका तो मिल गयी जिस के लाल गुलाबो की माला ह्म अपने प्रियतम इष्ट के कंठ में डाल सकते हैं

अब शेष है यह समस्या क़ी वह "अदृश्य  " मनमोहन कहाँ मिले ? प्रियजन ! यह कोई उतनी कठिन समस्या नहीं है. ह्म अनादि काल से इसका हल जानते हैं पर स्वभाववश भुला बैठे हैं .याद करें महाभारत काल में योगेश्वर कृष्ण ने महारथी अर्जुन से क्या कहा था. .              
 "ईश्वर: सर्वभूतानाम   हृद्देशे  अर्जुन तिष्ठति 
(ईश्वर हृदय में प्राणियों के बस रहा है  नित्य  ही )

इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है
"जड़ चेतन जग जीव जत सकल राम मय जान"       और 
"राम ब्रह्म  चिन्मय अबिनासी ,सर्व रहित सब उर पुर बासी

प्रियजन ! हमारा प्रियतम मनमोहन इष्ट घटघट का बासी है,वह प्रति पल ह्मारे अंगसंग है, वह हर घड़ी ह्मारे इर्द गिर्द रहने वाले परिवार के सभी प्राणियों में है .वह गंगाघाट की झुग्गियों में बसे भिक्षुओं के नंगे,भूखे प्यासे बच्चों में भी है. 

अब जब इतने भिन्न स्वरूपों में ह्मारे इष्ट हमे मिल गये तब काहे की चिंता ?. सारी समस्याएँ मिट गयीं  अब तो ह्म हैं,पुष्पवाटिका है,और जड़ चेतन सभी जीवों में और सृष्टि  के कण कण में ह्मारे इष्ट. अब विलम्ब काहे का  ?,इन में से किसी एक को लाल   गुलाब की कली भेंट कर दें. ना जाने किस भेष वाले नारायन आपका गुलाब स्वीकार करलें .
प्रियजन !आपकी हमारी पूजा संपन्न हो गयी  ...

निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 30 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR (Aug.30,'10)




हनुमत कृपा - निज अनुभव 
गतांक से आगे



महात्माओं का कथन है ,"ईश्वर प्रेम है " (God is LOVE). आज के कलि काल में हम केवल प्रेम से ही "उन्हें" पा सकते हैं.अनेकों प्रकार के योग,जप,तप, दान,यज्ञ ,व्रत ,नियम करने वाले भी प्रभु की उस अहेतुकी कृपा के अधिकारी नहीं बन पाते जो  क़ी उनसे अनन्य प्रेम करने वाले भक्तों को ह्मारे प्रभु  निःसंकोच प्रदान करते हैं..


उमा जोग  जप  दान  तप   नाना  मख व्रत नेम !
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि  निष्केवल प्रेम !!




अब प्रश्न यह उठता है इतना प्रेम ह्म साधारण प्राणी कहां और कैसे पायें जिसे "उनके" श्री चरणों पर अर्पित कर ह्म "उनके" बन सकें ,"उनको" अपना बना सकें..और यदि सौभाग्य से कोई रोज गार्डेन मिल भी जाये तब यह समस्या होगी क़ी ह्म .उस निराकार प्रेमी को कैसे अपनी पुष्पांजली का  लाल गुलाब पेश करें?





प्रियजन !  ह्म सब अति भाग्यशाली हैं. अपने जन्म से ही ह्म प्रेम के प्रतीक लाल गुलाब के सबसे बड़े बाग़ में खेल रहे हैं. यह रोज़ गार्डेन है हमारी जननी माँ की ममतामयी गोदी, जहाँ ह्म माँ के बक्षस्थ्ल  से प्रवाहित प्रेम रस का पान करते हैं और पुष्ट हो कर वही प्रेम रस जन जन में वितरित करने को समर्थ होजाते हैं..जीवन पथ पर आगे बढने पर- 


भ्रम  भूलों  में  भटकते  उदय  हुए  जब  भाग 


मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग 





ह्म पर प्रभु की अहेतुकी कृपा  होने पर हमारे सद्गुरु ह्म पर  विशेष करूणा करते हैं .हमें अपना  प्रेम पात्र बना लेते हैं.और हमारा  हृदय प्रभु प्रेमाँमृत से भर देते हैं.


निगमाँगम पुरान मत एहा ,कहाहि सिद्ध मुनि नही संदेहा 


संत बिसुद्ध मिलहिं पर तेही ,  चितवहि राम कृपा कर जेही.


गुरुदेव के प्रांगण में प्रवाहित ज्ञान गंगा में स्नान कर ह्म अपने कलुषित मन,बुद्धि की कालिमा धो डालते हैं. प्रियजन ! हमने गुरुजन से ही यह जाना है क़ी " सम्पूर्ण मानवता पर अहेतुकी कृपा करने वाला बस एक ही है और वह एक है हमारा परम पिता परमात्मा " अपने अनुभव से आपको बताता हूँ क़ी भैया ! ह्म सीधे (directly)उनसे नहीं मिल सकते.  हमे पहिले उनके पी.ए..से  मिलना  पड़ेगा.





प्रियजन ! हमे "उनके" पी. ए . की खोज में बहुत दूर नहीं जाना होग़ा."उन्होंने" अपने प्रतिनधि (Counsel) साधु महात्माओं के रूप में ह्मारे  पास भेज रखे हैं वे प्रतिनिधि हैं ह्मारे आपके सद्गुरु.हमे केवल उनको पहचानना है और उनकी शरण में समर्पित हो जाना है .सद्गुरु पा लेने के बाद हमे कुछ भी नहीं करना है 





जननी माँ का "पय- प्रेम-अम्रूत" तथा सद्गुरु का  "प्रेम-ज्ञान गंगाजल" पान कर लेने  पर और हमे क्या चाहिए  अब तो अंजुली भर भर कर माँ से मिला यह प्रेमामृत ,और गुरुदेव का यह "प्रेम -गंगाजल" सब  प्रेम -पियासों को पिला पाऊँ  ,एक यही कामना है.  .




जय जय जय  माँ ,जय गुरुदेव







क्रमशः :


निवेदक: वही. एन.  श्रीवास्तव."भोला" .





























"

रविवार, 29 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.28/29 .'10)

हनुमत कृपा  - निज अनुभव


गतांक से आगे

प्रियजन! आपको ही क्यों मुझे भी अपना पिछ्ला (२७ अगस्त वाला) संदेश पढ़ कर ऐसा लग रहा है क़ी मैं अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहा हूँ .और यह जानते हुए भी क़ी अपने आप पर ,अपने किसी कृत्य के लिए अहंकार=अभिमान करना उचित नहीं है, मैंने वह सब अनुचित वार्ता लिखी.मैं स्वयम समझ नहीं पा रहा हूँ क़ी मुझसे यह अपराध कैसे हो गया . .

इसमें कतयी कोई दूसरी राय हो ही नहीं सकती क़ी "अभिमान-अहंकार" सर्वथा त्याज्य है.. पर परम रामभक्त संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में सुतीक्ष्ण मुनि से यह कहलवाकर क़ी श्री रघुनाथजी क़ी सेवा का सुअवसर पाने वाला साधक यदि अपनी उस स्थिति-(राम सेवकाई का अवसर पाने) का अभिमान करे तो ऐसा अभिमान भूलने भुलाने लायक नहीं है.

बडभागी श्रेष्ठ मुनि सुतीक्ष्ण जी ने कहा था:-

अस अभिमान जाय जनि भोरे , मैं सेवक रघुपति पति मोरे.
I should always be PROUD of the fact that I am in LORDs service.

प्रियजन! उपरोक्त कथन से यह कदापि न समझ लीजिएगा क़ी मुनिवर सुतीक्ष्ण जी ने मुझे "अभिमान" करने का लाईसेंस दे दिया है अथवा अब मैं उनके समान महान संत बन गया हूँ. ऐसा कुछ भी नही है. विश्वास करिये भइया अभी भी "मैं वही हूँ ,वही हूँ, वही हूँ मैं बिलकुल नहीं बदला हूँ जो पाठ मेरी जननी माँ ने शैशव में ,,सद्गुरु श्री सत्यानंदजी महाराज तथा श्री श्री माँ आनंदमयी ने युवा अवस्था में तथा श्री राम शरणम के वर्तमान आध्यात्मिक गुरु ,डाक्टर विश्वामित्र जी महाराज ने हमे आज तक पढाया है मैं भूला नहीं हूँ.आज भी मैं उनके पढाये प्रेम-प्रीति-भक्ति के पाठ का अक्षरशः पालन करने का प्रयास कर रहा हूँ.. गुरुजन के कहे अनुसार मै "उनकी" कायनात के ज़र्रे ज़र्रे मे अपने प्रियतम प्रभु की मनमोहिनी छबि के दर्शन करने का प्रयास करता रहता हूँ .

इसी भावना से प्रेरित अपनी एक रचना याद आ रही है जो अपने २००८ के होस्पिटल प्रवास से कुछ दिन पहले बनी थी.
.
रोम रोम में रमा हुआ है, मेरा राम रमैया तू,
सकल श्रृष्टि का सिरजन हारा संघारक रखवैया तू !!.

डाल डाल में ,पात पात में , मानवता के हर जमात में,
हर मजहब ,हर जात पात में , एक तुही है तू ही तू.!!

चपल पवन के स्वर में तू है,पंछी के कलरव में तू है,
भंवरे के गुंजन में तू है ,हर"स्वर" में "ईश्वर"है तू !!

क्रमशः

निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.27,'10)

हनुमत कृपा-निज अनुभव 
गातांक से आगे 

लगभग ५० वर्ष पूर्व जब मैं तीस एक वर्ष का था तभी प्रभु की अहैतुकी कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन मुझे हुआ.उन दिनों मैं भारतीय रक्षा मंत्रालय की एक आयुध निर्माणी में कार्य करता था.तभी एक दिन प्रधानमंत्री नेहरू जी का एक बयान आया,उन्होंने बहुत  दुख़ी हो कर कहा था,"हमारी पीठ में ह्मारे पड़ोसी ने ही छुरा भोंक दिया " उस दिन से  ही ,भाई-भाई एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गये.भारत में युद्ध की तैयारियां जोर शोर से चालू हो गयी आयुध निर्माणियां पुनः सजीव हो गयी.काम इतना बढ़ा क़ी युद्ध स्तर पर भर्ती भी  .चालू हुई, अफसर छुट्टी से वापस बुलाये जाने लगे. आयुध निर्माण  के लिए लाखों रूपये का कच्चा माल प्रति दिन खरीदा जाने लगा. 

उन दिनों मैं निर्माणी में, खरीदे जाने वाले एक विशेष कच्चे माल के निरीक्षण विभाग का अध्यक्ष था. इस विभाग में ऊपरी कमाई का बहुत स्कोप था. ह्म यदि चाहते तो  प्रति दिन इतनी कमाई कर लेते जितनी हमारी महीने भर की तनख्वाह थी.मुझसे सीनियर और जूनियर  सभी ऊपरी कमाई से परहेज़ नहीं करते थे.


अब यहाँ बताउंगा क़ी तब,प्यारे प्रभु ने मुझ पर कैसे ,कब और किस प्रकार कृपा की.

विश्वयुद्ध (२)  के बाद से ही सारी दुनिया एक भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रही थी भारत इससे अछूता न था. देश में आम जनता को दो जून खाने के भी लाले पड़े थे.ह्मारे जैसे सरकारी मुलाजिम कम वेतन मिलने के कारण बड़ी कठिनाई  से घर खर्च  चलाते थेऐसे में ऊपरी आमदनी के लालच से बचना असंभव था पर "उनकी" कृपा से ह्म इस लालच के दानव की मार से बच गये. कैसे?  बताता हूँ.

ह्म भी अभाव ग्रस्त थे.ह्म भी अपने बच्चों को  न वैसा खिला  सकते थे ,न वैसा पहना सकते थे जैसा क़ी चाहिए था. पर हमारी पत्नी और बच्चों ने इन सब अभावों को,हंस हंस कर झेला और हमे ऊपरी कमाई करने की आवश्यकता ही नही महसूस होने दी ...हमारे साथ के अफसरों के बच्चों को अच्छा खाते पहनते देख कर भी ह्मारे बच्चों ने कभी हमे अपनी चादर के बाहर पैर फ़ैलाने को मजबूर नहीं किया.प्रभु क़ी अनन्य कृपा से बच्चों के लालन पालन और शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नहीं हुई और आज वे सब ही अति आनंदमय जीवन जी रहे हैं  प्रियजन !यह सब ही ह्मारे प्रियतम प्रभु की अहैतुकी कृपा के फलस्वरूप ही तो है.

इतना ही नहीं और बहुत कुछ हुआ इसी सन्दर्भ में जो आगे पेश करूंगा. अभी इतना ही.

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.26,'10)


हनुमत कृपा-निज अनुभव 
गातांक से आगे 

मेरे परम प्रिय पाठकगण 

मैं पिछले दो दिनॉ से वह सब नहीं लिख पा रहा हूँ जो लिखने की सोंच कर कलम उठाता हूँ ईश्वर की मर्जी समझ कर चुप बैठा हूँ.  आप ही कहें कैसे साहस कर सकता हूँ "उनसे" पंगा लेने का?  लेकिन आपको अपने दिल का हाल सुना तो सकता हूँ-------         

                        प्यारे स्वजन ! ये प्यार का अंजाम देखिये 
"वह" ज़ुल्म कर रहे हैं औ मुस्का रहा हूँ मैं 

मैं लिख नहीं पाता हूँ ,कलम तोड़दी "उसने" 
फिर भी तो उसी "इष्ट" के गुण गा रहा हूँ मैं

वो  कब तलक मानेंगे नहीं  देखना है ये 
वो मेरे हैं , कब से उन्हें समझा रहा  हूँ मैं 

मेरी तरफ से आपही ये उनसे पूछिये 
क्या जुर्म है मेरा जो सजा पा रहा हूँ मैं 

गनीमत है आज "उन्होंने" इतना लिखने दिया .ऊपर वाले आशार भी उनकी ही मेहरबानी से आपसे आप ही कम्प्यूटर पर बैठते ही ज़हेन में एक के बाद एक आते रहे. तो  फिर ऐसा  लगता है क़ी "उन्होंने" अपने इस प्यारे सेवक को माफ़ कर दिया है.और एक बार, फिर वो ह्म पर कृपालु  हो गये हैं. और एक बात कहूँ ,उनके डर से ह्मारे हमउम्र  कम्प्यूटर मियाँ ने भी आज अभी तक मेरे साथ कोई शरारत नहीं की चुप चाप अपना काम किये जा रहे हैं.

नजाने क्या अनाप शनाप मैं पिछले दो दिन से बोल रहा था. क्या करूं दुख़ी था इसलिए क़ी आपकी जी भर सेवा  नहीं कर पा रहा था. भाई दुःख और क्रोध में मति भ्रमित हो जाती है और लगता है दुःख के कारण मेरा भी कोई पेंच ढीला हो गया था.

मैं लज्जित हूँ अपनी करनी पर .कायदे से अब मुझे "उनसे" क्षमा मागनी चाहिए.और मैं मन ही मन मांग भी रहा हूं .लेकिन , मैं आपसे भी करबद्ध प्रार्थना करता  हूँ क़ी आप भी मेरी शिफारिश "उनसे" ज़रूर करें.और मुझे माफी दिलवादें . आपकी बड़ी कृपा होगी 
...
आज इतना ही , शेष कल 

निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"


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बुधवार, 25 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.25,'10)

हनुमत कृपा -निज अनुभव 
गातांक से आगे 

म्रेरे परम प्रिय पाठक गण ,


आज तो हद्द ही हो गयी.,कम्पुटर बाबा ने शराफत की धज्जियां उड़ा कर दो बार मेरा लिखा  लिखाया सदेश गार्बेज में डाल दिया.  ज़रा देखिये महाशय को उनकी ही उम्र  के इस बुज़ुर्ग पर तनिक भी दया  नहीं आयी.


मुश्किल ये है क़ी मैं इसकी शिकायत करूं भी तो किससे करूं. ,मुझ सा असहाय जिसका इस संसार में एक मात्र सहारा उसका  "इष्ट देव" ही  है ,जब इष्ट ही  मेरे कम्प्यूटर बाबा से मिल कर मुझे सताने की ठान चके हैं तब मेरी मदद और कौन कर सकता है.


हाँ मुझे इसका तो पूरा भरोसा है  क़ी मेरे  "वह" कभी भी किसी पर कोई अन्याय नहीं कर सकते हैं . अवश्य ही ,मैं स्वयम कुछ गलत कर रहा हूँ और "वह" मेरे उस अपराध की सज़ा मुझे दे रहे हैं 


मेरे प्रभु !"मुझे स्वीकार है जो भी सज़ा आप  मुझे देना चाहे बखुशी दें  ".


 प्रिय पाठकों से क्षमा याचना करता हूँ 


कल पुनः हाज़िर होऊंगा 
निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.24,'10)

हनुमत  कृपा - निज अनुभव 

गातांक से  आगे 

मेरे परम प्रिय पाठकगण,  


मेरी मजबूरी देखिये मैं लिखना चाहता हूँ कुछ तो कोई मेरी कलम पकड़ लेता है . मेरे कम्प्यूटर जी भी नखरे करने लगते हैं. कल रात से कितना परेशान कर रहे हैं वह ?, मैं भुक्त भोगी चुपचाप  झेल रहा हूँ,.

हाँ गतांक में मैं आपको अपनी वह "प्रेम-भक्ति-संयोगिनी " रचना  बता रहा था और जैसे सियाही सूख गयी, कम्प्यूटर जी बैठ गये. मेरे जैसे ही बुज़ुर्ग हैं श्रीमान , उन्हें क्या दोष दूँ मुझे तो लगता है क़ी इसमें  मेरे "उनकी"  अनिच्छा ही बड़ी रुकावट है .अब,"उनकी" मर्जी के खिलाफ आपको वह रचना बताऊँ यह मुझसे नहीं होग़ा अस्तु चलिए वह प्रसंग भूल ही जायें और पुनः २००८ के हॉस्पिटल प्रसंग पर आ जाएँ

श्री महाराज जी के स्वप्न-दर्शन के बाद इंटेंसिव के कारा से छुटकारा मिला.अब दिन में कुछ समय के लिए परिवार के स्वजनों को मुझे देखने और मुझसे मिलने का अवसर मिलने लगा .पर  मेरी बेहोशी  / तन्द्रा /निंद्रा मस्ती ( समझ नह़ी पाता किस नाम से पुकारें उसे),वह अर्ध जागृत -अर्धसुप्तावस्था वैसी ही बरकरार रही .दिन रात ओक्सीजन मास्क लगा रहता ,थोड़ी थोड़ी देर  में न्यूबलाइजर लगता ,कम्प्लीट बेडरेस्ट ,आई वी से रक्तदान (टेस्ट के लिए),और औषधियों का आदान और न जाने क्या क्या होता ही रहता.

पर मेरे प्रियजन आपको सच सच बताता हूँ ,क़ी हॉस्पिटल में मेरी इस काया के साथ चाहे जो कुछ भी हुआ मुझे कोई भी कष्ट नहीं हुआ,कोई भी पीड़ा नहीं हुई. मेरे पूर्णतः स्वस्थ होने के बाद मैंने सुना क़ी मेरे प्रमुख चिकित्सक ही नही बल्कि उनकी पूरी टीम और उनका स्टाफ  अक्सर आश्चर्यचकित हो जाता था जब पीडाजनक प्रोसीजर्स के दौरान बेहोशी की हालत में भी मैं मुस्कुराता रहता था. अब जब सोचता हूँ क़ी ऐसा क्यूँ कर हुआ  होगा तो चकरा जाता हूँ.कुछ भी समझ नही पाता. वह कृपानिधान मेरे जैसे कुसेवक पर भी इतने कृपाल क्यों हैं   सूरदास जी की यह रचना मेरे मन की भावना व्यक्त करती है



मो सम कौन कुटिल खल कामी


जिन तन दियो ताहि बिसरायो ,ऐसो नमकहरामी,


मेरे जैसे नीच, कुटिल ,खल, कामी ,स्वार्थी, व्यक्ति पर भी मेंरे परमदयालु प्रियतम इतनी कृपा कर रहे हैं, मेरे प्रियजन, मै  पूजा पाठ, जप तप ध्यान करना नहीं जानता फिर भी वह मेरे ऊपर इतने कृपालु हैं.,फिर आपसब तो हर प्रकार मुझसे श्रेष्ट हैं आप पर कृपा करने के लिए तो वह " शंख चक्र गदा- पद्म गरुड़ तजि --पधारेंगे , चिंता तज कर केवल प्रेम से उनको याद करना है. और फिर आप भी मेरी तरह "तुलसी" की ये चौपाइयां गा उठेंगे
.
नाथ सकल साधन मैं हीना कीनी कृपा जानि  जन दीना
नाथ आज मैं काह न पावा,   मिटे दोष दुःख दारुण दावा 

अब     क्छू नाथ   न    चाहिय   मोरे    दीनदयाल अनुग्रह तोरे
अब प्रभु कृपा करहु एही भांती, सब तजि भजन करहूँ दिन राती.


क्रमशः 
निवेदक:-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला",
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सोमवार, 23 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.23,'10)

हनुमत  कृपा  - निज अनुभव  
गतांक से आगे 


प्रियजन ,मैं आपको सुना रहा था ,सन २००८ के मेरे हॉस्पिटल प्रवास के दौरान, मुझ पर हुई श्री हरिकृपा की कथा. पर जैसा आप जानते ही है क़ी अनायास ही मेरे परम प्रिय "उन्होंने"उस प्रवाह का रुख ही बदल दिया और मेरा ध्यान "कृपा" के उस अथाह स्रोत अपने सद्गुरु महाराज की ओर फेर दिया, आप स्वयम ही सोच  कर देखें, यदि गुरुजन न होते ,तो  हमारी "कृपा गंग" किस गंगोत्री से प्रगट होती और इस असार संसार में हमारी क्या दशा हुई होती.

प्रिय पाठकों "कृपा-गंगा" का उद्गम स्थल  है अपने 'सद्गुरु का श्री चरण' .चरण शरण लेने वाले साधक जीव ,जन्म जन्मान्तर से संचित निज पुण्यों  के फल स्वरूप ,अपने नये जन्म के ९-१० महीने पहले से ही हरि कृपा के इस जीवन दायक अम्रूत का रसास्वादन करने लगते हैं और आजीवन उस अमृत-जल से सिंचित हो फलते फूलते रहते हैं.
२००४ में श्री राम शरणम् के चौखट पर श्री गुरुजी महाराज से प्राप्त स्वास्थ्य विषयक चेतावनी ने मुझे चौका दिया था ,पर मैं मन ही मन बिलकुल निश्चिन्त था .मुझे अडिग विश्वास था इसका क़ी मेरे साथ कोई अनहोनी हो ही नही सकती .गुरुजन की स्नेहिल शुभकामनाओं से निर्मित अटूट फौलादी  सुरक्षा कवच धारण किये साधक को भला कौन सता  सकता है? मैं जानता हूँ क़ी ह्मारे महाराज जी ह्म सब से अत्याधिक स्नेह करते हैं.




महाराज जी ने मेरी अनेकों भक्ति रचनाओं में से एक को अधिक सराहा था वह आपको 


सुना रहा हूँ.  इस भजन की रचना के समय मेरे कान  में उनका यह कथन गूँज रहा था " 



"प्रभु के साथ कोई प्यार का सम्बन्ध जोड़ो तभी उनका अखंड सिमरन होग़ा"  



"प्रेम भक्ति योग" की भावना से ओतप्रोत मेरी वह  रचना है.:



तुझसे हमने दिल है लगाया जो कुछ है सो तू ही है



हर दिल में तूही है समाया    जो कुछ है सो तू ही है

रविवार, 22 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPISOOR ( Aug.22,'10)


हनुमत कृपा- निज अनुभव 
गतांक से आगे 

आप देख रहे हैं "उनकी" कलाकारी ,निज स्वभावानुसार "उन्होंने" प्रेरणा प्रवाह में फिर एक मोड़ ला दिया.अच्छा खासा होस्पिटल का प्रसंग चल रहा था "उन्होंने"महाराज जी की मधुर स्मृति का तड़का लगा कर मेरी अनुभव गाथा को और अधिक स्वादिष्ट बना दिया. हाँ,मेरी कथा अवश्य ही ४-५ वर्ष पीछे २००४-०५ तक सरक गयी पर बन गयी पहले से भी कहीं अधिक सरस

२००१ से ही धीरे धीरे भारत छूट रहा था.ह्मारे ३ बच्चे अमेरिका में थे दो भारत में..मेजोरिटी यहाँ यू.एस.वालों की थी उनकी मांग स्वीकार करनी पड़ी इन्होने पीछे पड़ कर ग्रीन कार्ड भी बड़ी आसानी से बनवा दिया.हमारा ६ महीने भारत और ६ महीने यू.एस का सिलसिला चल गया.

२००४  में एक ऎसी ही भारत यात्रा से लौटते समय,महाराज जी के दर्शनार्थ विशेष समय मांग कर श्री राम शरणं लाजपतनगर गया. जैसा अनुभव संभवतः सब प्रेमियों को होता है ,मुझे भी हुआ , 
               
          "उनके  दर्शन  से  मेरे    हाथ पाँव    फूल गये ,
            न सुना कुछ भी जू कहना था वो भी भूल गये
जुबां की बेवफाई कैसे भला मुआफ करूं,
बेरहम हिली न ,ह्म ज़िक्रे वफा भूल गये. 
                     न कहा कुछ भी सुना भी नहीं दीवाने ने 
                     रह गया देखता, कांटे भी गये  फूल गये 
"भक्ति" वो शय है जो आयेगी उनके हिस्से ही ,
"प्यार" की  खोज  में जो  बन्दगी  भी भूल  गये.


गुरुदेव श्री विश्वामित्र जी महाराज के साथ उस मूक मिलन  के बाद जब ह्म वापस जाने के लिए उठे ,श्री  महराज जी मुझे छोड़ने के लिए श्रीराम शरणम् के गेट तक आये, गाड़ी दूर खड़ी थी इसलिए उन्होंने वाच मेंन को स्वयम आदेश देकर गाड़ी मंगवायी और मुझे गाड़ी पर सवार होने से पहले मेरा हाथ पकड़ कर धीरे से कहा "श्रीवास्तव जी सेहत का ख्याल रखियेगा"


विचारणीय है क़ी उन दिनों मैं बिलकुल स्वस्थ था.लेकिन यू.एस.पहुँचते ही 
दो माह में मुझे जीवन का पहला हार्ट अटैक हो गया. महाराज जी ने इसी की पूर्व सूचना मुझे श्री रामशरणं में दी थी.,गुरुजन कितना सोचते हैं प्रिय साधकों के विषय में. ह्म आप नहीं आँक सकते  ---------क्रमशः 


निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला".


शनिवार, 21 अगस्त 2010

JAI JAI JAI KAPI SOOR (21/8/10)


हनुमत  कृपा - निज अनुभव
गतांक से आगे.

अनुभवी चिंतकों का कहना है क़ी किसी भी कार्य की सफलता में, ईश्वरीय-कृपा का योगदान उसके कर्ता के पुरुषार्थ से कहीं अधिक होता है. अपने अनुभव के आधार पर मेरा दृढ़ विश्वास है क़ी मेरी समस्त सफलताओं का मूल कारण केवल "उनकी कृपा" है. भाई  मैं यह भलीभांति जनता हूँ क़ी कार्य करने की क्षमता भी तो हमे  "उनकी" कृपा से ही मिलती   है और "उनकी" कृपा  प्राप्ति का एकमात्र साधन है, "उनसे" हार्दिक प्रार्थना करना

होस्पिटल में मेरे ऊपर "उनकी " कृपा पल पल  हो रही थी.पहले दिन से आखरी दिन तक, मुझे मिला स्नेह पूर्ण उपचार ,पांच सितारे की एयर कन्डीशन युक्त सुख सुविधा ,चौबीसों घंटे की एक्सपर्ट नर्सिंग सर्विस तथा कठोर अनुशासन प्रिय हार्वर्ड स्कूल के स्नातक प्रमुख विशेषज्ञ डोक्टर  दीपक तलवार की अति विशिष्ट सेवाएं.

प्रियजन ये सब सांसारिक सुख तो मेरी इस माटी क़ी काया को.उस हॉस्पिटल में मिले पर जो परमानंद मेरी आत्मा को ,उन २५-३० दिनों में वहाँ प्राप्त हुआ उल्लेखनीय तो है पर शब्दों में उसे बयान कर पाना मेरे लिए कठिन लग रहा है. अपनी सुप्तावस्था में देखे चलचित्र के वे अंश ही मैं बता पाउँगा जो जागने के बाद भी  मेरे मानस पटल से लोप नहीं हुए थे. हाल में धर्म पत्नी कृष्णाजी ने वैसी ही एक घटना की याद मुझे अभी दिलायी.  

होस्पिटल में एक प्रातः मैंने उन्हें बताया था -"मैं अभी सीधे हरिद्वार के साधना सत्संग से लौट कर आया हूँ, वहाँ नित्य   मुझे महाराज जी के अति निकट बैठने का सौभाग्य मिलता था.  एक दिन ऐसा  हुआ , मैं नत मस्तक हो उन्हें  प्रणाम कर रहा था तब महाराजजी ने बहुत स्नेह से मेरे मस्तक का स्पर्श किया .उस स्पर्श मात्र ने मेरे मन को परमानन्द से भर दिया और मैं महाराज जी के श्री चरणों पर अपना सिर  रख कर बिलख बिलख कर काफी देर तक रोता रहा.जब सिर  उठाया ,महाराज जी ने रूमाल से अपने चरणों पर गिरे मेरे अश्रु बूंदों को पोंछ कर वह  रूमाल  मुझे दे दिया". कृष्णा जी को यह कथा सुनाते  समय भी मैं गद गद हो गया था ,मेरे नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये थे और मैं आंतरिक आनंद से .पूर्णतः रोमांचित हो रहा था..

महराज जी का यह स्वप्नदर्शन मेरी किसी प्रार्थना के फलस्वरूप तो नहीं हुआ होगा. मैं अचानक ही ऐसा लायक कैसे हो गया जो  महाराज जी का इतना सारा स्नेह मुझे एकबारगी मिल गया..अवश्य ही मुझे यह उपलब्धि मेरे परम स्नेही गुरुजनों के आशीर्वाद और परम प्रिय स्वजनों की दुआओं और प्रार्थनाओं  के कारण ही हुई  होगी 


अभी अभी मेरा उपरोक्त संदेश पढ़ कर कृष्णा जी ने मुझे फिर याद दिलाया क़ी उसी सायं काल हमे  इंटेंसिव केअर यूनिट के एकांत से छुट्टी मिली और मुझे एक प्राइवेट केबिन में रखा गया.जहाँ कृष्ण जी एक अतिरिक्त हेल्प के साथ ह्मारे पास वहीं होस्पिटल में रह सकतीं थीं  क्या यह मुझे ,पिछली रात प्राप्त ,श्री महाराज जी के दिव्य स्वप्न दर्शन के फलस्वरूप  प्राप्त  हुआ.? आप ही निर्णय करें बड़ी कृपा होगी. 


हाँ एक और आश्चर्य जनक बात हुई .मैं यह संदेश लिख रहा था क़ी सिंगापुर से परम प्रिय अनिल का फोन आया. उन्होंने बताया क़ी पिछले सप्ताह श्री महाराज जी सिंगापूर आये थे और वह अति स्नेह से हमे याद कर रहे थे. इए पर मुझे याद आया क़ी एक बार भारत यात्रा में मैंने महाराज जी से कहा था क़ी पत्र लिख कर मैं उनका अनमोल समय नष्ट नहींकरना चाहता  लेकिन मैं कहीं भी हूँ ,एक पल को भी उन्हें भूल नहीं पाता और मुझे उनका दिव्य दर्शन दूर विदेश में भी हर घड़ी होता रहता है  उत्तर में महाराज जी ने हंस कर कहा था ."प्रेम एक तरफा नहीं होता श्रीवास्तव जी "  मैं धन्य हो गया था.......क्रमशः .


निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव  "भोला"
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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

jJAI JAI JAI KAPI SOOR (20/8/'10)






हनमत कृपा- निज अनुभव 
गतांक से आगे.  




कहते  हैं क़ी असाध्य से असाध्य रोगों के इलाज में अक्सर "दवा" से कहीं ज्यादा कारगर होती है "दुआ". प्रियजन,कुछ फर्क नहीं पड़ता ,इस बात से क़ी वह दुआ कौन कर रहा है .दुआ करने वाला चाहे कोई विश्व विजयी शहेंशाह हो अथवा  शेरशाह सूरी मार्ग की पटरी पर बनी झोपड़ी में मरणासन्न पड़े अपने एकलौते बच्चे के लिए दुआ कर रहा पत्थर तोड़ने वाला एक निरधन मजदूर.,इतिहास गवाह है क़ी उस पाक परवर दिगार ने किसी को भी अपने दर से खाली  हाथ नहीं लौटाया है.        

आपकी दुआ कबूल करने के लिए ,उस औघड़ दानी भगवान की कुछ शर्तें हैं.पहली यह क़ी आपकी "दुआ" ,विशुद्ध "प्यार" से लबरेज़ भरे पैमाने से छलकी ,एक सच्चे-साफ=सुधरे हृदय की पुकार होनी चाहिए. आप किसी को कष्ट देने के लिए नहीं बल्कि किसी के कष्ट निवारण के लिए दुआ कर रहे हों.आप  जीवन में "परम सत्य "का पालन करते हों.और आपको उस परम कृपालु "प्रभु" की अहेतुकी कृपा पर अटूट "विश्वास" हो. अगर ऐसा है, तो आपकी दुआ ज़रूर कबूल होगी. असाध्य से असाध्य रोगों के निवारण के लिए ऎसी दुआ "राम-बाण" सदृश्य अचूक सिद्ध होगी.


आप मुझे ही देख लीजिये.मेरे लिए भारत के डाक्टरों ने,शुरू में ही हाथ धो लिए थे पर यू.एस. से पिछली ३-४ वर्ष की मेडिकल हिस्ट्री देखने और वहाँ      डाक्टर कंसल्ट करने के बाद उनका आत्म विश्वास जागा,और उन्होंने सच्ची लगन से इलाज चालू किया.कामयाब भी हुए लेकिन उस कामयाबी में दुआओं का कितना हाथ है वह मैं धीरे धीरे बताउंगा. अभी इस पल के अपने उदगार पेश कर रहा हूँ .

ह्म जी रहे  हैं  क्यूंकि  जिलाया  है आपने 
भर भर के "जामे प्यार" पिलाया है आपने 

जब काम न आये कोई औषधि कोई दुआ,
तब "प्यार" को"उपचार" बताया है आपने.

क्या किस्को और चाहिए जब आप मिल गये,
हर व्यक्ति में "श्री  राम"  दिखाया   है आपने  




सब प्यार करें सबको "तुम्हारा" स्वरूप मान
हरजन  को  ही  भगवान  बनाया   है  आपने 
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प्रियजन,उपरोक्त तुकबंदी में "आपने"शब्द का प्रयोग उस सर्व व्याप्त ब्रह्म के लिए किया गया है,जिसमे ह्म-आप और सारी मानवता ,सारा "राम परिवार" सम्मिलित है..
क्रमशः 
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव."भोला"

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

jJAI JAI JAI KAPI SOOR (19/8/'10)



हनुमत कृपा-निज अनुभव 


गतांक से आगे  


डॉक्टरों के नजरिये मेरा रोग असाध्य था. विशेषतह  इसलिए क़ी अनेकों टेस्ट करवाने के बाद भी वह यह नहीं समझ पा रहे थे क़ी वे , मेरे शरीर के  किस अवयव के रोग का इलाज करें,हृदय का,फेफड़ों का, किडनी का, लीवर का ,शरीर में जल भराव का,या यूरिनारी इन्फेक्शन का,.उन्हें लक्ष्ण सारे रोगों के नजर आते थे पर पूरी तरह कन्फर्म कोई नहीं होता था. अस्तु मेरा होस्पिटल के क्रिटिकल केअर यूनिट में एक साथ ही सभी रोगों का इलाज चालू हो गया.


सी.सी.यू में परिवार वाले दिवस में केवल एक बार ही मिल सकते थे. पर प्रश्न यह है क़ी वे मिलते किससे?  मैं तो उस यूनिट के एकांत में मदहोश पड़ा ,पूर्णतः चिंतामुक्त हो,इस संसार से परे ,भगवान की किसी अन्य सुंदर श्रृष्टि में आनंद सहित विचरण करता रहता था. परिजन  मुझे सुप्त मान  कर दूर से आनंदमग्न मेरा शरीर देख कर लौट जाते रहे होंगे. 


कितने दिन ऐसे बीते मैं नहीं बता पाउँगा और धर्मपत्नी या बटियों बेटे जो दिनरात मेरे आस पास रहते थे ,उनसे ही इस विषय में कुछ पूछने का साहस कर पाउँगा.बात ये है क़ी उन विषम दिनों की याद दिला कर मैं उन्हें दुख़ी नहीं करना चाहता हूँ. प्रियजन  वैसे ही , मुझे जितना कुछ याद आता जाएगा,मैं आपको सुनाता जाऊंगा.


एक दिवस,जब अपनी हस्पताली तन्द्रा से जागा,कुछ शब्द मेरे जहन में गूँज रहे थे. मैंने धर्मपत्नी से डायरी मंगवायी और सुप्तावस्था में मन में उठे उद्गारों को उसमे उतार लिया. वे शब्द मैं आपको अभी बता देता हूँ.आप समझदार  हैं जान जायेंगे मेरी तत्कालीन मनः स्थिति  .मैं पूरी रचना तो नहीं केवल कुछ पंक्तियाँ  ही यहाँ दे रहा हूँ. 


  रोम रोम में राम बिराजें धनुष बान ले हाथ 
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मुझको भला कष्ट हो कैसे ,क्यूँ कर पीर सतावे
साहस  कैसे करें दुष्ट जन मुझ  पर हाथ उठावे. 
    अंगसंग जब मेरे हैं मारुती नंदन के नाथ 
 रोम  रोम में राम बिराजें , धनुष बान ले हाथ 
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क्रमशः 


निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"



बुधवार, 18 अगस्त 2010

JAI JAI KAPISOOR (18/8/10)


हनुमत कृपा -निज अनुभव 

गतांक से आगे 

प्रियजन आप दुख़ी हो रहे होंगे मेरी आरजा  की दासतां सुन कर आप यह भी सोच रहे होंगे क़ी  "हनुमत कृपा के निज अनुभव" सुनाने के बजाय यह .सरफिरा इंसान क्यों अपने दुखड़े रोने बैठ गया  है.आपकी नाराजगी बिलकुल जायज़ है.माफ़ी का तलबगार हूँ. लेकिन मेरे प्यारे स्वजनों ज़रा मेरी मजबूरी समझो ,जरा सोंच कर देखो क़ी यह जो कुछ लिखा जा  रहा है, क्या ये मैं ही लिख रहा हूँ ? क्या ये सब मेरी ही सोच है.?

"हाथों में हथकड़ी है पैरों में बेड़ियाँ ,
औ जीश्त क़ी सब गुत्थियां ह्म खोल रहे हैं.

"प्यारे स्वजन ये  इश्क का कौतुक सराहिये,
 ह्म जी रहे हैं  मस्तियों में डोळ रहे हैं".

 "है कलम उँगलियों में,सियाही दवात में,  ,
  मैं लिख रहा हूं वही जो "वह" बोल रहे हैं"

चलिए अब अपनी ग़ुरबत की कहानी सुना कर आपको दुख़ी नहीं करूंगा .सच तो यह है क़ी मैं उन १५-२० दिनों की जो भी बात बताऊंगा ,मेरी आप बीती तो होगी लेकिन होगी मेरी 
सुनी सुनाई .आप जानते ही हैं क़ी उन दिनों मेरे साथ जो भी गुजरी उसकी ज़रा  सी भी  
याद मुझे नहीं है. मैं तो अब तक यह भी नहीं जानता क़ी तब मैं कोमा में था ,या मुझे  सिडेत किया गया था. जो भी हो मैं उनदिनों .बिलकुल बेहोश था.

कभी कभी. जो पल दो पल को आंख खुलती थी और कानो में एकाध वाक्य पड़ जाते थे थोड़ी बहुत उनकी याद अभी भी कभी कभी अवश्य आ जाती है.

एक दिन कानो में अपनी प्यारी गुडिया नंदिनी की आवाज़ पड़ी. "दादी मैं जगाउंगी नहीं मैं 
तो बाबा को सुला रही हूँ,दादी फूंक कर मैं उनका दर्द भी कम कर रही हूँ". तुरत मुझे फ्लेश बेक हुआ, जब गुडिया २-३ वर्ष की थी ,कहीं गिर गयी,थोड़ी चोट आयी,रोयी,मैं पास में ही था ,उसे गोद में उठा कर मैंने चोट  के  स्थान पर फूंका और आँख बंद कर के अपने इष्ट को याद किया, प्रभु कृपा से उसकी पीड़ा घट गयी. प्रियजन मेंरे इस कृत्य में  नाटक अधिक वास्तविकता कम  थी.पर मेरी गुडिया पर इसका जो प्रभाव पड़ा वह,आज प्रत्यक्ष नजर आ रहा था. हां उस दिन, उसकी मीठी मीठी बातें सुनते सुनते मैं  पुनः अपनी तन्द्रा में प्रवेश कर गया..गुडिया का जो अंतिम वाक्य मैंने उस दिन सुना वह था,"देखा दादी, बाबा मुस्कुराते मुस्कुराते  सो भी गये., दादी मैंने ये ट्रिक बाबा से ही सीखी थी"

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"