सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

सोमवार, 14 मार्च 2022

गयाना-देश की मधुर यादें

हिंद महासागर से अटलांतिक की गोद में लहराते नील वर्ण उत्तुंग तरंगो वाले करेबियन सागर तट तक की यात्रा जिस हरि की शुभेच्छा से हुई, वह कृपालु पालनहार प्रभु हमें और हमारे परिवार को अवश्य कोई विशेष लाभ दिलाने के लिए ही गयाना देश में लाया है । हमें लाभ ही लाभ होगा, हमारा कोई अनर्थ नहीं हो सकता, यह हमारा विशवास था । हमें अपने इष्टदेव पर पूरा भरोसा था ।

गयाना पहुँचने पर हमारा भव्य स्वागत हुआ, एक सप्ताह पैगेशस होटल में ठहराया, शीघ्र ही कार खरीदने का आदेश मिला और उसके लिए सरकार से ऋण भी मिल गया । पीले रंग की ट्योटा कैरोला कार भी आगयी । होटल में जब रेडियो चलाया तो सुनायी दिया साउथ अमेरिका के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में स्वरचित और अपनी पारिवारिक भजन मण्डली द्वारा गाया हुआ भजन शंकर शिव शम्भु साधु सन्तान हितकारी। आश्चर्य हुआ हमें ही क्या, हमारे परिवार को भी ।

सन १९७५ से १९७८ तक हम अपने परिवार के साथ, साउथ अमेरिका के एक छोटे से देश (ब्रिटिश) गयाना की राजधानी जॉर्जटाउन में ,१८ एचलीबार विला, केम्पवैलविल, जॉर्जटाउन में रहे । इस एरिया में २० घर थे जिनमें विदेशों से आये विशेषज्ञ, डॉक्टर, जज, आदि रहते थे । डायरेक्टर जनरल ऑफ़ बॉर्डर रोड संगठन के उच्चाधिकारी कर्नल टी. पी श्रीवास्तव और उनकी टीम के सात भारतीय अधिकारी, जो भारत सरकार से वहां सड़कें बनाने के लिए भेजे गए थे, वहीं रहते थे । हमारे पडौसी डॉ. चैनी और डॉ. उषा जयपाल थे। ऑफिस जॉर्ज टाउन में था, उससे ७० मील दूर स्थित न्यू एम्स्टर्डम में मुझे टेनरी और बूट प्लांट लगवाना था, जहां सप्ताह में तीन दिन जाना रहता था ।

नयी जगह, नए लोग, नयी परिस्थितियाँ, नया वातावरण । घर के कामकाज में कृष्णा जी की मददगार गायनीज़ स्त्री 'राधिका' मिल गयी थी। राधिका ने ही हमे उस देश के निवासियों की विशेष संस्कृति से अवगत कराया था । उसने बताया था कि सभी हिन्दू गायनीज़ के पूर्वज भारतीय थे, जिन्हें डलहौज़ी के शासन काल में अँगरेज़ पानी के जहाजों पर बैठा कर गन्ने और चावल के खेतों में काम कराने के लिए ले आये थे । वे सब जहाजी कहे जाते थे । भारत में वे किस शहर के थे, उनका धर्म, उनकी जाति क्या थी, आज उनके वंशज नहीं जानते हैं । उन्होंने तो बचपन से अपने ही घर परिवार में रुचि के अनुसार किसी सदस्य को मंदिर जाते देखा है, किसी को चर्च, तो किसी को नमाज़ अदा करते देखा है ।

गयाना के किसी घर के आंगन के एक छोर पर आप देखेंगे दादी की तुलसी का बिरवा, उनका शिवाला और उसके सन्मुख ही दूसरी ओर साफ़ सुथरी जमीन पर बड़े करीने से फैली खानदान की बड़ी बहूबेगम के नमाज़ पढ़ने की इरानी कालीन । कभी कोई झगड़ा नहीं कोई शोरो गुल नहीं । किसी पर कोई पाबंदी नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं । जिसको जो भाये जिस पर जिसकी आस्था जम जाए ; वही उसका धर्म-कर्म बन जाता है । यहाँ के निवासियों की रहनी में जो एक चीज़ मुझे बहुत ही पसंद आई, वह थी, वहाँ की विभिन्न जातियों और विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच की अटूट एकता और उनका अद्भुत भाई चारा ।

यहां के गायनीज़ हिंदुओं की प्रार्थना, उनके भजन, उनके कीर्तन वही थे जिन्हें डेढ़ दो शताब्दी पहले उनके पूर्वज भारत में गाते बजाते थे। रामायण पाठ में आज उनके बाल बच्चे, सभी स्त्री पुरुष अपने सामने रामायण का पृष्ठ खोल कर रख लेते थे और बड़े भाव से दोहे चौपाइयां गाते थे । हिन्दी पढ़ना तो ये लोग जानते न थे इसलिए चाहे पृष्ठ कोई भी खुला हो, वे गाते वही थे जो उन्होंने अपने पूर्वजों से सुन कर याद कर रखा था । उनकी मुंदी हुई आँखें, भाव भरी मुद्रा और गवंयी गाँव की चौपाली शैली में रामायण पाठ हमे आज भी उनकी सहजता तथा उनकी एकनिष्ठ निष्काम भक्ति की याद दिलाता है और मन को छू जाता है।

गयाना में सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन, उत्सव, समारोह, आदि को सम्पन्न करने की गायनीज़ हिंदुओं की अपनी ही रीति थी । इन कार्यक्रमों में, विवाहोत्सव में, मन्दिर में, शराब पीना वर्जित था । यहां की हिंदू महिलाएं मंदिर में पाश्चात्य वेश भूषा में भी अपना सिर एक दुपट्टे (ओढनी ) से ढके रहतीं थीं । ऐसा प्रतीत होता था कि प्राप्त सुविधाओं के ढाँचे में भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को ढाल कर इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी से जीवित रखा है । भारतीय संस्कृति के प्रति वहाँ के निवासियों के हृदय में अपार श्रद्धा थी । वहाँ उतनी ही हर्षोल्लास से शिवरात्रि, दशहरा, दिवाली, होली, ईद, बकरीद मनाई जाती थी जितनी जोश से कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के शिवालयों और ईदगाहों में ।

काली घटाओं में जैसे कभी कभी दामिनी की दमक जगमगाहट भर देती है वैसे ही वहाँ के भारतीय मूल के दो विशिष्ट नागरिकों, कस्टम ऑफिसर सूरजबली, उनकी पत्नी कानन और पुरोहित श्री रतनजी से मिलने के बाद हमारा वहाँ का शुष्क जीवन रसमय हो गया। ये दोनों ही सज्जन, दो तीन शताब्दियों पूर्व उस देश में भारत से आये पूर्वजों के वंशज थे। ये दोनों ही अपनी भारतीय हिन्दू संस्कृति को अपने जीवन से विलग नहीं कर पाए थे। उनके साथ जो सत्संग का सौभाग्य मिला वह अविस्मरणीय है.।

आदिकाल से सभी धर्म ग्रंथों में इस सम्पूर्ण सृष्टि के सर्जक, उत्पादक, पालक, संहांरक, सर्वशक्तिमान भगवान को "पिता" कह कर पुकारा गया है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में उन्हें "परमपिता" की संज्ञा दी गयी है । ईसाई धर्मावलंबी उन्हें अतीव श्रद्धा सहित "होली फादर" कह कर संबोधित करते हैं । हमारी "ब्रह्मकुमारी" बहनें उसी परम आनन्द दायक, अतुलित शक्ति प्रदायक, ज्योतिर्मय, शान्तिपुंज को "शिवबाबा" की उपाधि से विभूषित करके, सर्वशक्तिमान निराकार परब्रह्म परमेश्वर से साधकों के साथ पिता और सन्तान सा सम्बन्ध दृढ़ करतीं हैं । 

सांस्कृतिक परिवेश में हमें गयाना में सन १९७६ में ब्रह्मकुमारी मोहिनी दीदी और उनकी सर्वेसर्वा तेजोमयी दिव्य स्वरुपा “दादी” के सान्निध्य का, उनके दर्शन और प्रवचन सुनने का, ध्यानवस्थित मुद्रा में अविरल अश्रुधारा प्रवाहित करती हुई छवि को निहारने का तथा प्रेम विव्हल मन से अपने स्वरचित स्वागत गान से उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ---

धन्य अवसर आज का है स्वागतम, शुभागमन ।
आपका दर्शन हुआ है स्वागतम शुभागमन।।

आपके आने से जो सुख शांति हमको मिल रही ।
कर नहीं सकते बयाँ, प्रीती जो मन में भरी ।।

आपकी शिक्षामयी वाणी सदा हम सुन सकें ।
ब्रह्मा पिता की हम सदा आराधना भी कर सकें ।।

राह ऐसी दो दिखा जा सकें शिव बाबा के धाम ।
पूज्य दादी और भैया आपको शत शत प्रणाम ।।

वहां रहते हुए गयाना के कल्चरल सेंटर से जुड़े नृत्य प्रवीण पण्डित दुर्गालाल, तबला वादक श्री मिश्राजी, सरोद वादक श्री भास्करजी, संगीतज्ञ श्रीमती गुहा और गयाना की गायिका सिल्विया एवं पण्डित गोकरण शर्मा के सम्मेल और सौजन्य से हमने रामचरित मानस के चुने प्रसंग और सन्तों के भजन से भारतीय दर्शन को उजागर करता हुआ एक लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड ‘भजन माला’ बनाया ।

यहां पूरे देश की आबादी भारत के एक बड़े शहर की आबादी से भी कम थी । देश की ५५ प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की थी। मौलिक सुविधाओं पर उस सरकार ने ऐसे नियन्त्रण लगा रखे थे कि बहु संख्यक अधिक समृद्ध भारतीय मूल के नागरिकों को मजबूर हो कर अतिरिक्त मूल के अल्पसंख्यक नागरिकों के शासन में अपनी प्राचीन संस्कृति वेशभूषा खानपान और धर्म तक बदलना पड़ रहा था । 

भारतीय मूल के निवासी अधिकतर शाकाहारी थे । उस देश की सरकार ने आलू, प्याज तथा गेंहूँ की काश्तकारी तक पर निषेध लगा रखा था, इनका आयात भी वर्जित था । गाय का दूध तक मिलना दूभर था । बीफ हर चौराहे पर मिल जाता था। प्रत्यक्ष रूप में वह सरकार भारतीयों के प्रति भेद भाव रखती थी । परिस्थिति अति विषम थी। हमें भी इससे समस्या थी। पर छोडिये इन दुखदायी बातों को, डिप्लोमेटिक श्रेणी के विदेशी नागरिक होने के कारण हमारे हाई कमिश्नर पी. जौहरी, हाई कमीशन के अन्य अफसर श्री प्रभाकर, श्री बिसारिया, श्री चावला, और श्री बोस आदि ने हमें सब सुविधाएं प्रदान कर दी थी अतएव हमारा काम तो किसी तरह चल ही गया ।

टैनरी और बूट प्लांट बनाने की परियोजना में भारत सरकार द्वारा निर्धारित हमारी पोस्टिंग की अवधि में एम्स्टर्डम में बूट प्लांट की बिल्डिंग बन गयी थी, मशीने आ गयी थी पर चालू नहीं हो पायी थीं । 

रामजी का एडमीशन मेरिट लिस्ट के आधार पर आई. आई. टी. दिल्ली में हो चुका था । उन दिनों प्रेसीडेंट कॉमरेड बर्नहम की कूटनीतियों से गयाना में राजनैतिक और सामाजिक हालात बिगड़ रहे थे, लूटमार, अराजकता, छुरे की नोक पर घात प्रतिघात, बलात्कार जैसी घटनाएं घट रहीं थीं  । अतः हमने और अधिक वहां न रुक कर, भारत वापिस जाने का निश्चय कर लिया । 

गायनीज़ मित्रों की प्रेम भीनी स्मृतियों को समेटे हम परिवार सहित पोर्ट ऑफ़ स्पेन, डिज़्नी वर्ल्ड, फ्लोरिडा, न्यूयॉर्क और लन्दन के दर्शनीय स्थानों को देखते हुए घुमते घामते २६ मई १९७८ को भारत पहुँच गए ।


महानगरी मुम्बई की महामाया का वरदान

अपने कुलदेव और इष्टदेव की अहैतुकी कृपा से एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन एजेंसी मुम्बई और एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन कौंसिल मुम्बई के डिप्टी चीफ एक्ज़ीक्यूटिव पद पर आसीन हो कर मैं फरवरी १९७० से दो नवम्बर १९७५ तक मुम्बई में रहते हुए भारत सरकार की सेवा बड़ी निष्ठा और ईमानदारी से करता रहा । 

दिल्ली से मुम्बई स्थानांतर होने पर अपने रोगी पिताश्री, पत्नी तथा पाँचों बच्चों की टीम के साथ जब मैं महानगरी मुम्बई आया, तब अपनी छोटी बहिन माधुरी और बहनोई फिल्म्स डिवीज़न के डायरेक्टर, श्री विजय बहादुर चन्द्र के साथ, उनके सरकारी फ्लेट, ३६ हैदराबाद हाउस, नेपियन्सी रोड में लगभग एक वर्ष तक रहा । 

मई १९७१ में जब पूज्य बाबूजी को उनके आदेशानुसार कानपुर पहुंचा दिया, तब मैं परिवार सहित १६, गिरी अपार्टमेंट, जे. बी. नगर, अंधेरी पूर्व में किराए के मकान में रहने लगा । सभी बच्चे आई. आई. टी. पवई के केन्द्रीय विद्यालय में भर्ती हो गए और बी. ई. एस. टी. की बस से स्कूल जाने लगे और मैं अपने सहकर्मियों के साथ बस और लोकल ट्रेन की यात्रा करके ऑफिस जाने लगा ।

इस सन्दर्भ मे मैं आप सबको एक बात बताना चाहता हूँ कि मुम्बई में कार्यरत होने पर यदि मेरी अनुमति होती तो कोई भी एक्सपोर्टर हमारे परिवार की सुख-सुविधा का और रहने का अच्छे से अच्छा प्रबन्ध करवा देता, परन्तु वे जानते थे कि उनका यह कदम मेरी मन मर्ज़ी ही नहीं, मेरे सिद्धांतों के भी विरुद्ध होगा । यहां मैं तत्कालीन समाज के मन में बसी एक अवधारणा से अवगत कराना चाहता हूँ । जब मैंने एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन एजेंसी, दिल्ली में नौकरी करनी प्रारम्भ की थी तब मेरे स्वजन-सम्बधी और हितैषी मित्रों ने बधाई देते हुए यह भी कहा था कि इस विभाग में ऊपरी कमाई करने के अच्छे आसार हैं । उनकी यह धारणा मेरे मन को बहुत चुभी थी, उनके इस तीर से बहुत चोट पहुंची थी क्योंकि उनकी यह धारणा मेरे सहज स्वभाव और सिद्धांतों के विरुद्ध थी । उस समय मेरी अंतरात्मा ने प्रभु को पुकारा और अपना कर्तव्य पूरी लगन, उत्साह और ईमानदारी से करने के लिए विवेक बुद्धि और बल को प्रदान करने की उनसे याचना की ।

मुझे गर्व है कि मेरे बच्चों और उनकी माँ ने कभी भी अपनी मांगों की पूर्ति के लिए मुझे मेरा ईमानदारी का रास्ता छोड़कर, किसी ठेकेदार या एक्सपोर्टर के सामने हाथ फैलाने के लिए मजबूर नहीं किया । धर्मपत्नी कृष्णा जी के सहयोग से हमारी गृहस्थी की गाड़ी खिंचती रहती । मेरी आर्थिक मदद करने के लिए उन्होंने एक सत्र मलाबार हिल पर स्थित बिरला स्कूल में, फिर अस्थायी स्वरूप में भारत सरकार के हिन्दी टीचिंग स्कीम में अहिन्दी भाषी केन्द्रीय गजेटेड अफसरों को हिन्दी सिखाने का काम शुरू कर दिया ।

विडम्बना देखें, जहां मैं निजी कार पर सवार हो कर दफ्तर जाता था और दिन भर एयरकंडीशन्ड केबिन में बैठता था, वहाँ बेचारी कृष्णा जी दिन भर मुम्बई की उमस भरी गर्मी में, कभी पैदल चल कर तथा कभी बस और लोकल ट्रेन में धक्के खाती हुई, अंधेरी से चर्चगेट और कोलाबा में स्थित सरकारी दफ्तरों तक दौड लगाती रहती थीं । पांचो छोटे छोटे बच्चे, बेस्ट की दो "बसें" बदल कर घर से पवई के 'सेंट्रल स्कूल' जाते थे । जरा सोचिये, हमारी सबसे बड़ी बच्ची श्रीदेवी जो तब लगभग ११ वर्ष की थी, उनकी लीडर बन कर उनकी देखभाल करती थी । सहपाठी उसे "दीदी की रेल गाड़ी" का इंजन कह कर चिढाते थे । 

मैंने किसी दुःख, पीड़ा या निराशा से व्यथित हो कर उपरोक्त कथन नहीं किया है । मैं यह वर्णन, अति प्रसन्नता से और गर्व के साथ कर रहा हूँ क्योकि मेरी बीवी बच्चों को छोड़ कर मेरे घनिष्ट से घनिष्ट पारिवारिक सम्बन्धियों को यकीन नहीं होता है कि "इतनी आमदनी वाली कुर्सी" पर बैठ कर भी मैं "ऊपरी कमाई" से परहेज़ करता रहा हूँ ।

सच पूछिये, तो मुम्बई के कार्यकाल में हमें और हमारे परिवार को मिला है श्री विघ्न विनायक का आशीर्वाद और माँ मुम्बा देवी की कृपा का अद्भुत चमत्कारिक महाप्रसाद । 

शास्त्र कहते हैं कि मानव जीवन का अभ्युदय है श्रेय और प्रेय अर्थात आध्यात्मिक और सांसारिक प्रगति । इस महानगरी की माया ने दिया हमें और हमारे परिवार को अपनी प्रतिभाएं निखारने का और उन्हें उजागर करने का सुयोग और सुअवसर, और साथ ही साथ दिया सिद्ध संतों का सान्निध्य एवं उनके आशीर्वचन सुनने का सौभाग्य, स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही राहों पर चलने की सुख-सुविधा ।

कैसे, सुनिये और विचार करिये । 

कृष्णा, जो विवाह के बाद घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी के कारण कभी अकेले घर से बाहर नहीं निकली, उन्होंने मालाबार हिल पर स्थित बिरला स्कूल में एक सत्र तक अध्यापिका का कार्य किया, फिर अस्थायी रूप से जब भी सुअवसर मिला हिन्दी टीचिंग स्कीम के अंतर्गत कार्यरत हो कर अहिन्दी गजटेड ऑफिसर्स को हिन्दी पढाने का कार्य जिम्मेदारी से किया । तदनंतर १९७२-७३ के सत्र में बम्बई यूनिवर्सिटी में हिंदी में पी. एच. डी करने के लिए जब उनका नाम दर्ज हो गया, तब खालसा कॉलेज के प्रोफेसर डॉ श्रीधर मिश्र के निर्देशन में “रामचरित मानस का सांस्कृतिक अध्ययन“ पर शोध कार्य प्रारम्भ किया और १५ वर्षों के बाद पुनः कॉलेज जाना शुरू किया । कड़ी मेहनत के बाद, गयाना, दिल्ली, जालंधर आदि जगहों में परिवार के साथ रहते हुए, घर-गृहस्थी निभाते हुए, १९८१ में डिग्री प्राप्त कर ली ।

हमने, मुम्बई के पांच वर्षीय कार्यकाल में अपने सामर्थ्य और योग्यता से अधिक ही पाया, अपनी हैरल्ड कार, जो दिल्ली में खरीदी थी बेच कर और सरकार से ऋण ले कर सरकारी कोटे से नयी फीएट कार खरीद ली । कौंसिल के डायरेक्टर श्री चन्द्रनारायण मुडावल के सहयोग से अपने भतीजे अनुराग कुमार (छवि ) को कॉटेज इंडस्ट्री में सेल्समेन के पद पर नियुक्त करवा दिया ।

अभिनय के क्षेत्र में तो चमत्कार सा हुआ । जो हुआ वह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था । बात ऐसी है कि उन दिनों लाइफ इंश्यूरेंस कॉर्पोरेशन अपनी बीमा एजेंसी को प्रशिक्षित करने के लिए एक डॉक्युमेंट्री फिल्म “प्रोसपेक्टिंग" बना रहा था । फिल्म्स डिवीज़न के डायरेक्टर तिरुमलाई, जो दक्षिण भारत की प्रयोगात्मक फिल्मों के प्रसिद्ध डायरेक्टर थे, इसे बना रहे थे और उन्हें ऐसे पात्र की आवश्यकता और खोज थी जो सरकारी मुलाज़िम हो, ईमानदार, स्पष्टवादी और आकर्षक व्यक्तिव का धनी हो । उन्होंने मुझे खोज निकाला । मुझे अभिनय करना था राष्ट्रपति द्वारा पुरुस्कृत आदर्श विज्ञ बीमा अधिकारी का, जिसके समझाने से बीमा जनित लाभ की लालसा में जनता जीवन बीमा कराने लगे । इस किरदार को निभा कर मैंने अपने सांस्कृतिक जीवन की विधाओं में एक और विधा को जोड़ दिया । अभिनय के क्षेत्र में कामयाबी हासिल करना, यह मुम्बई नगरी की महामाया का चमत्कारिक प्रसाद नहीं तो और क्या है ?

संगीत-कला के क्षेत्र में वीणापाणि माँ शारदा की असीम कृपा से माधुरी, बबुआजी (विजयबहादुर चन्द्र)और छवि (अनुराग) के सम्मेल से बम्बई नगरी के उच्चस्तरीय रंगमंचों और सभागृहों में भजन-संध्या के कार्यक्रम सम्पन्न हुए । श्री दुर्गाप्रसाद मण्डेलिया के अनुरोध पर श्री राम गीत गुंजन, श्री डालमियाजी के आग्रह पर आरती गीत माला, रामाय नमः के लॉन्ग प्लेइंग रेकॉर्ड के अल्बम बने । माँ सरस्वती की कृपा से जहां ये पांच वर्ष गाते-बजाते कार्यक्रमों में स्वरांजलि अर्पित करते हुए व्यतीत हुए वहीं इनके माध्यम से अदृश्य स्वरूप में जाने अनजाने में हम सबका आध्यात्मिक चेतना का मार्ग भी प्रशस्त होता रहा ।

सिद्ध सन्तों के सत्संग के आयोजनों में भजन-सुमन अर्पित करने से मिला । श्री श्री माँ आनंदमयी, अनंत श्री स्वामी अखंडानंदजी, सत्य साईं बाबा,आदि का सान्निद्ध्य, उनका आशीर्वाद भरा प्यार, उनके आशीर्वचन, उनकी दिव्य दृष्टि से झरती हुई ईश कृपा का महाप्रसाद, उनकी यज्ञभूमि से संचरित ऊर्जा के स्पर्श की अनिर्वचनीय अनुभूति, जीवन सार्थक हो गया । बाजी (मधु ), बबुआजी, छवि, हम और हमारा परिवार मुम्बई के निकट स्थित गणेशपुरी में सिद्ध सन्त बाबा मुक्तानंद के दर्शन कर उनके आश्रम की सात्विक दिव्य तरंगों से स्नान कर और, शिरडी में साईबाबा के दरबार में अपने भजन-सुमन को अर्पित कर उनकी कृपा की अनुभूति का स्वर्गिक आनंद उठा कर धन्य हुए । कहाँ तक बताऊँ मुम्बई महानगरी की उपलब्धियाँ; द्वारका में विराजे द्वारकाधीश के भी दर्शन करा दिए ।

मुम्बई के कार्यकाल में कुलदेव, आराध्य देव और गुरुजनों के आशीर्वाद से हमारे जीवन के आध्यात्मिक सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक क्षेत्रों में आनंद ही आनंद बरस रहा था कि अचानक ऑफिस में आया एक तूफ़ान, जिसने सबकी नैया को डगमगा दिया । 

एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन कौंसिल के जॉइंट डायरेक्टर श्री पद्मनाभन अपना मानसिक संतुलन खो बैठे । उन्होंने निर्यात से सम्बंधित कार्यालयों में सरक्यूलर भिजवा दिया कि ई. आई.  ए. का ऑफिस बन्द हो गया है । सूचना पाते ही व्यापारियों, उद्धयोगियों, एक्सपोर्टरों के संसार में खलबली मच गयी, उनके पैरो तले से ज़मीन सरक गयी । उसके निदान के लिए हमने उच्चस्तरीय कर्मचारियों की मीटिंग करके सर्व सम्मति से कार्यवाही की, तो मंत्रालय ने मुझ पर ही आरोप लगा दिए।

ऐसी विषम स्थिति में किसने मेरी डूबती नैया को बचाया, किसने इस तूफ़ान के थपेड़ों से हमें उबारा ? वही सर्वेसर्वा सर्वसमर्थ परमात्मा ही तो था जिसके सहारे हमारे जीवन की नाव आगे बढ़ रही थी । 

महाभारत के युद्ध में द्रौपदी को अभयदान देते हुए पितामह भीष्म ने कहा था “द्रौपदी, जब तक कृष्णमुरारी तेरा संरक्षक है, कोई भी तेरा अनिष्ट नही कर सकता । ’ जहँ जहँ दुसह कष्ट भगतन पर, तहँ तहँ सार करे ;सूरजदास श्याम सेवें ते दुस्तर पार करे; जो घट अंतर हरी सुमिरे'। यदि सर्वशक्तिमान का आश्रय लिया है, तो "वह" और केवल "वह" ही इतना उदार है जो "बिनु सेवा हम जैसे दीन जनों पर कृपालु रहता है" । मुझ पर भी कृपा की, सहकर्मी श्री पद्मनाभम की असन्तुलित मनः स्थिति से आये आपत्तिजनक समस्याओं के तूफ़ान से मेरी नैया को उबारा, मेरा बेड़ा पार किया ।

कैसे ? नवम्बर १९७५ में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के अनुरोध पर मुझे “लैदर एक्सपर्ट टू द गवर्नमेंट ऑफ़ गयाना” के पद पर प्रतिष्ठित करके ई. आई. कौंसिल ने डेप्युटेशन पर बूट प्लांट लगाने के लिए ढाई वर्ष के लिए गयाना भेज दिया, सारे बच्चों के डिप्लोमेटिक पासपोर्ट बनवा दिए । यह है प्यारे प्रभु की कृपा । यह "कृपा" उसे ही मिलती है जो सब प्रकार से अपने इष्ट पर निर्भर हो ।

जाका मीत राम सुखदाता, उस जन को दुःख नहीं सताता ।

चाहे कितनी विपदा आये, विविध ताप भव रोग सताये ।
राम सखा हर पल मुस्काता, उस जन को दुःख नहीं सताता ।।

रामकृपा पर निर्भर रहता, प्रभु उसके सारे दुःख हरता ।
अपनी कृपा जिस पर बरसाता, उस जन को दुःख नहीं सताता ।।

गज सम अहंकार मद त्यागो, निर्बल हो प्रभु से बल मांगो ।
सबल करेगा तुरत विधाता, उस जन को दुःख नहीं सताता ।।