रविवार, 31 अक्तूबर 2010

jAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 6

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव

प्रियजन ! पिताश्री के जीवन पथ का अंधकार दूर कर उसे जगमगा देने वाले वह प्रकाश पुँज स्वरूप बाबाजी उन्हें अनायास ही आजमगढ़ कचहरी के कुँए पर मिले और अपना कार्य सम्पन्न करके जैसे प्रगट हुए वैसे ही अंतर्ध्यान भी हो गये ! लेकिन उन्होंने जो भी   भविष्यवाणी की वह अक्षरशः सच निकली ! 

भडभूजे ने जिस कागज की पुड़िया में प्रसाद के लिए गुड़ चना दिया उसी में वह इश्तहार छपा था जो पिताश्री के भाग्योदय का प्रथम प्रवेश द्वार सिद्ध हुआ ! बाबाजी कैसे जानते थे क़ि अपनी हड़बडाहट  घबड़ाहट में पिताश्री वह इश्तहार देखते हुए भी उतनी  बारीकी से नहीं पढ़ पाएंगे जितनी गंभीरता से उसे बड़े पिताश्री पढ़ेंगे ! 

कौन थे वह अजनबी ? बड़े पिताश्री तो उन्हें तभी पहचान गये थे पर तब नयी उम्र के मेरे पिताश्री इतनी जल्दी यह मानने को तैयार नहीं थे ! लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया और एक एक कर करके उन अजनबी बाबाजी की कही हुई बातें सच होती गयी ,उन्हें भी विश्वास हो गया क़ि वह आगंतुक कोई अन्य नहीं ह्मारे कुलदेवता श्री हनुमान जी ही थे !

और हाँ जब उस घटना के लगभग २०-२५ वर्ष बाद मेरे बालपन में पिताश्री ने स्वयं अपना यह अनुभव सुनाया तब शुरू में हमे भी इस बात पर विश्वास करना कठिन लगता था !लेकिन जैसे जैसे मैंने होश सम्हाला ,बड़ा हुआ,मुझे भी इस का विश्वास हो गया क़ि वह देवदूत जो उसदिन  ह्मारे पिताश्री के समक्ष अवतरित होकर उनका मार्ग दर्शन कर गया वह अवश्य ही "परम" का कोई विशेष अंश रहा होग़ा ! मेरे प्रिय पाठकगण ! उसी परम की कृपा से मुझे अपने जीवन के प्रारंभ में ही यह सुबुद्धि मिल गयी और अति सहजता से यह रहस्य समझ में आगया था !

आप सब भी अपने अपने इष्ट में अटल विश्वास रखें ,अपना धर्म समझ कर अपने कर्म 
करते रहें ! आपके इष्ट अवश्य ही आपको अनुग्राहित करेंगे !

प्रियजन ! वयस जनित (उम्र की वजह से ) अस्वस्थता के कारण हो सकता है किसी दिन मै अपना संदेश प्रेषित न कर पाऊँ ,पर विश्वास दिलाता हूँ क़ि राम का यह काम जो हमने 
नवजीवन पाने के बाद उनके ही आशीर्वाद और प्रेरणा से प्रारंभ किया है ,करता रहूँगा ,जब तक "वह"हमे विवेक बुद्धि और समुचित शक्ति देते रहेंगे .

उनके एहसान की लम्बी ये दास्ताँ आइये ह्म सभी गुनगुनाते रहें    
खतम होगी नहीं जब तलक सांस है आप सुनते रहें ह्म सुनाते रहें 

राम राम 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"           
दिनांक ३०/३१ अक्टूबर २०१० (मध्य रात्रि USA East time)

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 5

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 

उस जमाने की रीति रिवाज़ के अनुसार ,पढ़ लिखकर घर के लड़के कमाई करने के लिए बड़े शहरों में जाते थे लेकिन उनके परिवार बाल बच्चों के साथ गाँव के खानदानी -पुश्तैनी घरों में ही रहते थे ! इसी नियम के अनुसार बड़े पिताश्री भी आजमगढ़ में अकेले ही रहते थे ! उनका घर एक सुव्यवस्थित "अविवाहितों का डेरा " था जहाँ खाने पीने की,खेलने कूदने की और पूजा पाठ की सभी सुविधाएँ मौजूद थीं ! सरकार की ओर से उन्हें घर के कामकाज के लिए दो दो अर्दली मिले थे जो चौबीसों घंटे उनकी सेवा में रत रहते थे!

उनकी कोठी में बैठक के बांये हाथ वाला कमरा उनका दफ्तर था और दायें हाथ वाला उनका छोटा सा मंदिर !अकेले ही थे इसलिए कोर्ट के बाद ,उनका अधिकतर समय इस मन्दिर में ही कटता था ! श्री हनुमान चालीसा का पाठ तो सुबह शाम बिन नागा होता ही था नित्य प्रातः कोर्ट जाने से पहले वह वहाँ श्रीमदभगवदगीता का पाठ करते थे और सायं काल में वह तुलसीदास जी के रामचरितमानस के कुछ अंश अवश्य पढ़ते थे! जिस दिन उन्हें किसी जटिल मुकद्दमें का निर्णय सुनाना होता था ,वह बहुत सबेरे से ही मन्दिर में ध्यानस्थ हो चिन्तन करने लगते थे !यह सब ह्मारे पिताश्री ने हमे अपने अनुभव  सुनाते समय बताया था ! लेकिन ====

प्रियजन मैंने उपरोक्त विवरण इतने विस्तार से इसलिए दिया है क्योंकि मैंने स्वयं बड़े पिताश्री की ऎसी रहनी को अपनी आँखों से १९३७ से १९३९ तक देखा  है ! उन दिनों वह कानपुर के District & Session Judge के पद पर कार्यरत थे! कानपुर आते ही उन्होंने बड़े प्यार से पिताश्री को अपने साथ ही ,गंगातट पर स्थित  सरकारी , 57 Cantonment वाली विशाल कोठी में रहने को मजबूर किया था  ! मैं तब ८ -९ वर्ष का ही था पर उन दो ढाई वर्षों में मैने जो देखा सुना और महसूस किया वह सब मुझे अभी तक बहुत अच्छी तरह याद है! बड़े पिताश्री के अनुकरणीय रहनी से ह्म लोगों को बचपन में ही बहुत कुछ सीखने को मिला ! 

चलिए "पिताश्री के अनुभव" कथा को आगे बढायें !कोठी के मन्दिर में दोनों भाइयों ने बड़ी श्रद्धा के साथ अपने इष्ट देव श्री हनुमानजी की वन्दना की और उनकी महती कृपा के लिए  
उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये !हनुमानजी क़ी कृपा से पिताश्री के जीवन का अंधकार उसी शाम से आशा की ज्योतिर्मय किरणों से जगमगाने लगा  !

क्रमशः 
निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"


गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 4

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 

बड़े पिताश्री ने वह विज्ञापन कई बार पढ़ा ! लखनऊ से निकलने वाले अंग्रेज़ी अखबार में वह इश्तहार यू . पी .सरकार के उद्योग विभाग के Technical Education Department ने छपवाया था ! गौर से उसे पढ़ कर जब वह आश्वस्त हो गये क़ि वह वास्तव में एक सरकारी विज्ञापन ही था ,उन्होंने वह कागज़ पिताश्री की ओर बढ़ाते हुए कहा "बद्रीजी तुम सचमुच बड़े "लकी" हो !लगता है तुमने वह  पा लिया है जो वर्षों की साधना के बाद अब तक भी  हमें नहीं  मिला है !"

अपने बड़ेभैया की बात सुन कर वह हक्के बक्के रह गये !उनकी समझ में नहीं आरहा था   क़ि कैसे बड़े भैया , परीक्षा में फेल हुए छोटे भाई को "लकी" कह रहे थे ?  वो प्रसाद वाला अखबारी  कागज़ पिताश्री ने कुँए पर ही पढ़ लिया था और उनकी समझ में उसमे कोई ऎसी विशेष बात नहीं थी जो  एक परीक्षा फेल आम व्यक्ति को अनायास ही एक विशेष  असाधारणता का जामा पहना दे!


पिताश्री को परेशान देख कर उनके बड़े भैया ने पुनः कहा " बद्रीजी तुम धन्य हो ! अब तो मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं है क़ि तुम्हें कुँए पर जो मिले थे वह वास्तव में हम लोगों के कुलदेवता श्री महाबीर जी ही थे!सोंच के देखो उन्होंने तुम्हारे भूत और वर्तमान की जो गोपनीय बातें बतायीं वह कितनी सच थीं !सबसे बड़ी बात यह क़ि उन्होंने तुम्हे एक तरह से धक्का दे कर मेरे पास यह विशेष आदेश दे कर भेजा क़ि तुम मुझे वह कागज़ किसी तरह से भी जरूर पढ़वा दो !" 


जरा गौर से देखो इस अख़बार में एक ऐसा "ऐड" है जो मुझे लगता है U.P Government ने सिर्फ तुम्हारे लिए ही निकाला है ! बद्रीजी, I think this Ad.is meant for you and you only as I know तुम्हे इंग्लिश और साइंस के विषयों में हमेशा ही बहुत अच्छे marks मिले हैं ! इस नये टेक्निकल कोर्स में जाने के लिए बस यही अनिवार्य है क़ि विद्यार्थी मेट्रिक तक पढ़ा हो और उसने अंग्रेज़ी और साइंस के विषयों में Distinction or good First क्लास marks पाए हों ! तुम्हारे पास तुम्हारी पिछली मार्क शीट्स तो होंगी ही !So pack up and go to Cawnpore tomorrow.कितनी कृपा है अपने कुल देवता की तुम पर !,वे स्वयं  तुम्हारे समक्ष  प्रगट हुए और सारा बन्दोबस्त किया ! अब तो यह जान लो क़ि तुम्हारा एडमिशन हो ही गया  ! बद्रीजी , मुंह हाथ धो कर अपने मन्दिर में आजाओ ,ह्म दोनों मिल कर प्यारे प्रभु को उनकी इस विशेष कृपा के लिए धन्यवाद देंगे "


क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 3


हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 
उन बाबाजी के अदृश्य हो जाने के बाद ह्मारे पिताश्री अति दुख़ी मन से उस दिन भर के सारे घटनाक्रम पर पुनर्विचार करते हुए अनमने से खोये खोये अपने बड़े भैया स्थानीय सबजज साहेब की कोठी की ओर चल पड़े ! पिताश्री के ये भैया मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान   श्री राम के उपासक थे , और उस जमाने की अंग्रेज़ी हुकूमत में भी  स्वधर्म की मर्यादाओं को वह अपनी निजी रहनी में तथा अपने इजलास और कोर्ट कचहरी की कार्यवाहियों में  भंग नहीं होने देते थे ! उनका इजलास  ही उनका मन्दिर था और उनके लिए  उनका कर्म ही उनका धर्म था ! वह स्वभाव से अति सौम्य थे , उनकी वाणी क्रोधावेश में भी मधुर ही बनी रहती थी ! न्यायाधीश थे अस्तु घर हो या कचहरी वह अपने सभी निर्णय पूरी तरह नाप जोख कर , समझ बूझ कर देते थे ![अब मैं पिताश्री के जज भैया को बड़े पिताश्री कह कर संबोधित करूँगा]

हाँ तो , हनुमान जी का प्रसाद और अपने फेल होने के निराशाजनक समाचार के साथ , मेरे पिताश्री अपने जज भैया की कोठी में दाखिल हुए! दूर से ही उन्हें आता देख कर बड़े पिताश्री ने उनसे पूछा "कहां रह गये इतनी देर तक ?" उत्तर में बिना कुछ बोले  पिताश्री ने हनुमान जी के प्रसाद की  पुडिया उनकी ओर बढ़ा दी ! श्री राम के परम भक्त बड़े पिताश्री के लिए राम दूत श्री हनुमान जी के प्रसाद के समान मधुर और कोई उपहार हो ही नहीं सकता था ! पुड़िया को माथे से लगा कर उन्होंने प्रसाद के सिन्दूर की बिंदी लगाई और गुड़ चने का प्रसाद अति श्रद्धा सहित ग्रहण किया ! बड़े पिताश्री के हाव भाव से ऐसा लग रहा था क़ि जैसे वह कहीं और से पिताश्री का रिजल्ट जान गये थे और वह उनसे नतीजे की पूछ ताछ कर उनको एम्बेरेस नहीं करना चाहते थे !देखा आपने ह्मारे बड़े पिताश्री कितने व्यवहार कुशल थे!

जो हो ,बड़े पिताश्री ने बात आगे बढाते हुए पूछा "फिर अब आगे क्या करने का विचार है?" पिताश्री ने मौका देख कर प्रसाद की पुड़िया के अखबारी कागज़ को दिखाते हुए बड़े पिताश्री से अपनी उस अनजान व्यक्ति से भेंट की पूरी कहानी सुना दी और अंत में ये भी बताया कि उन महापुरुष ने वह अखबार बड़े पिताश्री को पढ़ाने की बात पर कितना जोर दिया था!

बड़े पिताश्री ने अखबार के उस टुकड़े को  पूरा फैला कर उस में छपा एक एक विज्ञापन ठीक से पढ़ा ! एक विशेष विज्ञापन पर उनकी दृष्टि जम के रह गयी ! विलायत के इम्पीरिअल कोलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी के पाठ्यक्रम के आधार पर भारत की टेक्सटाइल मिलों में अंग्रेज अफसरों की जगह ऊंचे पद पर भारतीयों को ही लगाने के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक टेक्निकल स्कूल उसी वर्ष से चालू हो रहा था !

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 2

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 

प्रियजन ! आज मेरा यह शरीर ८१ सर्दियां ,गर्मियां और बरसातें झेल चुका है और इस अवधि में बेचारा विभिन्न कारणों से यहाँ वहाँ ,विश्व के अनेकों देशों में फिरता रहा है ! इस भटकन से यह लाभ हुआ क़ि मुझे इस असार संसार को थोड़ा बहुत समझ पाने का अवसर मिल गया! अब आप जरा सोचें आज से सौ सवा सौ वर्ष पहले ,बलिया जैसे पिछड़े जनपद के उस होनहार बालक ( ह्मारे १७-१८ वर्षीय पिताश्री ) जिसने बलिया गाजीपुर सुरेमनपुर पटना के अतिरिक्त और कोई जगह देखी ही न थी ,जो स्कूली पढायी के आलावा और कुछ जानता ही न था ,उसकी मनःस्थिति वैसी विषम परिस्थिति में कितनी अस्थिर रही होगी!  

हाँ ,जब पिताश्री ने आँखें खोलीं,वह अनजाने, अनदेखे आगंतुक वहाँ से जा चुके थे ! पर     उनके प्रति पिताश्री के मन में धीरे धीरे एक विशेष श्रद्धा सुमन अंकुरित हो गया था ! आगंतुक के प्रेरणाजनक संभाषण ने पिताश्री को निर्भय होकर आगे बढते रहने  को प्रोत्साहित किया था ! उनके जाते ही पिताश्री  पुनः अपने भविष्य के गहन अंधकारमय खोह में प्रवेश कर गये पर उनके कानों में बाबाजी का वह अंतिम वाक्य "पीछे मुड़ कर मत देखो,आगे बढ़ो " देव मन्दिर के घंटे घड़ियालों के समान बड़ी देर तक गूंजता रहा !

प्रियजन ! मेरे जीवन में भी कुछ कुछ ऎसी स्थिति आयी थी ! मैं भी लगभग १९ वर्ष का था जब मैं अपनी फाइनल ग्रेजूएशन परिक्षा में एक ऐसे विषय में फेल हुआ जिसमे तब तक के मेरे विश्वविद्यालय के इतिहास में कभी कोई फेल हुआ ही नहीं था !मैं अति दुख़ी था !मेरे सहपाठी और  शिक्षक सभी आश्चर्यचकित थे ! डरते डरते मैंने पिताश्री को अपना नतीजा बताया! बजाय क्रोधित होने के पिताश्री ने मुझे  स्वयं अपने फेल होने की और आजमगढ़ में उन बाबाजी से मिलने की पूरी कहानी सुनाई जिसको मैं आप लोगों को सुना  रहा था !आपको याद होग़ा ,अंतर्ध्यान होने से पहिले उन बाबाजी ने पिताश्री से  कहा  था "tआगे बढो पीछे मुड कर मत देखो" !

पिताश्री ने मुझे भी वही बाबाजी वाला संदेश दिया ! मुझे याद है उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए कहा था ,"गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में " बेटा जो घोड़े पर चढ़ेगा ही नहीं ,वह कैसे आगे बढ़ पाएगा ?  मुझे और प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा , हार मान कर निष्क्रिय न हो जाओ अपनी कोशिश करते रहो "और फिर वह गुनगुनाये थे 

बढ़ते रहे तो पंहुंच  ह़ी जाओगे दोस्तों 
जो रुक गये तो हार ही पाओगे दोस्तों,

पिताश्री ने ३०-४० वर्ष पूर्व उन बाबाजी के जिन शब्दों से प्रोत्साहित होकर अपना जीवन संवारा था उन्ही शब्दों से उन्होंने मेरा मार्ग दर्शन किया ! उन्होंने मुझे यह विश्वास दिला दिया क़ि जो हुआ वह मेरे हित के लिए ही हुआ है ,प्रियजन वास्तव में ऐसा हुआ भी था !
मेरा वह फेल होना सचमुच ही मेरे लिए अत्यंत भाग्यशाली सिद्ध हुआ ,क्यों और कैसे? वह पूरी कथा मैं अपने हनुमत कृपा के निज अनुभवों की गाथा में भविष्य में लिखूँगा अभी केवल यह कहूँगा क़ि विश्वविद्यालय के निकट वाले मंदिर के संकटमोचन हनुमान जी ने मेरी प्रार्थना सुन कर ,मुझ पर अतिशय कृपा की जो मैं उस वर्ष फेल हो गया! हाँ यह बिल्कुल सच है !

उधर पिताश्री की शताब्दी पूर्व की कथा में ,उन बाबाजी के जाने के बाद क्या हुआ !सुनिए 
प्रसाद की पुड़िया खोल कर पिताश्री ने उस अखबार के टुकड़े को देखा ,उसमे इश्तहारों के सिवाय और कुछ भी नहीं था ! क्या कुछ और चमत्कार दिखाने वाले हैं बाबाजी ?सोचते हुए पिताश्री जज भैया की कोठी की ओर चल पड़े !

क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 1

हनुमत  कृपा  
पिताश्री के अनुभव

पिताश्री के जीवन के गहन अंधकार को श्रीमदभगवत गीता के ज्योतिर्मय राजमार्ग पर लाकर उन साधारण से दिखने वाले बाबाजी ने बातों ही बातों में पिताश्री को ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्ति योग के व्यावहारिक परिवेश से परिचित करा कर ,एक प्रकार से पिताश्री को जैसे महाभारत के कुरुक्षेत्र मे ही उतार दिया ! वह कह रहे थे " आज फेल हुए तो क्या हुआ ? बद्रीजी अभी केवल एक दरवाज़ा ही बंद हुआ है ,जीवन के रंगमंच के अनेक दरवाजे हैं और अनगिनत खिड़कियाँ हैं ,तुम्हारे लिए कोई न कोई अन्य खिडकी किवाड़ी भगवान जी ने जरुर खुली छोड़ दी होगी ! ऐसे अकर्मण्य हो कर बैठ जाओगे तो क्या पाओगे,खाली हाथ मलते ,पड़े रह जाओगे !"

पिताश्री अरजुन की भांति एकाग्र चित्त हो सुन रहे थे और वह बाबाजी योगेश्वर श्री कृष्ण के समान धारा प्रवाह बोले जा रहे थे ! "कर्तापन और कर्मफल की आसक्ति त्याग कर कर्म करने चाहिए ! परम सत्य को जानते हुए पूरी क्षमता सामर्थ्य और विवेक बुद्धि के साथ समर्पण भाव, समभाव ,शुभभाव एवं निष्काम भाव से किया हुआ कर्म ,करने वाले को  कर्मयोग एवं धर्मयोग दोनों के लाभ एक साथ ही दिला देते हैं !गुरु कृपा से साधक  को ,परमसत्य स्वरूप परमेश्वर का ज्ञान होता है !इस योग से परमेश्वर को जानकर, उनकी श्रुष्टि के संवर्धन व उन्नयन के लिए धर्ममय कर्म करना और इन सभी कर्मों के फल दृढ़ विश्वास के साथ परमेश्वर को समर्पित करना ही सर्वोच्च धर्म है !अपना धर्म निभावो बद्रीजी ! आगे बढ़ो ,पीछे मुड के मत देखो ,आगे बढ़ो ,घर जाओ ,जज भैया को प्रसाद खिलाकर , प्रसाद की  पुड़िया के कागज़ में जो छपा है उन्हें जरूर पढ़ा देना !,तुम्हारा काम बन जायेगा ,देर मत करो ,जाओ जल्दी जाओ !"

इतना कह कर बाबा जी उठ कर चलने को हुए ! तबतक पिताश्री बाबाजी की बातों से बहुत प्रभावित हो चुके थे ! बाबाजीकी  के रूप में उन्हें कभी अपने इष्ट देव हनुमान जी का और कभी योगेश्वर भगवान श्री कृष्णजी का स्वरुप प्रतिबिम्बित होता दीख रहा था ! परम श्रद्धा से उनके नेत्र कुछ पल को बंद हुए ! पर जब नेत्र खुले तब बाबाजी वहाँ से जा चुके थे !

क्रमशः  
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 199 - 200

हनुमत कृपा
पिताश्री के अनुभव

हनुमानजी के मन्दिरों में सर्वाधिक भीड़ ऐसे भक्तों की होती है जो अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए उनसे प्रार्थना करने के लिए आते हैं ! एक बड़ी संख्या ऐसों की भी होती है जिनकी मनोकामनाएं श्री हनुमान जी की कृपा से सिद्ध हो गयी होती है और वह वहाँ श्री हनुमानजी को उनकी दया-कृपा के लिए धन्यवाद देने और उनके प्रति अपना अनुग्रह व्यक्त करने के लिए आते हैं ! दर्शनार्थियों में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो सफलता की बाजी हार कर भी श्री हनुमान जी का दामन नहीं छोड़ते और उतनी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ हनुमत भक्ति में लगे रहते हैं जितनी लगन और तत्परता से वह अपनी असफलता से पूर्व उनसे जुड़े थे !ह्मारे पिताश्री उस दिन उन हारे हुए सिपहसालारों में थे जो मैदाने जंग में पीठ दिखा कर भाग रहे थे !

चलते चलते पिताश्री सोच रहे थे क़ि पिछली जुलाई से इस जून तक, उन्होंने प्रत्येक मंगलवार को हरबंस भवन के आंगन के महाबीरी ध्वजा तले मत्था टेका था! आज वह फेल होने के भय से नतीजा निकलने के पहिले ह़ी अपने इष्टदेव की शीतल क्षत्रछाया छोड़ कर चले आये !उन्हें मन ह़ी मन यह दुःख सता रहा था क़ि वह अपने अंतरद्वंद के कारण मंगलवार की परिवारिक पूजा-आरती में भी सम्मिलित नहीं हुए !,यह सोच कर क़ि उन्हें आजमगढ़ में जज भैया की राय बात से भविष्य की योजना बनानी है ! वह बलिया से आजमगढ़ के लिए चल दिए थे !

दूर से ही पिताश्री को उस आगंतुक व्यक्ति की आवाज़ सुनाई दी !वह कह रहे थे " बड़ा देरी लगायो बाबू ! ह्म सुना तुम पूरा हनुमान चालीसा सुनाय आयो उनका ! ऊ जरूर बहुत खुश भये होइहें ! लाओ प्रसाद देव "! पिताश्री ने उन्हें पुड़िया पकड़ा दी ! खोल कर थोड़ा प्रसाद लिया और फिर कुछ देर तक वह अख़बार के उस टुकड़े पर गहरी नजर जमाये हुए कुछ देखते रहे ! बाबाजी तथा पिताश्री ने बड़े प्रेम से हनुमान मंदिर का वह प्रसाद पाया !

उसके बाद काफी देर तक उनमे और पिताश्री में एकतरफा बातचीत चलती रही !बोलने का काम उन्होंने किया और सुनने का पिताश्री ने !उनकी वाणी इतनी मधुर और शब्द इतने सारगर्भित थे क़ि पिताश्री मंत्रमुग्ध हो उनकी बातें सुनते रहे !वह बाबा जी कह रहे थे --

"बद्री जी ,बीती ताहि बिसारिये आगे की सुधि लेहु, ऐसा है क़ि मनुष्य संसार में आता है कभी हंसता खेलता है, कभी रोता है, कभी भयभीत होता है ,कभी हारता है,कभी जीतता है और इन सबसे अकेले ही जूझते हुए वह जीवन जीने का मार्ग खोजता रहता है ! कभी कभी वह माया के खिलौनॉ से खेलने में अपना ध्येय अपना पथ और मार्ग दर्शन करने वाले परमेश्वर से भी बिछुड़ जाता है और इस प्रकार जीवन के कुरुक्षेत्र में धराशयी हो जाता है !इसके विपरीत संसार के संस्कारी व भाग्यशाली प्राणी जीवनपथ पर लडखडाते तो हैं पर अपने इष्टदेव "संकटमोचन" का सहारा पाकर शीघ्र ही सम्हल जाते हैं और अपने मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार के चारोँ घोड़ों की बागडोर प्रभु को सौंप देते हैं ! फिर क्या बात है वे जैसा भी चाहते हैं,भगवान उन्हें वैसा ही देते रहते हैं ! परन्तु प्रत्येक अवस्था में कर्म मनुष्य को ही करने पड़ते हैं !" फिर कुछ देर रुक कर वह बोले " कौने सोच माँ पड़ी गयो बद्री बाबू ,आपन काम करो ,जोंन काम करे वास्ते आये हो इहाँ ! जावहू जज भैया से बात कर लेहू , सब ठीके होई , चिंता जिन करो "

पिताश्री पुनः गम्भीर चिंता में पड़ गये !

क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला".

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 19 8

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव

उस अजनबी के विचित्र हावभाव और आदेशात्मक वक्तव्य से पिताश्री को ऐसा लगा जैसे वह व्यक्ति उनके परिवार का कोई अति घनिष्ट परिजन है ,कोई स्वजन है ! उसकी बातों  से ऐसा स्पष्ट था क़ी वह "हरबंस भवन" परिवार वालों की सभी गतिविधियों से भलीभांति  अवगत था! जैसे वह उस घर के आंगन में ही पला हो वहीं खेल कूद कर बड़ा हुआ हो और अभी सीधे वहीं से आ पहुँचा हो ! पिताश्री के लिए सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने अपने १७ - १८ वर्ष के जीवन में उस व्यक्ति को उस दिन से पहले ,कहीं भी और कभी भी नहीं देखा था!

वह व्यक्ति यह जानता था कि पिताश्री बलिया मे  अपना परीक्षाफल नहीं जानना चाहते थे और इस कारण ही वह बलिया से आजमगढ़ भाग आये थे ! यह बात ऎसी थीं जिसे  पिताश्री के अतिरिक्त कोई और जानता ही नहीं था ! पिताश्री यह समझने में असमर्थ थे कि वह ,एक बिल्कुल ही अनजान व्यक्ति उनक़ी निजी ,इतनी गोपनीय परन्तु सच बातें  कैसे जानता था !

पर वह व्यक्ति था कि बोले  ही जा रहा था ! " का बदुरी बाबू काहे पलात फिरत होऊ इहाँ से उहाँ !बलिया वारे वकील भइया से बहुत डेरात होऊ एह खातिर इहाँ जज भइया के पास भाजि आये होऊ ! का होई भागे भागे ,कछु आगे केर बिचारे के च ही " 

आश्चर्य के साथ साथ अब पिताश्री के हृदय में उस व्यक्ति के प्रति थोड़ी थोड़ी श्रद्धा जाग्रत हो रही थी ! अपनत्व प्रदर्शित करते हुए पिताश्री ने उस अजनबी व्यक्ति से कहा, " बाबाजी आपने पानी तो पिया ही नहीं, बड़ी गर्मी है थोड़ा पनापियाव हो जाये "! मुस्कुराते हुए वह व्यक्ति बोला "का बाबू सुख्खे पानी पियईहो ? क्छू ख्वईहो  नाहीं का ? आज मंगरवार है ,  महाबीर जी के दीँन है ,ह्म बिना परसाद पाए कुछु खात पियत नहीं हन ! जाओ बाबू पांच पैसा के गुड़ चबेना के प्रसाद चढाय लावो ,जब लगी ह्म कुइयां से जल काढ़त हन "

पिताश्री तुरत चल पड़े ! वहीं कुँए के पास वाली भडभूजे क़ी दुकान से उन्होंने पाँच पैसे का गुड़-चबेना लिया और कचहरी के गुमटी पर स्थित हनुमान मन्दिर की मूर्ति पर चढ़ाकर , अखबारी कागज़ की पुड़िया में प्रसाद ले कर ,कुँए की ओर मुड गये , जहाँ वह अजनबी व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा कर रहा था !

क्रमशः 
निवेदक:- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 7

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 
क्या किसी को,कभी भी निराश किया है ,ह्मारे संकटमोचन विक्रमबजरंगी श्री हनुमानजी ने ? यूं तो अवश्य ही ह्म सब "उन्हें" भली भांति जानते-मानते हैं, फिर भी यदि किसी को कोई शक है तो वह थोड़ा सा, बस ज़रा सा  प्रेम "उनसे" करें और देखे कि कैसे "वह" उस व्यक्ति के निजी जिरह बख्तर बन कर प्रतिपल उसके अंग संग रह कर जीवन भर उसकी रक्षा तथा सहायता करते रहते हैं !ह्म और कुछ न करें ,केवल यह एक  प्रार्थना यदि मनही मन अपने इष्ट देव से करते रहें तो हमारा कार्य सिद्ध हो जायेगा !
"जयजयजय हनुमानगोसाईं ,कृपा करहु गुरुदेव  की नाईं"
संसार के सब धर्मों के सार्वजनिक देवस्थानों की यदि गिनती की जाये तो उनमें  सबसे बड़ी संख्या हनुमानजी के मन्दिरों की ही होगी और इन मंदिरों में जमा होने वाले  प्रेमी भक्तों की गणना कर पाना तो मानो असंभव ही है ! विश्व भर में नागरिकों के घरों में यदि  ह्म "उनके" चित्र , मूर्तियों और ध्वजाओं की गिनती करने का प्रयत्न करें तो यह गिनती भी कभी पूरी  नहीं हो पायेगी ! इसके अतिरिक्त यह भी सर्वविदित सत्य है क़ि संसार के सभी धार्मिक प्रकाशनों में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली और गायी जाने वाली भक्ति रचना गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री हनुमान चालीसा है ! प्रियजन , ऐसा क्यों है ?
हनुमान जी, बिना बुलाये वहाँ पहुँच जाते है जहां उनके "प्रेमी" जन उन्हें प्रेम से याद करते हैं ,जी हाँ केवल याद करते हैं , आवाज़ लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती ! जरा सोच कर कहें ,क्या है कोई अन्य देवता ऐसा ,जो इतनी सरलता से अपने प्रेमीजनों की उदासी दूर 
कर उन्हें पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है,उन्हें बल ,बुद्धि और विद्या प्रदान कर, सन्मार्ग पर चला देता है ,उनकी आत्मशक्ति को प्रबुद्ध करता है ! नहीं  न ! प्रियजन,सुगमता से   निर्भय बना सकने वाली दिव्यशक्ति हमें श्री हनुमत भक्ति से ह़ी उपलब्ध होगी !चलिए कथानक आगे बढायें --
किम्कर्तव्यविमूढ़ से ह्मारे पिताश्री आजमगढ़ कचहरी के पिछवाड़े वाली कच्ची सड़क पर स्थित प्राचीन कुँए की लखौरी ईटों वाली खंडहर हो रही जगत पर उदास बैठे थे !मुगलों या अवध के नवाबों के जमाने के उन खण्डहरात की तरह ह्मारे पिताश्री को उनके अपने भविष्य के सपनों का भग्नावशेष भी उतनी ही बेतरतीबी से बिखरा हुआ वहाँ दिखायी दे रहा था !वहाँ बैठे बैठे वह मुन्सफी की ओर से आनेवाले अर्दलियों ,वकीलों ,मुवक्किलों से नजर चुरा रहे थे कि कोई उन्हें पहचान कर भैया से उनकी शिकायत न कर दे ! उनके इष्ट देव की कृपा से उस समय उनकी जान बच गई क्योंकि कचहरी बंद हो गयी थी और उस सडक पर आवाजाही खत्म सी हो गयी थी ! तभी --
किसी ने पीछे से पिताश्री के कंधे पर हल्के से थपथपाया ! चौंक कर पीछे देखा तो कुछ इत्मीनान हुआ ,वह व्यक्ति उनके जज भैया का परिचित न था ! सम्हल कर पिताश्री ने उस  आगंतुक से पूछा " कहिये, क्या बात है ?" !ठेठ अवधी भोजपुरी में वह बोला " आप कहो बाबू ,आपकेर कौन बात है ,जोन आप  इहाँ उहाँ ,लुक्का छुप्पी खेल रहे होऊ! जावो घरे लौट जाओ"! स्थानीय जज साहब के छोटे भाई थे ,चुप क्यों रहते ,थोड़े अभिमान से पिताश्री ने उन्हें उत्तर दिया " ह्म कहीं भी उठें बैठें, तुमसे क्या ,तुम पानी पीयो और अपना रास्ता पकड़ो" !आगंतुक ने भी कुछ गुस्से के साथ उनसे कहा " बाबू कौउ तुम्हार रस्ता देखत होई और तुम इहाँ मुंह छुपाये बैठ हो ,जाओ घरे लौट जाओ "! पिताश्री चौंक गये !कौन है यह अजनबी जो इतना अपनत्व दिखा रहा है और इतनी गम्भीरता से उन्हें आदेश दे रहा है ?   पिताश्री पुनः चिंता में डूब गये !



गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 6

हनुमत  कृपा 
पिताश्री के अनुभव 
प्रियजन, ह्मारे पिताश्री की यह कथा आज से लगभग १०० वर्ष पहले की है! 

कुँए की जगत पर बैठे पिताश्री सोच रहे थे कि पिछले वर्ष ही वह मानव शरीर की चीर फाड़ करने में अपनी स्वाभाविक अरुचि के कारण ,पटना मेडिकल स्कूल के मेडिकल डिप्लोमा की  पढ़ा छोड़ कर भाग आये थे, जिसके कारण उन्हें बहुत लज्जित होना पड़ा था !और अब  इस वर्ष दुबारा  स्कूल लीविंग की परीक्षा   पास न कर पाने पर तथा  किसी अन्य प्रोफेशनल स्कूल में एडमिशन न मिल पाने पर  वह   क्या मुंह लेकर अपने बड़े भाइयों के सामने जाये? क्या करें वह यह नहीं समझ पा रहे थे !


 लगभग २० वर्ष के हो चुके थे वह  !  विवाहित थे ,उनकी पत्नी (हमारी प्यारी माँ ) हमारे पुश्तैनी घर बलिया में दो तीन वर्ष पहले ही गवना करवा के लायी जा चुकीं थीं !गनीमत यह थी कि कुलदेव श्री हनुमान जी की अपार कृपा से , घर के बुजुर्ग महिलाओं की दैनिक मनौतियों और अम्मा पर थोपे जाने वाले कटु उलाहनों के बावजूद ( नहीं बताउंगा आपको किस किस उपाधि से हमारी अम्मा को विवाह के २-३ वर्ष बाद भी ,"माँ" न बन पाने के कारण विभूषित किया जाता था )!चलिए छोड़ें इस उपेक्षनीय  प्रसंग को !ह्मारे माता पिता के  जीवन में तब तक  किसी बच्चे का पदार्पण नहीं हुआ था जो  उनके लिए वरदान जैसा ही था !


प्रियजन सो ह्मारे पिताश्री उस गर्म दुपहरी में कुँए के जगत पर ,अपनी असफलताओं से उत्पन्न ग्लानि में डूबे हुए बैठे थे और यह निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि ऎसी स्थिति में अब वह कहाँ जाएँ  और ,क्या करें ? वह  केवल दो जगह जा सकते थे !या तो वह उसी नगर आजमगढ़ में (जहाँ वह उस समय थे) अपने मधुर भाषी ,बड़े भाई वहाँ के सबजज  बाबू हरिहर प्रसाद जी (जिनकी सलाह और आदेशों का पालन करना वह अपना धर्म मानते थे ) के पास जाएँ या बलिया वापस जा कर अपने बड़े भैया बाबू हरनंदन प्रसाद जी (प्लीडर) के सामने सर झुकाए खड़े हो कर उनकी ऎसी ज़ोरदार फटकार सुनें जो  भीतर नवविवाहिता उनकी पत्नी (हमारी अम्मा) को भी साफ साफ सुनाई पड़े  !

ऐसे में "जब चारोँ तरफ अन्धियारा हो" "आशा का दूर किनारा हो ""जब कोई न खेवन हारा हो " तब वो ही बेड़ा पार करे "  प्रियजन !-- बोलो कौन ? तुम्हारा प्रियतम प्रभु !
ह्मारे बाबूजी अपने जन्मजात संस्कार और पारिवारिक मान्यताओं पर आधारित आस्था से पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ कुलदेव श्री महाबीर जी का सिमरन करने लगे !
काज कियो बड़ देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि विचारो,
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो,
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु  संकट होय हमारो, 
को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो !



मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 5

हनुमत  कृपा 
पिताश्री के अनुभव,

यह कथाएँ शायद मेरे जन्म से पहिले की- १९१० -१९३० के बीच की हैं ! 

बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारत की आबादी लगभग ३०-३१ करोड़ थी ! तब इस देश पर ब्रिटिश सम्राट जोर्ज पंचम का एक छत्र आधिपत्य था ! अँग्रेज़ी मिल्कियत के बड़े बड़े कल कारखाने,मिलें, रेल कम्पनियां ,खदानें, चाय बगानें ,ट्रेडिंग कम्पनियां और सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ी शासन-तन्त्र दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे थे ! 

पर सोने की चिड़िया भारत के नन्हे नन्हे बच्चे अपनी लुटी हुई माँ के उजड़े घोसले में भूखे प्यासे बैठे तत्कालीन अन्धकार में कोई ऎसी रजत रेखा खोज रहे थे जिसके प्रकाश में वह अपना भविष्य सँवार सकें ! 

वस्तुस्थिति यह थी कि उन दिनों अधिक प्रभावशाली जमींदार, तालुकेदार परिवारों के प्रतिभाशाली बालकों को विलायत जा कर विद्याध्ययन करके "बार एट ला" से विभूषित हो कर "आई सी एस" आदि सेवाओं में आकर सीधे कलक्टर, जिला जज,पुलिस कप्तान  या आर्मी कमांडर बन कर दिखाने का चैलेंज दिया जाता था !

हमारे जैसे कम पढ़े लिखे काश्तकारी करने वाले परिवारों के मंद बुद्धि समझे जाने वाले बालकों को अधिक से अधिक सरकारी दफ्तरों में क्लर्क बनने की सलाह दी जाती थी! थोड़े प्रगतिशील परिवार वालों को नायब तहसीलदार अथवा पुलिस के,या सफाई के या आबकारी,चुंगी के दरोगा बन कर ऊपरी कमाई कर के अपनी बहनों के हाथ पीले करने का और फिर उस आमदनी से ही अपना घर भर कर एक सुंदर सी सास ससुर की सेवा करने वाली कामकाजी बहुरिया लाकर बेचारी बूढ़ी दादी की घर आंगन में एक परनाती की किलकारी सुनने का सपना मरने से पहले सच कर दिखाने का उपदेश दिया जाता था 

वैसी ही परिस्थिति में ह्मारे पिताश्री के दो बड़े भाई तब तक मुख्तियार और मुंसिफ बन चुके थे ! पर पिताश्री अनेकों कोशिशों के बाद भी स्कूल से ग्रेजुएशन न कर पाए! आख़िरी बार फेल होने के बाद उन्हें घरवालों के सामने आने का साहस नहीं हो रहा था ! अस्तु जून मास की गर्म लू भरी दोपहरी में वह देर तक नगर की धूल धक्कड़ भरी सड़कों पर बेमतलब भटकते रहे और अंत में हार थक कर आखिर वह सड़क के किनारे एक कुँए की जगत पर बैठ गये ! 

और फिर उनके समक्ष भी वैसा ही कुछ हुआ जैसा ह्मारे दोनों प्रपितामहों के जीवन में हुआ था !एक अनजान व्यक्ति अचानक कहीं से वहाँ पहुँच गया उनकी मदद करने ! और ---------


क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 4

हनुमत कृपा 
निज अनुभव 

बचपन में अपनी प्यारी प्यारी ,पोपली (दंत मुक्ता हीन) मुखारविंद वाली ,गोरी गोरी दादी की गोदी में लेटे लेटे ,उनकी गुडगुडी की मधुर गुडगुड़ाहट के बीच ,मैंने जागते सोते,अपने पूर्वजों की ऎसी अनेकों कहानियाँ सुनीं थीं !थोड़ा बड़े होने पर ह्मारे बाबूजी ( पिताजी ) ने भी यही कहानियाँ वैसे ही दुहरा कर हमें सुनायीं ! भाषा में ,शब्दों का कुछ अन्तर रहा होगा कथा की मूल भावना में कोई भेद नहीं था !

दादी बाबूजी के सभी कथानकों में एक तथ्य समाहित था वह था यह कि एक अनजान व्यक्ति न जाने कहां से अचानक प्रगट होकर, विपत्ति के समय ह्मारे परिजनों की मदद  करके अंतर्ध्यान हो जाता था !मेरे निजी जीवन में भी ऐसा अनेकों बार हुआ !मैंने मेरे साथ घटी वह साउथ अमेरिका की घटना जिसमे संभावित हवायी हादसे में मेरी जीवन रक्षा हुई  तथा वहाँ के ही slaughter house में मेरे निजी तथा मेरे देश भारत के सम्मान-रक्षा वाली कथा मैंने हाल में ही आपको सुनाई है! 

बचपन से सुने इन कथानकों का प्रभाव मेरे मन पर इतना गहरा पड़ा था कि जीवन भर के लिए मेरा ऐसा विश्वास बन गया की प्रियतम प्रभु अपने प्रिय साधकों की संकट की घड़ी में उन्हें विपदा से उबारने के लिए उनके सद्गुरु के रूप में अथवा किसी अन्य सूक्ष्म रूप में अवतरित होकर उनके संकट निवारण के लिए सही दिशा निर्देश देते हैं और फिर जैसे अचानक प्रगट हुए थे वैसे ही अंतर्ध्यान भी हो जाते हैं !  


प्रियजन !केवल कुछ विशेष  व्यक्तियों पर ही नहीं अपितु , ह्मारे प्यारे प्रभु समस्त मानवता पर ही ऎसी कृपा करते हैं और सतत करते रहते हैं ! आवश्यकता यह है क़ि ह्म   
उनकी उस कृपा को पहचानें !


प्रपितामह (परदादा जी) क़ी जो कथा मैंने अभी तक सुनायी अक्षःर शः सत्य है ! पात्रों के वास्तविक नाम न जानने के कारण काल्पनिक नाम दिए गये हैं ! परदादा जी के जीवन में ऐसी घटना घटी थी !वह घर द्वार छोड़ कर भागे थे! उनके सन्मुख ,निर्जन में वह लकड़ी की खडाऊं पर खटर पटर करके चलने वाला अनजान विशालकाय व्यक्ति सचमुच कुछ समय के लिए प्रगट हुआ था ! उसने भूखे प्यासे दादाजी को मंगलवार का बिल्कुल वैसा ही प्रसाद  खिलाया जैसा बलिया में अपने घर के हनुमान जी पर दादाजी हर मंगलवार को चढाते थे ! उन्होंने दादाजी को उस ब्रिटिश अधिकारी की कोठी के गेट तक भेजा जिसकी न्यायप्रिय अंग्रेज पत्नी हर बुधवार को जनसाधारण से मिल कर उनके दुःख दर्द मिटाने का प्रयास करती थी और जैसा आपको विदित है उन विलायती मेमसाहिबा ने सचमुच दादाजी को हवालात में बंद होने से बचा लिया ! इस कथा की सबसे महत्वपूर्ण बात है क़ी उन विचित्र अनजान व्यक्ति को उस शाम से पहले या उसके बाद किसी ने भी कभी भी नहीं देखा !


क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"




रविवार, 17 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 3

हनुमत कृपा
निज  अनुभव 

दरबार में  दादाजी का शरीर बैठा था लेकिन उनका मन उस समय "माँ दुर्गा" के पावन श्री चरणों पर पड़ा अपनी व्यथा की कथा कह रहा था ! जितनी देर वह वहाँ बैठे रहे ,उन्होंने माँ के अतिरिक्त किसी और की ओर ध्यान ही नहीं दिया उनके मन में सतत श्री श्री दुर्गा चालीसा का पाठ चलता रहा !वह तब जागे जब सब प्रार्थी अपनी फरियाद सुना कर वापस जा चुके थे और मुंशी जी ने उन्हें जोर से झकझोरा !

दादाजी हड़बड़ा कर उठ खड़े हुए और भोजपुरी भाषा में अपने पड़ोसी गाँव के महाबली  बाबू साहेब ठाकुर सज्जन सिंह के अन्याय ,अनाचार ,अत्याचार और असहाय गरीब गाँव वालों के उत्पीड़न  की रोमांचक  कहानी मेमसाहिब को सुनायी ! दादाजी ने आगे बताया कि उत्पीड़ित समाज से उनकी सहानुभूति होने के कारण से  उपजे बैमनस्य से बाबू साहेब ने दादाजी को निजी तौर पर सताने के लिए उन्हें एक झूठे फौजदारी मामले में फंसा दिया  है और स्थानीय दारोगा को खिला पिला कर उनके नाम से गिरफ्तारी का वारंट जारी करवा दिया है  ! अपने वंश और बिहार सूबे के डुमराओं राज के परम्परागत मधुर सम्बन्ध का वास्ता देते हुए दादाजी ने मेमसाहिबा को बताया कि लगभग एक सौ वर्षों से उनके वंशज  अपने क्षेत्र में, उस राज्य का तहसील वसूल करते आये हैं और कभी कोई शिकायत कहीं से नहीं आयी !बाबू सज्जनसिंह ह्मारे परिवार की बढ़ती ख्याति के कारण ईर्ष्यावश हमें   नीचा दिखाना चाहते हैं !

लेडी साहिबा को दादाजी की बात तर्कसंगत लगी ,उन्होंने मुंशी जी को आदेश दिया कि मोहम्दाबाद के मुख्तियार खानसाहेब अब्दुल शकूर को दादाजी के साथ बलिया भेज कर थानेदार को चेतावनी दी जाय कि ईमानदारी से तहकीकात कर के जल्द से जल्द उचित कारवायी करें अन्यथा स्वयं न्याय की तेज़ धार झेलने को तैयार रहें  !

खानसाहेब के साथ उनकी घोड़ा गाड़ी पर सवार हो कर दादाजी गाजीपुर से सीधे बलिया के पुलिस थाने आये और वहाँ ,वही हुआ जो होना चाहिए था - सत्य की विजय  !

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव  "भोला"

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 2





हनुमत कृपा 
निज अनुभव 
हाँ तो ह्मारे दादाजी,उन अनजान आगंतुक के सुझाव के मुताबिक़ उस सरकारी कोठी में मुंशी जी के पीछे पीछे अंग्रेज मेमसाहेब के समक्ष अपनी फरियाद पेश करने जा रहे थे! 
केवल  भोजपुरी भाषा के ज्ञाता,ह्मारे दादाजी का अंग्रेज़ी भाषा से कोई दूर का भी नाता नहीं था ! पर विडम्बना देखें ,आज वह ही ह्मारे दादाजी ,गाजीपुर जिले के सर्वोच्च ब्रिटिश अधिकारी सर आर डबलू स्मिथ साहेब की गोरी मेंम साहिबा मेडम लेडी  केरोलीन से भेंट करने जा रहे थे !.प्रियजन आप लोग तो दुनिया घूमे है ! विदेशों में भाषा भेद के कारण कितना कष्ट होता है आप भली भांति जानते होंगे ! दादाजी की मनःस्थिति उस समय  कैसी होगी आप जान गये होंगे!

भैया ऎसी स्थिति में हुई मेरी अपनी दुर्दशा मुझे भली भांति याद है! ! पहली बार ,१९६३ के नवम्बर में लन्दन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा! शाम के चार बजे ही रात हो गयी थी !अंग्रेज़ी जानते हुए भी मैं वहाँ वालों की भाषा समझ नहीं पा रहा था !इतना नर्वस हुआ कि भारतीय दूतावास से मुझे लेने आये अधिकारियों द्वारा करवाया हुआ मेरे अपने नाम का  एनाउन्समेंट भी मेरी समझ में नहीं आया,फलस्वरूप वहाँ की ठंढक में भी ,पसीने में लथ  पथ हांफता हूँफ्ता ,अपना भारी  बैगेज अपने हाथों ढोता हुआ ,पहली बार लोकल ट्रेन और डबल डेकर बस का टिकट कटा कर इंडिया हाउस पहुंचा ! अभी भी याद है क़ि कैसे सडक पार करते समय ट्रेफिक पोलिस के आदेश न समझ पाने से और "जेब्राक्रोसिंग नियम "का उल्लंघन करने के कारण मुझे  कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी थी!

उस दिन गाजीपुर में उस अज्ञात अति प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले देवस्वरूपी पुरुष से प्रेरणा और मार्ग दर्शन पाकर,बलिया के छोटे से गाँव का एक साधारण किसान आज बड़ी निर्भयता के साथ जिले के सर्वोच्च अंग्रेज अधिकारी की पत्नी के समक्ष अपनी व्यथा सुनाने जा रहा था !दादाजी के चाल ढाल में कोई शिथिलता नहीं थी ! वह भर पूर आत्म- विश्वास के साथ मन में हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे !

कोठी के पिछवाड़े के बरामदे में मेमसाहेब की झलक मिली ! वह मिले जुले सफेद और लाल रंग का बिलायती सूट पहने हुए थीं और उनके सर पर उतनी ही चटक रंग की टोपी सोह रही थी ! और हाँ तब तक दादाजी ने हनुमान चालीसा का पाठ पूरा कर लिया था !


बरामदे के सामने वाले घास के मैदान में अन्य प्रार्थियों के बीच दादाजी को भी बैठाया गया ! सामने से मेमसाहेब को देखते ही दादाजी को ऐसे लगा जैसे वह किसी बड़े दुर्गा पूजा पंडाल में देवी माँ की भव्य मुर्ति के सन्मुख बैठे हैं ! श्रद्धा से उनकी आँखें आप से आप बंद हो गयी और वह मन ही मन माँ दुर्गा को मनाने लगे !



शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 1

हनुमत कृपा 
निज अनुभव 

गाजीपुर सिविल लाइन्स  में जिस कोठी के सामने दादाजी खड़े थे उसके फाटक के पुलिस बन्दोबस्त को देख कर यह लगता था कि वह अवश्य ही उस जिले के सबसे बड़े सरकारी अफसर का निवास स्थान है !आहाते के फाटक पर तैनात गन धारी सिपाही को देखते ही दादाजी के होश फाख्ता हो गये थे और उनके मन में नाना प्रकार की आशंकाएं एक साथ उठ खड़ी हुईं थीं ! दादाजी सोच रहे थे कि कल रात गर्म गर्म इमरतियों का प्रसाद खिला कर और ऊंचे ऊंचे ख्वाब दिखाकर उन बाबाजी ने फुसला बहला कर उन्हें उसी जगह पहुंचा दिया,जहां जाने के भय से वह घर द्वार छोड़कर भागे थे ! दादाजी यह समझ नही पा रहे  थे कि आगे उन्हें क्या करना चाहिए !

तभी दादाजी को आगंतुक द्वारा कही एक विशेष बात याद आई ! सम्हल कर वह प्रबल आत्मविश्वास  के साथ उस बंदूक धारी सिपाही की ओर बढ़े और उसे वास्तविक श्रद्धा से प्रणाम करने के बाद उससे धीरे से कहा कि वह कोठी की मालकिन से मिलना चाहते हैं !सिपाही खिलखिला कर हंसा और बोला " केकरा से मिलबा ? कौन मलकिन ? ई कौनों मरवाड़ी सेठ के कोठी ना हा भैया, ई कप्तान साहेब के कोठी हा ! इहाँ कौनो मलकिन मालिक ना बा ! इहाँ इन्ग्रेज़ साहिब बहादुर अपना मेंमसाहेब के साथे रहेलं , चला रस्ता छोडा !साहेब निकले के बाड़ें"(Whom will U like to see.? There is no "malkin" here This is the official residence of the district Police chief who lives here with his British wife, Give way ,the boss is to pass from here just now ) 

दरबान की यह बात सुन कर , दादाजी को लगा जैसे यह एक और भद्दा मजाक था जो वह  अनजाना आगंतुक उनसे कर गया !प्रियजन आप समझ सकते हैं ह्मारे दादाजी पर उस समय क्या गुजर रही होगी ! सिपाही ने धक्का देकर उन्हें एक किनारे खड़ा कर दिया ! घोड़े पर सवार अंग्रेज साहिब अपने लश्कर के साथ दादाजी के सामने से निकल गये !सिपाही ने जूता पटक कर  ज़ोरदार सलाम ठोका !दादाजी सडक के किनारे जमे खड़े रहे !

अपने साहेब के चले जाने के बाद सिपाहीजी ने फुर्सत की सांस ली ! दादाजी को छेड़ते हुए और उनका मजाक उड़ाते हुए उन्होंने उनसे कहा " अब मौक़ा है बाबू बतियाय लो गोरी मेंम साहेब से, अब्बे बिल्कुल अकेली बैठीं हैं " दरबान ने तो मजाक मे यह बात कही थी लेकिन दादाजी ने शाम वाले अजनबी आगंतुक के कथन को स्मरण कर के उससे प्रार्थना की क़ि वह किसी प्रकार भी उनकी भेंट मेंम साहेब से करवा ही दे ! दरबान कुछ देर को अन्दर गया और लौटने पर बोला !" जाओ बाबू मेंम साहेब से मिलि लेवो, ई मुंशी जी आपको भेंट कर्वाय  दीहें "! दादाजी मुंशी जी के साथ कोठी में दाखिल हो गये ! 

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

  

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 9 0

हनुमत कृपा 
निज अनुभव

जैसे जैसे वह आवाज़ निकट आ रही थी दादा जी का डर बढ़ता जा रहा था ! उस अनजाने व्यक्ति के खडाऊं की खटर पटर दादाजी के कान में पड ही रही थी ,साथ में उसके द्वारा  किया हुआ वह अनोखे ढंग का "जय श्री राम" उद्घोष दादाजी को अन्तर तक रोमांचित कर रहा था ! एक विचित्र आशंका से दादाजी काँप रहे थे !

तभी दादाजी को उनके कन्धों पर किसी की भारी हथेलियों का उत्साह वर्धक मधुर स्पर्श महसूस हुआ ! आगंतुक ने ठेठ भोजपुरी में उनसे कहा ( आपकी सुविधा के लिए मैं उसे खड़ी हिंदुस्थानी बोली में यहाँ लिख रहा हूँ )"बच्चे ! तूने कोई जुर्म नही किया है तू झूठमूठ के लिए ही इतना परेशान क्यों हो रहा  है ! ऐसे घर बार छोड़ कर  दर बदर भटकने और अपने नित्य कर्म त्यागने से क्या लाभ?" !फिर उसने अपने  बड़े से झोले में से पीतल का एक चमचमाता हुआ लोटा और मोटे गाढे का धुला हुआ गमछा  निकाल कर दादा जी को दिया और कहा ," आज मंगलवार है ,सामने के कुँए पर मुंह हाथ धो के आओ ,महाबीर जी का प्रसाद पाओ उसके बाद आगे बात होगी !"आश्चर्य चकित हो दादाजी यह सोचने लगे क़ि वह अनजान व्यक्ति कैसे जान गया क़ि वह गिरफ्तारी के भय से फरार एक अपराधी
हैं और दिन भर के भूखे प्यासे हैं !

कुँए से लौटने के बाद दादा जी ने देखा कि आगंतुक के हाथ में एक दोना है जिसमे गरम गरम इमरतियाँ हैं , दोने के कोने में लाल सिदूर का निशान है जैसे अभी कोई हनुमान मन्दिर से प्रसाद चढा कर ला रहा हो !दादाजी को हर मंगलवार के शाम बलिया के अपने घर के आंगन में महाबीरी ध्वजा के नीचे हनुमान जी की मूर्ति पर चढाये जाने वाले प्रसाद की याद आयी!वह मन ही मन श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने लगे ! 

दादाजी को प्रसाद खिला कर अनजान आगंतुक ने दादाजी से कहा कि भोर होते ह़ी वह नहा धो कर ,ठीक से तैयार हो कर सामने के बड़े बंगले में आजायें जहाँ उनकी सुनवायी की पूरी व्यवस्था हो गयी है !अपने झोले में से एक जोड़ा धुला धुलाया वस्त्र निकाल कर आगंतुक ने वहीं छोड़ दिया और "जय श्रीराम" का उद्घोष कर जैसे आया था वैसे ही खडाऊं खड़खड़ाते हुए अन्धकार में अदृश्य हो गया  !

अगली सुबह दादाजी तैयार होकर उस बंगले की ओर गये जिसकी तरफ उस अनजाने व्यक्ति ने इशारा किया था !बंगले के मेन गेट पर खड़े बंदूकधारी पुलिस के सिपाही को देखते ही दादाजी के पैरों तले की धरती खिसक गयी ,उनके हाथ पाँव फूल गये और जुबान लडखडाने लगी !

क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 8 9



हनुमत कृपा 
प्रियजन मेरे अपने इस जीवन के ८१वर्षों के अनुभव तथा मेरे अपने पूर्वजों के सैकड़ों वर्ष पुराने अनुभवों के Verified and Certified authentic & true statements को स्वयं देखने और पढने के बाद मेरा तो अब यह सुनिश्चित मत है क़ि अष्टसिद्धि नवनिधि के अधिपति पवनपुत्र श्री हनुमान जी ने ही उस  "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट  होकर साउथ अमेरिका  के उस Cattle Slaughter House में ह्मारे सम्मान की  रक्षा की थी ! इतनी द्रढ़ता से मैं यह बात कैसे कह सकता हूँ  सुनिए -----
ह्मारे परिवार में ऐसा अनेक बार हुआ है क़ि क़िसी सर्वथा अपरिचित तथा  अनजाने व्यक्ति ने अति सूक्ष्मता से न जाने कहां से अचानक ही प्रगट होकर ह्मारे  पूर्वजों का मार्ग दर्शन किया और उन्हें उचित मार्ग पर डाल कर ऐसे  अंतर्ध्यान हुए क़ि फिर वह कहीं मिले  ही नहीं ! ऎसी एक घटना का उल्लेख मैं अपने पिछले संदेशों में "पितामह की तीर्थ यात्रा" शीर्षक से सविस्तार कर चुका हूँ ! 
इसके अतिरिक्त ह्मारे एक और प्रपितामह पर भी श्री हनुमान जी ने बड़ा अनुग्रह किया था ! यह घटना लगभग डेढ़ दो सौ साल पुरानी है ! ह्मारे इन दादाजी को किसीने एक झूठे फौजदारी मुकद्दमें में फंसा दिया !भारत पर उन दिनों ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शाशन था! दादाजी बलिया के एक छोटे से गाँव के एक सीधे सादे काश्तकार थे!  
(प्रियजन ! शायद आप जानते होंगे ,ह्म बलिया वाले बहुत सीधे होते हैं इतने क़ि शहरों के लोग हमे  "बौडम बलियाटिक" कह कर हमारा मजाक उड़ाते हैं ! लेकिन भैया मुझे तो बख्श देना प्लीज़ ,मैं तो आपके संगत में आकर अब उतना बुद्दू नहीं रह गया  हूँ ) 
हाँ तो दादाजी बिना किसी वकील मुख्तियार से सलाह लिए डर के मारे घबडा कर घरबार छोड़ कर गाँव से भाग निकले !उन दिनों बलिया जिला नहीं था ,वह गाजीपुर जिले की एक तहसील थी और बलिया वालों के लिए कचहरी अदालत हस्पताल आदि सब कुछ गाजीपुर नगर में ह़ी था ! हाँ ह्मारे दादा जी नंगे पाँव ,अपनी मटमैली घुटने तक ऊंची धोती और उतने ही धूलधूसरित गमछे से अपना तन ढाके लुक छुप कर भांग ,अफीम ,नील और खुशबूदार चमेली के बड़े बड़े बागीचों में छुपते छुपाते बलिया से गाजीपुर की ओर बेतहाशा भागे जा रहे थे !
चलते चलते शाम हो गयी! दिया बत्ती का समय हो गया ! गाजीपुर नगर निकट आ रहा था !,वहाँ के सिविल लाइन के सरकारी बंगलो में और नील के कारखानेदारों की बड़ी बड़ी कोठियों के बाहर पेट्रोमेक्स में हवा पम्प करते वर्दी पगड़ी धारी कर्मचारी नजर आने लगेt
दिनभर के भूखे प्यासे दादाजी सडक के किनारे वाले बागीचे में एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगे! शायद पल भर को उनकी आँख लगी होगी क़ि उनके कान में कुछ खटर पटर की आवाज़ आयी, जैसे कोई भारी भरकम शरीर वाला व्यक्ति लकड़ी के खडाऊं पहने  उनकी ओर आरहा है  ! वह पकड़े जाने के भय से काँप उठे और अपने को झाड़ों के पीछे छुपाने के निष्फल प्रयास करने में लग  गये ! तभी एक भारी सी आवाज़ उनके कान में पड़ी ! कोई ठेठ भोजपूरी भाषा में  उनसे कह रहा था  "का बबुआ काहे ऐसे भागत बाड़ा एन्ने ओन्ने ? बुडबक हमार बात मान  ! तोर कौनो दोष नइखे , तू झूट्ठे घबड़ाता रे "!
दादाजी ने इधर उधर घूम कर उस अनजान व्यक्ति को खोजने की कोशिश की लेकिन अँधेरे में वह उस समय कहीं नहीं दिखा! पल दो पल बाद दादाजी को ऐसा लगा जैसे वह आवाज़ धीरे धीरे उनके निकट आ रही है !  




मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 8 8

हनुमत कृपा
निज अनुभव

साउथ अमेरिका के एक केरेबियन देश में हम पर हुई हनुमत कृपा की कथा चल रही है !कैसे श्री हरि ने उस हवाई यात्रा में मेरी जीवन रक्षा की और फिर किस प्रकार "उन्होंने" उस "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट होकर ,मेरे और साथ साथ हमारे भारत देश के मान-सम्मान को धूमिल होने से बचा लिया ! शत शत नमन मेरे प्यारे प्रभु आपको ह्म पर की हुई इस अहेतुकी कृपा के लिए !आपकी सर्वत्र जय जय कार हो मेरे प्रभु !

इस सन्दर्भ में मैंने अपनी wishful thinking में यह कहा था कि वहाँ slaughter house के inauguration के समय जो घटना हुई वह मात्र एक coincidence अथवा कोई जादू,magic या चमत्कार नहीं था !वह वास्तव में ह्म पर हुई ह्मारे परम पिता की विशेष कृपा का एक जीवंत उदाहरण था !

पौराणिक कथाओं और लिखित इतिहास के माध्यम से ह्म अपने आपको और साथ साथ आप सब प्रियजनों को आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि विश्व मे असंख्य संतों महात्माओं को ऐसे दिव्य अनुभव हुए हैं जिन्हें सुनकर यही लगता है जैसे प्रभु ने स्वयं अपने हाथों उनके कार्य सँवारे हैं ! अस्तु ऎसी कथाओं पर अविश्वास करना अनुचित है !

आप देखें भारत में पिछले लगभग ६०० -७०० वर्षों में कैसे कैसे महान संत- महात्माओं ने जन्म लिया ! संत कबीर दास जी ,गुरु नानक देवजी, कृष्ण भक्त सूरदास जी ,गिरिधर गोपाल की दीवानी मीराबाई ,रामानुरागी संत तुलसीदास जी , वैष्णव जन के रचयिता गुजरात के संत सम्राट नरसी मेहताजी , महारष्ट्र के संत तुकारामज ,संतज्ञानेश्वरजी,संत रविदासजी संत नामदेव जी --आदि आदि , भाई ! असंख्य हैं ,कहां तक गिनाएं ?इन सभी सिद्ध महापुरुषों के अनुभव उस निराकार परम का नाना रूप धर कर व्यथित मानवता को निर्भय करने की गाथा गाते हैं !

ऐसा नहीं है क़ि "वह" आदि-अनादि काल में ही अवतरित होते थे भारत में तो वर्तमान काल में भी श्री श्री रामकृष्ण परमहंस,श्री औरोबिन्दो श्री स्वामी विवेकानंद ,स्वामी दयानंद आदि अनेकों महान विभूतियों ने ,भिन्न भिन्न स्वरूपों में उस "परम" को समय समय पर जग मंगल हेतु साकार होते हुए देखा है! कैसे झुठला सकते हैं ह्म इस परम सत्य को .

मेरे आध्यात्मिक धर्म गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की कृपा और आशीर्वाद से प्राप्त श्री श्री माँ आनंदमयी के दर्शन एवं दृष्टि दीक्षा से मेरा "अहंकार" शून्य हो गया! मुझे जन जन में "उस परम" के दर्शन का आभास होने लगा और अपनी प्रत्येक सफलता निज करनी से अधिक "उस परम" की कृपा का फल लगने लगी और प्रभु की कृपा पर हमारा विश्वास और दृढ़ हो गया !

प्रियतम प्रभु की सर्वव्यापकता ,सार्वभौमिकता की अनुभूति और कृपा से ह़ी जीवनपथ में आयी हुई उलझनों का सामना करते हुए हमें सत्य की राह पर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा और शक्ति मिलती है ! सच तो यह है क़ि परमपिता प्रभु रूप बदल बदल कर ह्मारे जीवन में आते हैं और हमारी सहज सम्भार करते हैं ! इसलिए मेरे अतिशय प्रिय पाठकों हमे प्यारे प्रभु की सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान सत्ता पर अडिग विश्वास रखना है !

अगले दिन यह कन्फर्म हो गया क़ि उस देश में उस हुलिया,उस वल्दियत का कोई बालक उस समारोह के अतिरिक्त और कहीं देखा ही नहीं गया !अब आप ही कहिये मेरा wishful thought कहां तक सच है ?

निवेदक :-व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"





सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 1 8 7

हनुमत कृपा
निज अनुभव
मेरी यह सोच (wishful thinking ) कि परम कृपालु परमात्मा ने स्वयं धरती पर उस नन्हे 
फरिश्ते के रूप में प्रगट  होकर मेरे सम्मान की रक्षा के लिए वह कसाइयों वाला काम बिना
किसी धार्मिक अथवा सामाजिक प्रतिरोध का विचार किये , निःसंकोच कर डाला संभवतः आपको उचित न लगे और आप इसकी सत्यता पर विश्वास न करें!आप ही क्यों भैया आज ह्मारे समाज के अधिक पढ़े लिखे लोग ऎसी बातों पर विश्वास नहीं करते ! वे इन बातों को असत्य-अमान्य मानते हैं! यह एक चिंता का विषय बन गया है कि आज  हमारा "विश्वास" इतना अस्थिर क्यों हो गया है ?

प्रियजन ,हमने ,आपने ,सबने ही बचपन में ,अपनी माँ.मौसी ,दादी ,मामी या नानी से, सोते समय ऎसी अनेकानेक कहानियाँ सुनी हैं जिनमें भगवान अपने भक्तों की आन बान शान की रक्षा के लिए सचमुच क्षीर सागर का विश्राम गृह छोड़ कर धरती पर आजाते हैं ! शरणागत वत्सल श्री हरि उन Bedtime Stories में न जाने कितने भिन्न भिन्न रूपों में प्रगट हो कर शरणागत का कष्ट निवारण करते हैं! 

चलिए ह्म एक बार  फिर उन दादी नानी की कहानियों को दुहरा लें ! इसमें मेरा स्वार्थ केवल यह है कि इसी बहाने मेरी ,बहुत दिनों से इस ब्लॉग के चक्कर में छूटी "हरि भजन सिमरन" की साधना कम से कम आज तो हो ही जायेगी ! 

बहुत बचपन में, ४-५  वर्ष की अवस्था तक दादी के साथ उनके बिस्तर पर ही सोता था ! लगभग रोज़ प्रात: ही  दादी का एक भजन सुनता था !उनकी वाणी से ऐसा लगता था जैसे वह किसी परिचित को पुकार रही हैं ! उनके स्वरों  में असाधारण करुणा, पीड़ा ,और कृपा प्राप्ति की पिपासा झलकती थी ! वह भजन था ---
हे गोविंद राखो सरन अब तो जीवन हारे !!
नीर   पिवन  हेतु गयो सिन्धु के किनारे ,
सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे !!
चार  प्रहर  युद्ध भयो  ले गयो   मझधारे , 
नाक  कान  डूबन लागे  कृष्ण को पुकारे !! 
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सूर कहे  श्याम सुनौ  सरन  ह्म तुम्हारे,      
अबकी  बेर  पार   करो  नन्द के  दुलारे !!

श्रीमद भागवत के आठवें स्कन्द मे लिखित यह पौराणिक काल की गजेन्द्र मोक्ष की कथा ह्म सब ने सुनी है !हम-आप सब ही जानते  हैं क़ि कैसे अस्त्र शस्त्र वाहन तक  छोड़ छाड कर शरणागत गज की जीवन रक्षा करने के लिए वह तीन लोक के स्वामी अन्तर्यामी प्रभु नंगे पाँव ही भागे चले आये थे 
भक्तों पर श्री हरि की अहेतुकी कृपा की अनगिनत -अनंत कथाएं हैं -
श्री हरि ने बालक प्रहलाद की जीवन रक्षा के लिए नरसिंह रूप धारण किया और स्तम्भ से प्रगट होकर राक्षस राज हिरंयकशिपू का संहार किया !.दुर्वासा ऋषि के क्रोध से भक्त शिरोमणि राजऋषि अम्बरीष की रक्षा भी "उन्होंने" ही की ! महाभारत में "उन्होंने" केवल अर्जुन के सारथी की भूमिका ही नही निभाई बल्कि नित्य प्रति सूर्यास्त के बाद जब सब महारथी अपने शिविरों में विश्राम करते थे योगेश्वर श्री कृष्ण ,थके हारे घायल अश्वों की सेवा सुश्रूषा में लग जाते थे ! कौन होगा उनके जैसा भक्तवत्सल ,कृपानिधान ? 
श्री हरि की लीला अपरम्पार है वह कब ,कहां, कैसे प्रगट होकर अपने प्रेमियों की रक्षा कर  देते हैं ,कोई नही कह सकता ! मैं भी अब कल ही लिखूंगा "वह" जो कुछ लिखलावायेंगे !

निवेदक:- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"