गुरुवार, 31 मार्च 2022
गुरुवार, 24 मार्च 2022
दिव्य शान्ति आनंद छकूँ मैं
प्रियजन !
सर्व विदित है कि आपका यह "भोला" न तो संत है, न ग्यानी, न विरागी, न जोगी । सौभाग्यवश गुरुजन के गुरुमंत्र से, उनकी करुणा और कृपा से, उनके आशीर्वाद से इसे अनेकानेक उपलब्धिया हुईं । ज़िक्र करूँगा, तो कदाचित अभिमानी अहंकारी कहा जाऊँगा । अस्तु केवल यह बताऊंगा कि गुरुजन के आदेशानुसार साधना पथ पर मंत्र जाप, सिमरन, ध्यान एवं स्वर साधना करने से मुझे, उनके आशीर्वाद ने, इस स्थूल जगत में जहां एक तरफ धरती से उठाकर आकाश तक पहुंचाया, वहीं मेरी अंतरात्मा को जिस परमानंद का रसास्वादन करवाया, वह अवर्णनीय है ।
सर्वशक्तिमान परम प्रभु का आदेश है कि आत्म कथा के अन्तिम छोर में "कृपा" के दृष्टांत प्रस्तुत करूं और मैं वैसा ही कर रहा हूँ । समस्या यह है कि इस अंतिम पडाव में मुझे अपने आस पास ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है जो "उनकी" कृपा के बिना मुझे प्राप्त हुआ हो ।
मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी हरेक सांस, मेरे हृदय की प्रत्येक धडकन, मेरा रोम रोम, मेरी शिराओं में प्रवाहित रक्त की एक एक बूंद, जो कुछ भी इस समय मेरे पास है वह सब ही "उनका" कृपा प्रसाद है । तर्क करने वाले तर्क करते रहते हैं लेकिन वे व्यक्ति जिन्होंने "परम" की अदृश्य शक्ति का अनुभव अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों में किया है वे भली भांति जानते हैं कि भगवत्कृपा अनुभवगम्य है; उसके आनंद का अनुभव करो ।
अपनी आत्मकथा में अब तक मैंने कुछ निजी अनुभवों की झलक प्रस्तुत की है, जीवन की ढलती अवस्था में अपने जीवन का एक विलक्षण अनूठा अनुभव का वर्णन करने का प्रयास करने जा रहा हूँ । न तब समझ पाया था, न आज कि वह स्वप्न था अथवा जाग्रत अवस्था का सच्चा अनुभव । जो भी रहा हो, अब भी उसकी याद आते ही पूरे शरीर में आनंद की लहर दौड़ जाती है ।
मेरे अतीत की स्मृतियों में जीवन्त है, नवम्बर २००८ का वह दिन, जब मैं नोएडा के मेट्रो अस्पताल में इंटेन्सिव केयर यूनिट में अचेतन अवस्था में अपनी जिंदगी गुज़ार रहा था, हॉस्पिटल के आई. सी. यू. में मैं कितने दिन अचेत पड़ा रहा और कितने दिन मेरी भौतिक आँखें बंद रहीं थीं, मुझे याद नहीं । पर उतने दिन मुझे किसी प्रकार की कोई मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा महसूस ही नहीं हुई, मेरा बाह्य जगत से कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा, यह पक्का है । उन दिनों जो चमत्कारिक अनुभव मुझे वहाँ हुआ, वह अविस्मरणीय है ।
प्रियजन ! वह अनुभव ही हमारे इस मानव जीवन की सबसे सार्थक उपलब्धि है ।
अतीत की स्मृतियाँ याद दिला रहीं है, नवम्बर २००८ की एक रात्रि, जब मैं जन्म-मरण के झूले में झूल रहा था, डॉक्टर क्रिटिकल अवस्था की घोषणा कर चुके थे, उस अचेत अवस्था में मुझे दिखा खुला हुआ विशाल सिंहद्वार और धवल प्रकाश पुन्ज से आवृत वैभवशाली प्रासाद जिसकी चमक धमक मेरी बन्द आँखो को भी चकाचौन्ध कर रही थी और मैंने सुना था सुमधुर "श्रुति" का गान ।
तन निश्चेष्ट था, ऐसे में, मेरी बंद आँखों के रजतपट पर जो प्रकाश पुंज था वह कदाचित भगवान् की कृपा का स्वरूप ही रहा होगा । वास्तव में वह था क्या ? मैं कहाँ था ? मैं अभी भी इसका निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ । तब से ही मैं इस सोच में पड़ा हूँ कि अचेनता, बेहोशी, मदहोशी को मैं किस नाम से पुकारूँ ? इतना तो मुझे अच्छी तरह याद है कि अस्पताल में भर्ती होने से पहले घर में ही स्वजनो के बीच मैं कितने घंटों तक उसी अर्ध सुप्त अवस्था मे पड़ा रहा था । अस्पताल में शायद वह तन्द्रा अधिक गहन हो गयी होगी ।
अपनी अचेतन अवस्था में आई, सी. यू . में ही मैंने देखा कि मैं एक राज प्रासाद के विशाल सिंहद्वार के बाहर खडा हूँ । प्रासाद की प्राचीर के बाहर घनघोर अँधेरा है । हाथ को हाथ नहीं सूझता है । लेकिन खुले द्वार के आगे इतना धवल प्रकाश पुँज है कि आखें चका चौंध हो रहीं हैं । मैं देख रहा था उस प्रासाद के घेरे को, जिसमें संपूर्ण सृष्टि का विशिष्ट वैभव और सौन्दर्य समाहित था । इतना मनमोहक था वह दृश्य कि उससे नज़रे हटाने की इच्छा ही नहीं होती थी । उस राज प्रासाद का वैभव, उसकी विलक्षण सुन्दरता, उसके नन्दन बन के समान कुसुमित, सुरभित और सुगन्धित उद्यान और उसमे कूकती कोयल तथा चहचहाती अन्य चिड़ियों का मधुर कलरव; मेरी आत्मा के नेत्र खुले के खुले रह गये, पल भर को भी मेरी पलके नहीं झपकी । कितना निराला खेल चल रहा था ।
उस बुलन्द दरवाजे के आगे मैं निर्बल, बेबस, निराश्रय प्राणी अवाक् खडा था, उस विलक्षण प्रासाद में प्रवेश पाने को मेरा मन व्याकुल हो रहा था । मैं उस दूधिया प्रकाश पुंज को निकट से देखना चाहता था और उस मे समाहित सात रंगी किरणो से अपने रोम रोम को नहला देना चाहता था l अचेतन अवस्था में बिल्कुल सफ़ेद, चान्दी की तरह चमकीले, आँखो को चकाचौंध कर देने वाले रोशनी के गोले देखने के बाद मैं इतना संम्मोहित हो गया था कि उस निन्द्रा से जागना ही नहीं चाहता था । मेरा अन्तर जिस परमानन्द का रसास्वादन कर रहा था, उसको खोना नहीं चाहता था । मेरी दशा उस प्यासे राही के समान थी जिसे तपते मरुस्थल में दूर से ही एक हरा भरा ओएसिस दिखायी पड़ रहा हो, पर उसके पग इतने शक्तिहीन हो कि आगे बढ़ पाना उसे दुष्कर हो रहा हो ।
उठते नहीं चरन, निर्बल मैं, कैसे आ पाऊँगा अन्दर ।
मैं हूं वह, प्यासा राही जो, मूर्छित हुआ द्वार पर आकर ।।
प्रीतम प्यारे आगे आओ, गिर जाऊँगा हाथ बढ़ाओ ।
भरलो मुझे अङ्क में अपने, जनम जनम की प्यास बुझाओ ।।
मैं दरवाजे के बाहर ही खड़ा रहा । मैं उतना साहस बटोर न पाया कि बिना आज्ञा के भीतर घुस जाऊं और न कोई भीतर से आया मुझे अन्दर ले जाने को । मैं खड़ा का खड़ा रह गया । पर ये क्या हुआ, अचानक वह द्वार धीरे धीरे बन्द होने लगा । उसके बाहर झांकती प्रकाश की किरणें क्षीण होने लगी और मेरी बन्द आँखो के आगे से शनै : शने: अन्धकार उतरने लगा । मेरे कानों में मुरली की मधुर धुन के समान एक धुन बजने लगी, ऐसा लगा जैसे कोई कह रहा हो, "अभी समय नहीं हुआ, लौट जाओ । यात्रा पुन: शून्य से प्रारम्भ करो" मेरे कान में वह एक शब्द "शून्य" तब तक गूंजता रहा जब तक मैं पूरी तरह सचेत नहीं हो गया ।
इस दृश्य की सुन्दरता और मनोहरता का शब्दों में वर्णन कर पाना मेरे जैसे निरक्षर प्राणी के लिए असंभव है । कोई भी भाषा, शैली, कोई भी लिपि उतनी सक्षम नही कि उस विलक्ष्ण आनंद दायक सुन्दरता का वास्तविक शब्द चित्र खींच सके । मुझे उस मदहोशी में वो तस्कीने दिल मिल रहा था जो चिलमन के सरक जाने पर पर्दे के पीछे से छुप छुप कर अपनी महबूबा का दीदार करने वाले दीवाने आशिक को होता है, जो उस पल तक केवल तसव्वुर में ही उसकी तस्वीर देखता रहा है । यदि उर्दू शायरों की जुबान में कहूँ तो शायद ऐसी तस्वीर बनेगी --
मुझको मुंदी नजर से ही सब कुछ दिखा दिया ।
तेरे खयाल ने मुझे तुझ से मिला दिया ।।
मुझको दिखा के चकित किया रंग सृष्टि का ।
आनंद भरा रूप प्रभु का दिखा दिया ।।
चेहरा पिया का खेंच कर मन की किताब पर ।
मेरे हृदय को प्यार का गुलशन बना दिया ।।
मेरी दशा वैसी थी जैसे प्रेयसी का घूँघट उठ जाने पर उसका सुंदर मुखड़ा एकटक निहारते किसी प्रेमी की होती है । शायद बिलकुल ऐसा ही सुख, ऐसा ही आनंद, जीवन भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद, दर्शनाभिलाषी भक्त को अपने प्रियतम इष्ट देव के दर्शन से प्राप्त होती है ।
प्रियजन! उस दिव्य प्रकाश और श्रुति का समग्र दर्शन, उसके तुरन्त बाद ही परम पूज्य डॉ विश्वामित्र का दर्शन, मेरे मस्तक पर उनका वरद हस्त और उसके साथ साथ अकस्मात ही मेरा आई. सी. यू. से कमरे में आ जाना और स्वस्थ होना प्रारम्भ हो जाना क्या दर्शाता है ? यह मेरे चिंतन मनन का विषय रहा । कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमें; पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं । और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की ।
उस समय तो अशक्त था पर पुन : चेतनता पा जाने के बाद भी मैं अपने कृपण मन की गुप्त तिजोरी मे वह सारा आनन्द जो अचेतन अवस्था मे मुझे प्राप्त हुआ था, सन्जोये रहा । मैंने किसी से इस विषय मे वार्ता भी नही की । प्रश्न यह था कि जिस विषय को मैं स्वयं नही समझता उस विषय मे किसी अन्य से क्या चर्चा कऱता । अतएव सचेत होने के बाद भी, मैं बहुत समय तक इस चिन्तन मे व्यस्त रहा कि पुरातन काल से आज तक सिद्ध आत्माओं ने कठिन तपश्चर्या के पश्चात जिस "परम" का अनुभव किया वह कैसा था ? और मैंने, इस मरणासन्न साधारण मनुज ने, जो अपने क्षणिक अनुभव में देखा, वह स्वरुप (यदि सच्चा परम था) तो वह उन महात्माओं को दीखे परम से कितना भिन्न था ? वैदिक ऋषियों ने उद्घोषणा की है "ब्रह्मलोक प्रकाशमयम" ।
२००८ के हॉस्पिटल प्रवास के दौरान क्या क्या हुआ मुझे अब वो भी पूरा पूरा याद नहीं है । आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे इस कथन को "मेरा अनुभव" मान कर पढ़ें । इस पर कोई अनावश्यक चर्चा न करें । मैं ये अनुभव इस लिए बता रहा हूँ कि इष्ट-कृपा पर भरोसा रखने वाले मेरे प्रियजन भी अपने अपने इष्ट के उतने ही कृपा पात्र बन सकें जितना यह अति साधारण नामानुरागी दासानुदास बन पाया है. ।
इस सन्दर्भ में बॉस्टन में रहते हुए अभी हाल ही में, मुझे एक विचित्र जानकारी मिली, मुझे ज्ञात हुआ है, कि आध्यात्मिक विषयों के शोध कर्ता एक अमेरिकन ने अनेको ऐसे अनुभवी साधकों से साक्षात्कार किया जिन्हें ध्यानावस्था में ऐसा प्रकाश दिखायी दिया था । उन्होंने यह देखा कि उन साधको में से लगभग पचास प्रतिशत ऐसे थे जो प्रकाश के उस दिव्य सौन्दर्य से ऐसे सम्मोहित हुए कि उस पर से नज़र हटा पाना उनके लिये मृत्यु को आलिंगन करने जैसा लगा । उस सुन्दर दृश्य को वह किसी भी कीमत पर अपनी आँखो से दूर नहीं करना चाहते थे ।
मैं उस अमरीकी शोधकर्ता के उन दस प्रतिशत अनुभवी साधको में शामिल हो गया हूँ जिनका जीवन उस विलक्षण "ज्योति-श्रुति" दर्शन के बाद एकदम बदल गया । कदाचित् आपको भी मेरे जीवन का यह बदलाव नज़र आया होगा ।
मुझे भी याद आ रहा है कि अचेतावस्था के उस अनुभव के बाद जब मैं उठा तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अब वह व्यक्ति ही नहीं हूँ जो मैं रुग्णावस्था से पहले था । द्वार बन्द हो जाने के कारण मैं "परम-धाम" में प्रवेश नहीं कर पाया और जीवन यात्रा समाप्त करते करते मैं पुनः यात्रा शुरू करने को मजबूर हो गया । मैं स्वस्थ हो जाने के बाद, बहुत दिनो तक अपने स्वजनो से कहता रहा कि "परमधाम" के स्वामी "उन्होंने" मुझे द्वार से ही वापस कर दिया पर यह नहीं बताया कि मेरे नये जीवन मे अब "वह" मुझसे नया क्या करवाना चाहते हैं? "जीवन दान" मिलने के बाद मैं सोचा करता था कि क्या किया जाये । इस प्रश्न का उत्तर मिल गया - भजन-कीर्तन और सिमरन ।
श्री राम शरणम के संस्थापक सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की महनीय कृपा से मैंने राम नाम की जो अमूल्य निधि पायी थी उसकी साधना के लिए मैंने भाव-भक्ति भरे भजन-कीर्तन और जप-सिमरन जैसे साधन को अपनाया । दिव्य गुरु जनों के प्रोत्साहन से मैंने अपनी "साधना" को संगीतमय "नारदीय" मोड़ दे दिया ।
स्वामीजी ने अनुमोदन किया, प्रेमजी महाराज की प्रेरणा रही, डॉ विश्वामित्तर जी ने उत्साह बढाया और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि जब तक जीवन है, अपनी शब्द-रचना, स्वर संयोजना और स्वरलहरी में अपनी आत्मा को उंडेल कर अपने आराध्य देव को रिझाता रहूंगा । अब तो प्रियजन "मोहिं भजन तजि काज न आना", भजन के अतिरिक्त और कुछ न मैं जानता हूँ, न जानने का प्रयास करता हूँ । मुझे नवजीवन देकर हॉस्पिटल के क्रिटिकल केयर यूनिट में ही प्रभु ने सूक्ष्म रूप मे मेरे चिन्तन और मेरी भावनाओं में प्रगट होकर मुझे आदेश दिया था कि मैं उनसे प्राप्त जीवन दान के समय को बिताने के लिए अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों का लेखन कर डालूँ और भजन-कीर्तन-सिमरन में मगन रहूँ । अब तो बस "सर्व शक्तिमय नाम जपूँ मैं, दिव्य शक्ति आनंद छकूँ मैं" ।
श्री रामशरणम के गुरुजनों की महनीय कृपा का वर्णन करना मेरे सामर्थ्य से परे है, जिनसे आत्मशक्ति पा कर मैंने अवस्थानुसार जीवन भर विवेक बुद्धि से कार्य किया, कर्मयोग की साधना में कर्म से सृष्टिकर्ता का पूजन किया । आजीविका अर्जन के विहित कर्म अपनी सरकारी नौकरी में, मैं उच्चतम शिखर पर पहुँच गया । स्वेच्छा से साठ वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो कर कुछ वर्षों में सब बच्चों के विवाह-संस्कार सम्पन्न कर और उनको आजीविका अर्जन के लिए स्वावलम्बी बना कर, उनके भरण-पोषण के उत्तरदायित्व से मैं मुक्त हो गया । फिर रह गया एक ही ध्येय, एक ही कार्य, एक ही लगन, एक ही चिंतन - "सर्व शक्तिमान परम पुरुष परमात्मा के गुणों का गान करना, उनकी महिमा का बखान करना, भक्तिभाव से भजन-कीर्तन करना और मगन रहना" । सद्गुरु स्वामीजी की आदेशात्मक वाणी है--
भक्तों भजिये नाम को भाव भक्ति में आय ।
आत्मज्ञान का है यह उत्तम परम उपाय ।।
(भक्ति -प्रकाश से संकलित)
भक्ति का एकमात्र साधन जो मैंने बचपन से आज तक किया (या यूं कहें कि, मैं कर पाया) वह है "भजन गायन" और "कीर्तन" । मन मंदिर में अपने "प्यारे प्रभु" का विग्रह प्रतिष्ठित कर, बंद नेत्रों से "प्यारे" की छवि निरंतर निहारते हुए, सुध बुध खोकर "उनका" गुणगान करना, गीत संगीत द्वारा "उनकी" अनंत कृपाओं के लिए अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना, यह है मेरा भजन कीर्तन ।
कीर्तन आत्मा से निकली हुई झंकार है । कीर्तन में मोहक शक्ति है । कीर्तन में गायक साधकों के स्वरों के अतिशय मधुर नाद एवं वाद्यों की झंकार तथा करतल ध्वनि के संयोग से एक अद्भुत दिव्यता अवतरित होती है जिससे गायकों एवं श्रोताओं को परमानंद स्वरूप में "परब्रह्म"के दर्शन की अनुभूति होती है । श्री राम शरणम के सत्संगों में इसे मैंने स्वयं देखा और अनुभव किया है । श्रद्धेय स्वामी जी महाराज तथा श्री प्रेमजी महाराज और डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज मस्ती में झूम झूम कर गाते और नाचते थे और अपने साथ साथ साधकों को भी गवाते और नचाते थे । इन सभी को मैंने उनकी ही धुनों पर मस्ती से नाचते हुए साधकों के हृदय में राम नाम की लौ लगा कर उनके मन मन्दिर की सुषुप्त भक्ति भवानी को जगाते हुए देखा है । मेरा अनुभव है कि कीर्तन में तल्लीनता "मैं-तुम" का भेद मिटा देती है, मन मीठे नाद में ऐसा रम जाता है, इतना मस्त हो जाता है कि उसे तन मन की सुधि नहीं रहती, ऑंखें भर आतीं हैं, गला अवरुद्ध हो जाता है, मुंह से बोल नहीं निकलते, तन रोमांचित हो जाता है ।
प्रियजन, न कवि हूँ, न शायर हूँ, न लेखक हूँ, न गायक हूँ, फिर भी ईश्वरीय प्रेरणा से अनवरत लिख रहा हूँ । परम सत्ता ने प्रेरणास्रोत्र बन कर जब जो कुछ भी लिखवाया, वही लिखा, जो कुछ शब्द रचना करायी, स्वर-संयोजना कराई, वही स्वयं गा रहा हूँ, बच्चों से गवा रहा हूँ । आप ज्ञानी हैं, आप जानते हैं "कर्ता राम है ", फिर हम कहाँ ? वह ही गवाता है, वह ही गाता है, वह ही सुनता है । सीखा नहीं ? अभिमन्यू ने व्यूह भेदन कब, कहाँ सीखा ? यह दास क्या प्रोफेशनल गायक है ? क्या इसने किसी से विधिवत गायन सीखा ? नहीं । गुरुजन ने प्रोत्साहित किया, जैसी उनकी आज्ञा हुई, वही किया । उनको अच्छा लगता है, जब तक शक्ति है, जब तक सांसे हैं, गाऊंगा । परम दयालु हैं वह ? किसके शब्द ? किसकी धुन ? किसने किसको सिखाया ? किसकी वाणी में रेकॉर्ड हुआ ? भूल गया ।
प्रियजन, अधिकतर भजनों का सृजन यूं होता है --- मध्य रात्रि में, मेरे प्यारे सद्गुरु कहूँ या परमगुरु, इस दास के कानों में धुन सहित शब्द फूंक देते हैं । उसके बाद नींद तब तक नहीं आती जब तक तकिये के नीचे पड़ी डायरी में शब्द और छोटे से केसेट रेकॉर्डर पर वह, आकाश से मध्य रात्रि में अवतरित शब्द व धुन रेकॉर्ड नही हो जाती । उनके" शब्द "उनकी" धुन, सबको पसन्द आती है, श्रेय में "परमानन्द प्रसाद" इस दास "भोला" को दिला देते हैं "मेरे प्यारे" । कितने दयालु हैं वह !!
लगभग मेरे जीवन की यह यात्रा युवावस्था में ही प्रारंभ हुई थी, आज भी यह यात्रा उसी प्रकार आगे बढ रही है । कभी मध्य रात्रि में तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी भक्ति रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं । धीरे धीरे पूरे भजन बन जाते हैं । मेरे मानस से स्वतः प्राक्रतिक निर्झरों के समान, श्री राम शरणम के तीनों गुरुजनों के आध्यात्मिक चिंतन संजोये भजनों की रचना एवं गायन का प्राकट्य होने लगता है ।
मुझे अपने इन समग्र क्रिया कलापों में अपने ऊपर प्यारे प्रभु की अनंत कृपा के दर्शन होते हैं, परमानंद का आभास होता है । हमे आनंद आता है अपने इष्ट के गुण गाने में । ऐसा क्यूँ न हो, उन्होंने हमें शब्द एवं स्वर रचने की क्षमता दी, गीत गाने के लिए कंठ और वाद्य बजाने के लिए हाथों में शक्ति दी । "उनसे" प्राप्त इस क्षमता का उपयोग कर और पत्र पुष्प सदृश्य अपनी रचनायें "उनके" श्री चरणों पर अर्पित कर हम संतुष्ट होते हैं, परम शान्ति का अनुभव करते हैं, आनंदित होते हैं ।
संत महापुरुषों का कथन है कि जीव को यह सूत्र निरंतर याद रखना चाहिए कि उसे कभी, किसी एक निश्चित पल में इस नश्वर शरीर को जिसे वह भूले से चिरस्थायी माने हुए हैं एक न एक दिन, इस संसार रूपी रैन बसेरे में, निर्जीव छोड़ कर जाना ही पडेगा । उसका अपना कहा जाने वाला 'बोरिया बिस्तर' यहाँ ही रह जाएगा । उसके अपने कहे जाने वाले सब सम्बन्धी यहीं रह जायेंगे ।
निर्विवाद सत्य तो यही है कि जन्म से लेकर आज तक हम केवल उस प्रभु की कृपा के सहारे ही जी रहे हैं और उस पल तक जीते रहेंगे जिस पल तक वह पालनहार हमें जीवित रखना चाहता है । परमात्मा द्वारा निश्चित पल के बाद हम एक सांस भी नहीं ले पाएंगे, प्राण पखेरू अविलम्ब नीड़ छोड़ उड़ जायेगा, सब हाथ मलते रह जायेंगे । सर्व शक्तिमान परम पुरुष दयालु देवाधिदेव के अहसानों की लम्बी दासताँ हैं, जब तलक सांस है, तब तक चलती रहेगी ---
आत्म कथा है यह मेरी इसलिए पहले यह ही सुनिए कि मेरी यही इच्छा है कि मैं सदा प्यारे प्रभु को धन्यवाद देता रहूँ, उन क्षणों के लिए जिसमें वे हमें परमानंद की अनुभूति कराते रहे, हमें दिव्य प्रकाश की ओर ले जाते रहे, अपने स्पर्श का, अंग-संग रहने का बोध कराते रहे ।
मेरी हार्दिक इच्छा है कि परम शान्ति की धारा अंतरतम तक प्रवाहित होती रहे, मैं दिव्य शक्ति का आनंद छकता रहूं, अंतिम श्वास तक प्रभु मेरे अंग-संग रहें और मैं हर पल उनका सिमरन करता रहूँ।
अब सुनिये कि मैंने स्वयं अपने लिए क्या शुभकामना की, क्या प्रार्थना की और प्यारे प्रभु से अपने लिए क्या 'वर' माँगा । मेरे प्रभु । मेरे नाथ । मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए । बस जब तक जीवन है, आपके सन्मुख, आपसे ही प्राप्त क्षमताओं के संबल से, मैं आपके ही शब्द, आपकी ही धुनों से सजा कर, आपके ही कंठ से मुखर कर, आपकी ही प्रेरणा से, उन्हें अपनी स्वरांजलि बनाकर आपके श्री चरणों पर अर्पित करता रहूँ । मेरे प्यारे मुझे जनम जनम तक "अपने श्रीचरणों" के प्रति अखंड प्रीति प्रदान करो, मैं 'आपको' अनंतकाल तक न भूलूं, ऐसा वरदान दो ।
बाक़ी हैं जो थोड़े से दिन, व्यर्थ न हो इनका इक भी छिन ।
अंतकाल करूं तेरा सिमरन, मिले शान्ति विश्राम ।।
प्रेम-भक्ति दो दान, यही वर दो मेरे राम ।
रहे जन्म जन्म तेरा ध्यान, यही वर दो मेरे राम ।।
विश्वम्भरनाथ “भोला”
मकर संक्रांति
१४-१ १७
बुधवार, 23 मार्च 2022
परम कृपालु सहायक गुरुजन
हमारा परम सौभाग्य रहा कि हम दोनों को (कृष्णा जी और मुझे) आज से लगभग छै दशक पूर्व ही मिल गये थे, हमारे सद्गुरु परम श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज और उन्हीं की श्रंखला के अंतर्गत स्वामी जी के बाद श्रद्धेय श्री प्रेमजी महाराज और उनके बाद आस्तिक भाव की अभिवृद्धि की परंपरा में पूर्णतः समर्पित डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज ।
स्वामी जी ने नाम दान दे कर किया था मनुजता का उद्धार, श्री प्रेमजी महाराज ने निःस्वार्थ सेवा का संकल्प लेकर, घर घर जाकर, दवा खिलाकर किया था रोगियों का उपचार और डाक्टर विश्वामित्र महाजन जी ने विश्व के मित्र बन कर सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया और बरसायी सभी साधकों पर प्रेम प्रीति की अमृत धार ।
ये सभी गुरुजन अतीन्द्रिय शक्तियों से सम्पन्न थे, उनके आशीर्वाद में, उनकी दया दृष्टि में अपार शक्ति निहित थी । श्रीरामशरणम लाजपत नगर, दिल्ली के इन तीनों सद्गुरु की निराली छवि, मन मोहिनी मुस्कान, आल्हादित मुखमण्डल, दिव्य तेज; आज भी सब साधकों के उर-अंतर में बसा है । अनजान, अपरिचित व्यक्ति भी यदि इनके दर्शन कर लेता था तो इनकी छवि को भुला नहीं पाता था, फिर साधक जनों के तो कहने ही क्या ।
अपनी आपबीती बताऊँ ; जब जब मैं अपनी आत्मकथा के पृष्ठ पलटता हूँ, मुझे तीनों गुरुजनों के स्नेहिल स्पर्श का अहसास ही होता है । ये तीनों सद्गुरु अपनी कृपा दृष्टि से हमारे ऊपर और हमारे परिवार के ऊपर परम कृपालु रहे, सहायक रहे, पथ-प्रदर्शक रहे, भक्ति-भाव से भरे भजन से प्रभु की उपासना का साधन साधने के प्रेरक रहे, हमारे लौकिक और दैवी जीवन के निर्माणकर्ता रहे ।
सद्गुरु स्वामीजी महाराज की अहैतुकी कृपा ने हमारे हृदय में नाम की ज्योति जगाई, उसके दिव्य प्रकाश में हमारा आध्यात्मिक पथ प्रशस्त किया और उन्होंने नामयोग के अंतर्गत नाम दीक्षा दे कर हमारा उद्धार किया; प्रेमसिन्धु पूज्य प्रेमजी महाराज ने हमें कर्तव्य-परायणता का पाठ पढाया, निष्ठापूर्वक ईमानदारी से सेवा भाव की कर्तव्य भूमि पर हमें चलाया और जब कहीं पर भयावह परिस्थितियों ने हमें दबोचा, मीलों दूर रहने पर भी, अपनी संकल्प शक्ति से प्रगट हो कर हमे उबारा;और महर्षि डॉ विश्वामित्तरजी ने भजन-कीर्तन के आनंद की मस्ती में डुबो कर प्रेम-प्रीति की अमृतधार प्रवाहित करने में हमारी मदद की ।
जैसा मैंने पहिले भी बताया है, कि ये तीनों सद्गुरु सर्वदा हमारे ऊपर बड़े दयालु, कृपालु रहे ।
सेवा, विनम्रता, और प्रेम की प्रतिमूर्ति श्री प्रेमजी महाराज जी ने राम मन्त्र सिद्ध कर लिया था । अतः वे अपनी संकल्प शक्ति से हजारों मील दूर रहते हुए भी हमारी सच्ची पुकार सुन कर तत्क्षण हमारा मार्गदर्शन करते थे, कल्याण करते थे । दक्षिणी अमेरिका में स्थित गयाना में वे हमें मुसीबत से उबारने आये । मौन रहकर भी साधक के मन के विचारों को जानकर उसका समाधान कर देना, पूज्य प्रेमजी महाराज की बहुत बड़ी विशेषता थी । श्रीदेवी का विवाह संस्कार सम्पन्न करने से पूर्व जब हम दोनों उनका आशीर्वाद लेने श्री रामशरणम, दिल्ली गए, उनके दर्शन किये, उनसे मिले पर हमने अपनी कुछ इच्छा प्रगट नहीं की, कुछ माँगा भी नहीं, उनकी कुपालुता देखिये, दर्शन करके जब हम एक आध कदम ही चले थे तो हमें बुलवाया और कहा 'बेटी का विवाह करने जा रहे हो, गले नहीं मिलोगे’ । कैसे हमारे मन की बात जान ली, हम उनके पास इसीलिए तो गए थे । फिर गले लगाया, अमृतवाणी पर श्रीदेवी के लिए आशीर्वचन लिखकर उसके लिए अमूल्य उपहार दिया और फ़िलेडैल्फ़िया अमेरिका में स्वामीजी के साथ मेरी बेटी श्रीदेवी को आशीर्वाद देने उसके घर भी पधारे; अदृश्य रूप से, स्वप्न में । उन्होंने निराली कृपा की, झोली तो हमारी छोटी रही, उनकी कृपा अपरम्पार थी ।
श्री प्रेमजी महाराज के महानिर्वाण के बाद सर्वसम्मति से ट्रस्ट ने डाक्टर विश्वामित्र महाजनजी को, जिन्होंने श्री प्रेमजी महाराज के आदेशानुसार मनाली में रह कर पाँच वर्ष तक प्रबल तपस्या की थी; श्रीरामशरणम् रिंग रोड दिल्ली के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के पद पर प्रतिष्ठित किया । यद्यपि डॉ महाजन ने देवी शक्ति के आशाीष से बहुत सिद्धियां पायीं थीं जिनका प्रयोग उन्होंने अपने जीवन काल मे साधको की मुक्ति और कष्ट निवारण के लिये किया था लेकिन वे उन सिद्धियों के अधिकारी है, यह न तो किसी को बताया न जताया सिर्फ बोलते रहे कि परम प्रभु श्री राम और “बाबा गुरु” स्वामी जी महाराज की कृपा से हो रहा है, वे ही प्रतिपालक हैं, सहायक हैं । परम पूज्यनीय श्री विश्वामित्र जी महाराज जी ने दोनों गुरुजनों से विरासत मे मिले अक्षत आध्यात्मिक कोष में कई गुना वृद्धि करते हुए देश विदेश मे जन जन तक राम नाम के अमृत प्रसाद को बांटा I एक सच्चा, सरल, विनम्र, निष्काम, निराभिमानी भक्त व गुरुमुखी, अनुशासनप्रिय शिष्य ही गुरुजनों द्वारा अपनाई गई सीधी राह पर चलकर उनके द्वारा रोपे गये बीज को विशाल वट वृक्ष बना सकता है, अपने जीवन से यह अनुपम उदाहरण उन्होने हम सब के समक्ष रखा है I
श्री रामकृपा से प्रेमजी महाराज के आदेशानुसार सूटर गंज कानपुर के अपने पैतृक घर में हम प्रति रविवार सत्संग नियमित रूप से लगा रहे थे, उसके संचालन के सिलसिले में पत्र-व्यवहार से डॉ विश्वामित्र महाजन से हमारा आत्मीय सम्बन्ध जुड़ा ।
शायद 1980 के दशक के मध्य में मुझे "एम्स नयी दिल्ली" में कार्यरत डॉक्टर विश्वामित्र महाजन के प्रथम दर्शन का सौभाग्य जालंधर के साधक, मेरे परम स्नेही श्री नरेंद्र साही जी, श्री केवल वर्मा जी एवं श्री प्रदीप भारद्धाज जी के अनुग्रह से हुआ था । जालंधर के ये तीनों साधक डॉक्टर महाजन की आध्यात्मिक ऊर्जा से पूर्व परिचित थे । "एम्स" में डॉ महाजन से हमारी यह भेंट क्षणिक ही थी, सच पूछें तो हमारी केवल राम राम ही हो पाई थी । जो भी हो, मेरे तथा गुरुदेव विश्वामित्र जी के अटूट सम्बन्ध की वह प्रथम कड़ी थी ।
अब् आगे की सुनिए, 'सेवानिवृत' हो जाने के बाद हम और कृष्णा बहुधा कानपुर के अपने स्थायी निवास स्थान से बाहर अपने बच्चों के पास, कभी माधव के पास देवास अथवा अहमदाबाद में, तो कभी राघव के पास नासिक में, कभी प्रार्थना के पास जालंधर में, तो कभी श्रीदेवी के पास पिट्सबर्ग में अथवा रामजी के पास यूरोप में लम्बे प्रवास करते रहते थे ।
९० के दशक की बात है, हम दोनों प्रार्थना के पास, जम्मू पहुंचे, उन दिनों मेरे दामाद आलोक वही कार्यरत थे, उसने बताया कि उसके पास जालंधर से श्री साहीजी, प्रदीपजी और श्री केवलजी के अनेक फोन आ रहे हैं, सब आपको खोज रहे हैं, उनके यहां श्रीमद्भगवद्गीता पर प्रवचन हो रहे है, जिसमें शामिल होने के लिए जल्द से जल्द जालंधर बुला रहे हैं । ये प्रवचन मनाली में पाँच वर्ष की गहन तपस्या करने के बाद जालन्धर के साधकों को उसका अमृतमय प्रसाद बांटने के लिए पूज्यनीय डॉक्टर विश्वामित्र जी महाजन जी कर रहे थे, मैं तो समाप्ति के दिन अंतिम सभा में ही शामिल हो सका; पर मेरे तथा गुरुदेव विश्वामित्र जी के अटूट सम्बन्ध की यह दूसरी कड़ी थी ।
फिर तो हमारा परम सौभाग्य रहा कि सर्वशक्तिमान श्री राम की असीम कृपा से नित निरन्तर यह प्रेम-सम्बन्ध दृढ़ होता गया, कालान्तर में "प्रेम भक्ति" के मिलन का यह नन्हा बीज विकसित होकर कितना हरिआया; कितना फूला फला; कितना दिव्य रसानुभूति का मूल स्रोत्र बना, उसका अनुमान इस दासानुदास का अंतर मन ही लगा सकता है । रसना अथवा लेखनी के द्वारा उसकी चर्चा कर पाना कठिन ही नहीं, असंभव भी है ; फिर भी मुझ जैसे साधारण प्राणी के प्रति उनके सद्भाव और अथाह प्रेम को दर्शाने वाले कुछ संस्मरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।
सन २००५ में जब मैं भारत से बॉस्टन लौटने के पहले गुरुदेव पूज्यनीय डॉक्टर विश्वामित्र जी महाजन का आशीर्वाद लेने श्री रामशरणम् गया तब भेंट हो जाने के बाद महाराज जी मुझे आश्रम के मुख्य द्वार तक स्वयं पहुँचाने आये । यह ही नहीं, उन्होंने इशारे से वाचमेन को पास बुलाकर दूर खड़ी मेरी गाड़ी को आश्रम के द्वार पर लगवाने का आदेश दिया और जब तक गाड़ी नही आई, महाराजजी वहीं खड़े रहे । उनके स्नेह को कैसे व्यक्त करू, फाटक तक ही नहीं अपितु गाड़ी तक आकर स्वयं दरवाज़ा खोल कर उन्होंने, मुझे बिठाया और यह कह कर बिदा किया "अपनी सेहत का ख्याल रखियेगा" । मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, मेरे जैसे साधारण साधक को श्री महाराज जी ने इतना स्नेह और सम्मान; अपने मुख से बखानना अच्छा नहीं लगता । आज भी उस क्षण की याद आते ही मेरा मन कृतज्ञता से भर जाता है, अहसास होता है कि मैं कितना भग्यशाली हूँ ?
अब सुनिए प्रियजन, यहाँ बॉस्टन पहुंचते ही मुझे मेरे जीवन का पहला हार्ट अटेक हुआ, दो बार एन्जिओप्लस्टी हुई, तीन "स्टंट" लगे । जीवन रक्षा हुई, प्रभु की अपार कृपा का दर्शन हुआ । गुरुदेव श्री विश्वमित्र जी द्वारा चलते समय दिया हुआ अपने स्वास्थ्य के प्रति सावधानी बरतने के सुझाव का महत्व सहसा समझ में आ गया ।
२००८ की बात है, याद आ रहा है वह दिन जब दिल्ली में महाराज जी ने कृष्णा जी का हाथ पकड़ कर बड़े आग्रह से कहा था कि वह मुझे शीघ्रातिशीघ्र अमेरिका वापस ले जाएँ, मेरा स्वास्थ्य वहीं ठीक रहेगा । सत्संग की सभा में, भजन गाते हुए बीच में खांसी आ जाने के कारण मुझे कई बार रुकना पड़ा ; परम कृपालु श्री महाराज जी मेरी दशा निकट से देख रहे थे । वे जानते थे कि भारत के प्रदूषण भरे वातावरण में मेरे स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं होगा, उल्टा वह अधिक बिगड़ ही सकता है । मैंने अति दुखी हो कर पूछा कि "महाराज जी, मुझे क्यों अपने से दूर करना चाहते हैं ?" । महाराज जी ने मुस्कुरा कर कहा था " श्रीवास्तव जी, आप यहाँ नहीं आ पाएंगे तो क्या मैं ही वहाँ आ जाऊँगा, आपजी के दर्शन करने" । महाराज जी का उपरोक्त कथन, उनकी शब्दावली । प्रियजन, इतनी 'प्रेम-पगी" भाषा केवल दिव्य आत्माएं हीं बोल सकतीं हैं । मुझे इस समय भी रोमांच हो रहा है, मेरी आँखें भर आयीं हैं उस क्षण के स्मरण मात्र से ।
महाराज जी के कथन का एक एक शब्द सत्य हुआ, यहाँ आकर मैं स्वस्थ हुआ । महाराज जी ने अतिशय कृपा करके हमे प्रति वर्ष यहाँ यू. एस. ए. में दर्शन दिया । भाग्यशाली हूँ, स्थानीय साधकों ने बताया कि यहाँ पहुचने पर महाराज श्री एयर पोर्ट से ही अन्य साधकों के साथ साथ, मेरी भी खोज चालू कर देते थे । हाँ, आप सब जानते हैं अस्वस्थता के कारण यहाँ सत्संग के दौरान भी मैं महाराज जी से केवल एक दो बार ही मिल पाता था परन्तु नित्य उनके सन्मुख बैठ कर, कुछ पलों तक, खुली-बंद-आँखों से उन्हें लगातार निहारते रहने का आनंद दोनों हाथों से बटोरता था ।
आपको याद होगा, २०१२ के अंतिम यू. एस. सत्संग में, बहुत चाह कर भी मैं महाराज जी के निदेशानुसार उन्हें भजन नहीं सुना सका था । न जाने क्यूँ उस समय कंठ से बोल निकल ही नहीं पाए । कदाचित कोई पूर्वाभास था, जिसका दर्शन करवाकर महाराजश्री ने मुझे भविष्य से अवगत करवाया था । धन्य धन्य हैं हम, महाराजश्री हम सब पर सदा ऐसी ही कृपा बनाये रखें । 2 जुलाई 2012 को उन्होने देह त्याग दिया, किन्तु वह सब के दिलो में विराजमान है, ओजस्वी दिव्य वाणी से सबको राह दिखा रहे है I सब की समस्याओं का निदान साधकों को मिल जाता है, यह सभी की अनुभूति है I
आत्मकथा में गुरुजनों की कृपालुता और उनके आत्मीय सम्बन्ध के संस्मरण के सन्दर्भ में स्मृति पटलपर जीवंत हो उठा है परम पूज्य पिताजी हंसराज भगत जी की छत्रछाया में निर्मित ३४ सेक्टर नोएडा का श्री राम शरणम्, गोहाना का श्रीराम शरणम् और माँ शकुन्तला जी की तपस्या का प्रतीक पानीपत का श्रीरामशरणम्, जिसका उद्घाटन करते हुए स्वामीजी ने अपने उदगार व्यक्त किये कि "यह हृदय का उद्घाटन है" । अनुभूत हुआ परम पूज्य स्वामीजी की दिव्य स्पर्श और आशीर्वाद । इस पावन पुण्यमयी स्थली में, एक पंचरात्रि-साधना सत्संग में साधननिष्ठ दर्शी बहिनजी का जो प्यार-दुलार मिला, वह अविस्मरणीय है ।
जब माधव ३४ सेक्टर नोएडा में रहता था, हम लोग के घर के पास ही पिताजी द्वारा संस्थापित श्री रामशरणम् था जहां सुबह-शाम हम दोनों टहलते हुए चले जाते थे, या प्रातः ५-६ बजे अमृतवाणी में जाते थे, अखण्ड जाप और सत्संग में सम्मिलित हो जाते थे और समय समय पर परम पूज्य पिताजी के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य प्राप्त करते रहते थे ।
सन २००३ की बात है, कृष्णा के भतीजे अतुल ने बतलाया कि गोहाना श्री रामशरणम् में तीन माह अखंड ज्योति जलती है, अखंड जाप होता है, आप दर्शन कर आओ । उसकी प्रेरणा से और स्वामीजी की आज्ञा से एक दिन के लिए साधकों के साथ हम दोनों वहाँ गये । उस दिन अखंड ज्योति के दर्शन के साथ साथ पिताजी के दर्शन किये, उनसे कुछ वार्ता भी हुई, जिससे स्वामीजी के प्रिय साधक माननीय श्री शिवदयालजी और उनके आपसी संबंध की घनिष्ठता का बोध हुआ, गुड का प्रसाद भी मिला । कौन कौन गुण गाऊ---
सन २०१४ में प्रार्थना के साथ गये थे तब व्हील चेयेर पर बैठे पिताजी के दर्शन हुए थे; यही उनसे अंतिम मिलन था; अंतिम दर्शन था ।
मैंने अपनी आत्म कथा में अनेको बार दिव्य विभूतियों के, सिद्ध गुरुजनों की स्नेहिल क्षणों की मधुर स्मृतियों को बयान करने का प्रयास किया है; किसी अहंकार से नहीं वरन इस स्वार्थ से कि मुझे आज भी उन मधुर पलों की स्मृति मात्र से रोमांच हो जाता है; वर्षों पूर्व के वे अविस्मृत चिरंतन दृश्य मेरे सन्मुख जीवंत हो उठते हैं । गुरुजन के आशीर्वाद से मुझे पुनः उस "नित्य-नूतन-रसोत्पाद्क" दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है जो उनके सानिद्ध्य में बिताये क्षणों में मिली थी ।
मंगलवार, 22 मार्च 2022
बिन हरि कृपा मिलहिं नहीं संता
इस संसार में साधारण मानव का जीवनपथ अनगिनत अवरोधों से भरा हुआ है । जीवन के इस अँधेरे कंटकों एवं चुभते कंकड़ पत्थरों से भरे मार्ग पर सुविधा से चल पाना आज के मानव के लिए बड़ा कठिन है । बिना किसी हादसे के गन्तव्य तक पहुंचना मानव की क्षमता से परे है । इसके लिए जीव को एक कुशल मार्ग दर्शक और संचालक की आवश्यकता होती है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का मार्ग दर्शन करते हुए कहा "योग: कर्मसु कौशलम" अर्थात कुशलता से, युक्तिसंगत विधि से कल्याणकारी कर्म करना ही योग है । इस "युक्ति" का ज्ञान या बोध और उसका अभ्यास "गुरु" ही कराते हैं, चाहे सामाजिक गुरु हों या राजनैतिक, धार्मिक गुरु हों या पारिवारिक, शिक्षा गुरु हों या दीक्षा गुरु, । ये गुरु हमें गृहस्थाश्रम के शास्त्रोक्त कर्तव्य कर्मोंको अपनी क्षमता और योग्यता के बल पर प्रसन्न मन से करने की प्रेरणा देते हैं, सत्य और धर्म पर चलने की राह दिखाते हैं और वानप्रस्थ जीवन की ओर बढ़ने का सन्देश देते हैं । जिनके मार्गदर्शन से आत्मोन्नति की राह नजर आती है, अपने जीवन को साधनामय बनाने की प्रेरणा मिलती है, सिद्ध संतों के सामीप्य का सुअवसर मिलता है, ऐसे सद्गुरु का सान्निध्य भी हमें हमारे परम सौभाग्य से एकमात्र उस प्यारे परमेश्वर की कृपा से ही मिलता है ।
प्रभु की असीम कृपा से ही मुझे मिले संत शिरोमणि श्री श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज जी, जो १९वीं सदी के एक शांत, दान्त, सिद्ध, उच्च कोटि के महान संत थे । एक सच्चे अनुभवी, पहुंचे हुए पूरे सतगुरु एवं महान योगी थे । इन्हीं पूज्यपाद स्वामीजी ने नाम दीक्षा के द्वारा अपनी संकल्प शक्ति से मेरे अन्तःकरण में एक जाग्रत चैतन्य मन्त्र "राम नाम" स्थापित कर दिया और पढाया नामयोग का पाठ । "सद्गुरु दर्शन" और मिलन के उपरांत मेरी सर्वोच्च उपलब्धि रही, सद्गुरु के "कृपा पात्र" बन पाने का सौभाग्य, जो बिरले साधकों को मिलता है । मुझे उनकी वाणी से, उनके दृष्टिपात से तथा उनके सानिध्य से मिली उनकी हार्दिक शुभ कामनाएं और उनका वरदायक आशीर्वाद । उनकी दिव्य शक्ति से मेरे रुग्ण तन को सुदृढ़ आत्मिक बल मिला और मिला अनिवर्चनीय आनंद, ऐसा आनंद जिसे पाने के लिए ऋषि मुनि गृह त्यागते हैं और अथक साधना करते हैं । उनके सामीप्य से पाए साधन की साधना से मेरा मन जड़ता से दूर जाने के लिए और चिन्मयता की प्राप्ति के लिए आकुल हो उठा, मेरे मन में संत दर्शन तथा सत्संगों में सम्मिलित होने की लालसा तीव्रता से जाग्रत हो गयी ।
मेरी संत-दर्शन और दिव्य विभूतियों के सत्संग की इच्छा अनुचित नहीं थी क्योकि श्री स्वामी जी महाराज द्वारा रचित (अवतरित) ग्रंथो मे यही पावन ऊर्जा तरंगित हो रही है कि संसार की दिव्य विभूतियों के जीवन से जब भी जहाँ कहीं भी जो सार तत्व, जो सत्व गुण सीखने को मिले, उसे तत्क्षण अपने जीवन में उतारें और साधन धाम मानव जीवन को सार्थक बनाएँ । उनकी वाणी है ---
मिले रत्न गुण जहाँ से, लेवे हाथ पसार ।
काढ़े कंचन पंक से, हीरा मणि सँवार ।।
(भक्ति-प्रकाश से संकलित)
अतएव यूँ समझिये कि अपने सद्गुरु प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्दजी महाराज की "कृपा-प्रसाद" से ही हमें समय समय पर अनेकानेक परमहंस संतों के दर्शन हुए और उनके सान्निध्य के सुअवसर भी मिले ।
इनमें "विपुल" मुम्बई के सर्वस्व श्री अनंत स्वामी अखंडानंदजी, गणेशपुरी के संस्थापक स्वामी मुक्तानंद जी, चिन्मय मिशन के संरक्षक स्वामी चिन्मयानंदजी, श्री श्री माँ आनंदमयी, श्री श्री माँ निर्मला देवी, योगीराज श्री श्री देवराहा बाबा, अनंत श्री श्री राधाबाबा, जगद्गुरु श्री रामकृपालु महाराज, आदि अति उल्लेखनीय हैं । इनके समक्ष हमें परिवार सहित भजन-कीर्तन की प्रस्तुति करने का, उनके श्री चरणों पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर मिला है ।
इस संदर्भ में यह बताना अनिवार्य सा है कि उपरोक्त संतजनों के अतिरिक्त मानस मर्मज्ञ अंजनी नंदन शरण जी, मानस के अमर प्रेमी श्री राम किंकर जी महाराज, स्वामी ध्यानानन्दजी, बाबा नीम करोली, संत शिरोमणि डोंगरे जी महाराज, गायत्री परिवार शांति निकुंज हरिद्वार के संस्थापक श्री राम शर्मा जी, स्वर्गाश्रम के विभिन्न संतजन, कहाँ तक नाम गिनूँ, समकालीन सभी दिव्य आत्म विभूतियों से आध्यात्मिक विचारों का आदान-प्रदान करने का सुअवसर मिला, जीवन-मूल्यों के विचार रत्न मिले, साधना प्रशस्त करने का पथ मिला, जीवन में चरितार्थ करके जीवन का सर्वांगीण विकास करने वाले अनमोल सूत्रों का बोध हुआ । यह सर्वशक्तिमान प्रभु की असीम अनुकम्पा ही तो है जिसकी प्रेरणा से इन संत-महात्माओं ने अपनी दिव्य दृष्टि से औरअपने स्नेहिल आशीर्वाद से हमें और हमारे परिवार को कृतकृत्य किया है ।
यह मेरी अनुभूत मान्यता है कि सिद्ध संतों और सद्गुरु की दृष्टि से, शब्द से और स्पर्श से साधक की आत्मिक शक्ति जगती है । साधक जहां भी जाए, जो भी करे, जो भी सोचे, गुरु सदैव उसके साथ रहते हैं ।
एक विलक्षण एवं अद्वितीय सद्गुरु पूज्यपाद स्वामी सत्यानंदजी महाराज के सानिध्य में, उनकी छत्रछाया में मैंने जीवन में प्रथम बार पंचरात्रि साधना सत्संग का अनिर्वचनीय आत्मिक आनंद उठाया । जगत-व्यवहार में उनका हमारा साथ उतना ही था क्योंकि उसके एक वर्ष बाद ही वह ब्रह्मलीन हो गए, मेरा दुबारा मिलना नहीं हुआ । लेकिन मैंने अपने जीवन में अनेकों बार अपने हृदय की गहरायी से महसूस किया है, कि हमारे सद्गुरु भौतिक चोला छोड़ने के बाद भी सूक्ष्म रूप से हमारे अंग-संग रहे, और आज भी हैं ।
मानस -पटल पर अंकित एक अनुपम अविस्मरणीय आत्मानुभव; जिसके याद आते ही आभार के अश्रु कण आँखों से छलकने लगते है, एक दिव्य आनंद से हृदय छलछला उठता है -- वह है, "परमधाम डलहौज़ी" में आयोजित त्रिदिवसीय साधना-सत्संग ।
आइये; आपका परिचय करा दूँ "परमधाम डलहौज़ी" से यानी कि परम पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की तपस्थली से, प्रभु से साक्षात्कार का ऐतिहासिक व नीरव, शांत असीम ऊर्जा व तेज के अनुपम स्थल से ।
यह वह पुण्यस्थली है जहाँ सर्वशक्तिमान परम सत्ता का "राम राम "की ध्वनि में अवतरण हुआ, जो कालांतर में श्री रामशरणम नामक संस्था की स्थापना का मूल स्रोत रहा । योगसिद्ध स्वामीजी महाराज ने चौसठ वर्ष की आयु में परमात्म-मिलन की इच्छा से हिमालय के डलहौज़ी नामक निर्जन स्थान पर अनवरत साधना की । एक माह के अनंतर ७-७-१९२५ व्यास पूर्णिमा के मांगलिक पर्व के दिन उनकी चित्तवृत्तियाँ सविकल्पक समाधि से ऊर्ध्वगामी हुईं, परमात्मा से साक्षात्कार हुआ, ज्योति स्वरूप परमात्मा के दर्शन हुए, एक दिव्य ध्वनि में "राम राम" निनादित हुआ, आदेशात्मक स्वर गूंजा "राम भज, राम भज" । स्वामीजी को राम नाद द्वारा आस्तिकता का प्रचार-प्रसार करने का भी सन्देश मिला । स्वामीजी महाराज अपने इष्ट भगवान श्री राम को ही अपना परमगुरु बताते थे और अक्सर "परमगुरु जय जय राम " की धुन लगाते थे ।
महाराज जी ने परमात्मा के साक्षात्कार के विषय में अपने श्रीमुख से कहा है "मुझे उस स्थान पर साधना करते एक मास बीत गया । एक दिन जब मैं आँखे बंद किये प्रार्थना कर रहा था, मुझे "राम" शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वरों में सुनाई दिया, मैंने समझा कि कोई प्राणी इधर उधर राम-नाम का उच्चारण कर रहा है । ऑंखें खोलीं तो दूर दूर तक कोई दृष्टिगोचर नहीं हुआ । फिर आँखें बंद की तो उसी मधुर स्वर में पुनः वही "राम", "राम" सुनाई दिया, साथ ही आदेश "राम भज, राम भज“, "राम", "राम" ।
"मेरे प्रार्थना करने पर वह शब्द जब पुनः आया फिर दर्शन की मांग करने पर यह प्रश्न उठा " किस रूप का दर्शन चाहते हो ?" मैंने कहा, " जो तेरा रूप हो मैं क्या बताऊँ ?" तब यह "रा" और "म" अक्षरमयी "राम" रूप का तेजोमयी दर्शन हुआ ।
सन्त कुल दिवाकर स्वामी सत्यानंदजी महाराज की इस तपोभूमि को खोज निकाला श्रीरामशरणम गोहाना के प्रतिपालक; स्वामीजी के अतिप्रिय वरिष्ठ साधक, परमपूज्य श्री हंसराज भगतजी ने और उनके सहयोगियों साधकों ने ।
यहां यह बताना चाहता हूँ कि श्री हंसराजजी की अध्यात्म में रुचि और निष्ठा को आंक कर उनकी बाल्यावस्था में ही स्वामी जी ने उनका नाम “भगत” रख दिया था । स्वामीजी ने १९३६ में राम नाम के प्रचार के लिए पांच सदस्यों का जो राम सेवक संघ बनाया था, उसके एक सदस्य (पिताजी) हँस राज भी थे जो १९४६ में पाकिस्तान बनने से पूर्व ही भारत आ गये थे ।
इन्हीं के अथक प्रयास और पुरुषार्थ से डलहौज़ी के नारवुड के शिखर पर बादलों से आवृत पहाड़ियों और नीचे की आकर्षक मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य से अवगुंठित गहरी घाटियों के बीच स्वामीजी के तपस्थल पर निर्मित हो गया, अखण्ड जाप का कमरा और सत्संग-भवन, साथ ही साधकों के निवास के लिए सुविधाजनक कमरे को समेटे एक भव्य प्रासाद । इसे नाम दिया गया "श्री रामशरणम, परमधाम डलहौज़ी" । यहां लगने लगे साधना-सत्संग । यहाँ पहुँचने के लिए पहिली संकेतक सीढ़ी पर अंकित किया गया "परमधाम स्वामी श्री सत्यानंदजी महाराज डलहौज़ी" । इस परमधाम का साधना सत्संग कैसे और किस अदृश्य प्रेरणा और दिग्दर्शन से संभव हुआ से हुआ, गुरुदेव की कैसी कृपा हुई, कैसे हुआ यह चमत्कार ? सबके लिए हम पूज्य पिताजी के आजन्म ऋणी हैं ।
प्रियजन ! हमारा परम सौभाग्य रहा कि मुझे और मेरी पत्नी कृष्णा को श्रीरामशरणम गोहाना के प्रतिपालक; स्वामीजी के अतिप्रिय वरिष्ठ साधक परम पूज्य हंसराज "भगत"(पिताजी") की छत्रछाया में २००३ में "परमधाम" डलहौज़ी में आयोजित त्रिदिवसीय साधना-सत्संग में सम्मिलित होने की अनुमति मिल गयी ।
दिल्ली से पठानकोट तक की यात्रा का ट्रेन में रिज़र्वेशन हो गया, उसके आगे तो टैक्सी या बस से जाना था । जब ट्रेन में बैठे तब पता चला कि जो साधक हमारे साथ यात्रा करने वाले थे, उनका कार्यक्रम किसी कारणवश स्थगित हो गया । अनजान नगर, अनजान डगर, चक्की बैंक उतरना है या पठानकोट, इसका भी बोध नहीं, अवस्था जन्य शारीरिक शिथिलता, हम अवरोध के पर्वतों से घिर गए; चिंता होना स्वाभाविक ही था ।
अनुभूतियों के आधार पर कहता हूँ जीवन में बहुत यात्राएं कीं, चारों धाम की यात्रा भी की, पर इस पावन तीर्थस्थल की यात्रा अनुपम, अनूठी रही जिसने अहसास दिला दिया कि सिद्ध संत सद्गुरु हमारी समस्याओं के अवतरण से पूर्व, हमारी भविष्य में आने वाली समस्याओं के निराकरण की व्यवस्था कर देते हैं । ये अदृश्य रीति से साधकों पर किस भाव से और कैसे अहेतुकी कृपा कर देते हैं, कैसे कृपा अवतरित होती है; यह सब समझना हमारी मानवीय बुद्धि से परे है । हमारी यात्रा के दौरान कब, कैसे, किस रूप में किस किस को निमित्त बना कर प्रगट हुए हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्दजी महाराज जो हमारे सहायक बने, जिन्होंने ट्रेन में हमारा पथ प्रदर्शित किया । गुरुदेव की कैसी कृपा हुई; कैसे हुआ यह चमत्कार ? सब सपना सा लगता है, हमारी बुद्धि से परे है ।
कौन होगा उन जैसा कृपालु सहायक, जिनका आश्रय ले कर हम दोनों ने त्रिदिवसीय सत्संग का अपूर्व लाभ उठाया । वहाँ के साधना सत्संग में दिन हो या रात, अखंड जाप के कमरे में जा कर कभी भी जप कर सकते थे । वर्षा खूब हो रही थी, रात्रि में जाप करने का सुअवसर मिला, प्रेरणा स्वामी जी की थी, जाप तो हुआ ही साथ ही अखंड ज्योति में ज्योति बदलने का सौभाग्य भी मिल गया, इसी बहाने से स्वामीजी ने सत्संग में इस सेवा को करने का अनमोल अवसर प्रदान किया । हमें सद्गुरु स्वामी जी महाराज की प्रेम से परिपूर्ण, भावनाओं से भीगा और अपनत्व से ओतप्रोत आशीर्वाद मिल गया, और क्या चाहिए ।
एक दिन दोपहर की धूप का आनंद लेते हुए श्री पिताजी साधकों पर अपनी वाणी और दृष्टि से कृपा वृष्टि कर रहे थे उसी समय उनको प्रणाम करते समय जितना प्यार और आशीर्वाद मिला, जितनी शक्ति प्रदान की, उसे हम लोग आजीवन भुला नहीं सकते । हमारे पीठ पर हाथ फेरते फेरते जो आनंद दिया, उस दिव्य अनुभूति का अहसास आजीवन बना रहेगा ।
यहां एक और चमत्कारिक अनुभव हुआ, कई साधकों से सुना था कि स्वामीजी की साधना की सात्विक तरंगों के प्रभाव से शिवालिक की पहाड़ियों के नीरव वातावरण में "राम नाम" की ध्वनि गुंजायमान है जिसे प्रातःकालीन सैर करते समय सुन सकते है । हम दोनों शारीरिक अस्वस्थता के कारण सैर के लिए नहीं जा सके लेकिन हमने वहाँ रात्रि में "राम" नाम अनुरागी साधको के स्वर में स्वर मिलाये परम धाम में नीड़ बनाये पंछी की "राम राम" धुन अवश्य सुनी । केवल मैंने ही नहीं कृष्णा जी ने तथा अन्य साधको ने भी आकाश के पंछियों को वहाँ "राम राम" प्रतिध्वनित करते हुए सुना ।
इस क्षण स्मृति पटल पर चलचित्र के समान प्रगट हो गई है "परम धाम" में बितायी उस रात्रि की कहानी जब सत्संग की अंतिम सभा की समाप्ति पर, रात्रि की नीरवता को चीरती एक अनोखी राम धुन सुनायी पड़ी, "रा s s s म, रा s s s म, रा s s s म, रा s s s म " । अंतरतम छू लिया इस स्वर लहरी ने, और व्यक्त हुए ये उदगार----
बर्फ गिरती, पानी जमता, उसका नाम जपन नहीं थमता ।
वह तो, राम राम ही बोले रे, मेरे परमधाम में डोले रे ।।
बाबा ने जो मन्त्र गुंजाया, उसने अब तक न बिसराया ।
वह तो अनहद स्वर में बोले रे, कानों में अमृत घोले रे ।।
बोले बोले रे राम चिरैया, मेरे बाबा की कुटिया में बोले रे ।
कानों में अमृत रस घोले रे, वह परम धाम में डोले रे ।।
सोमवार, 21 मार्च 2022
सुख-शान्तिमय पारिवारिक जीवन
यह सर्वमान्य सत्य है कि गार्हस्थ्य जीवन ऐहिक एवं पारलौकिक सुख-समृद्धि-शान्ति का साधना क्षेत्र है । पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए लोक कल्याण की दृष्टि से जगत व्यवहार करते हुए प्रभु का स्मरण करते रहना; गृहस्थके जीवन का सार है । महापुरुषों से ये सूत्र सुन कर, यह धारणा मेरे और कृष्णा के मन में बसी हुई थी कि गृहस्थी का परिपालन ही कर्मयोग की साधना है अतएव जीवन निर्वाह हेतु पूर्वजन्म के संस्कारों एवं कार्मिक लेखा जोखा-"बेलेंस शीट" के अनुसार निर्धारित सभी कर्तव्य कर्मों को हम दोनों अपनी दैनिक साधना समझ कर ईमानदारी से सदा करते रहे, परिस्थिति वश आयी अनुकूल-प्रतिकूल घटनाओं का स्वागत करते रहे; पारिवारिक जीवन की कभी अवहेलना नहीं की; जिसके फलस्वरूप जिया सुख-शांतिमय पारिवारिक जीवन ।
हमने जब जब अतीत के पृष्ठों को पलटा, पाया कि हमारी हर उपलब्धि के पीछे "प्रभु" की अहैतुकी कृपा का अदृश्य हाथ रहा है । हमारा सारा जीवन, इसी प्रकार की प्रभुकृपा-जानित चमत्कारिक सफलताओं से भरपूर है । फिर भी जब कभी उन उपलब्धियों को याद करने का प्रयास करते हैं तब मानव-स्वभाव के कारण उनमे से एक भी ऐसी नहीं लगती जो मेरे निजी प्रयास के कारण न प्राप्त हुई हो । हर सफलता का श्रेय हम अपने आप को ही देते हैंऔर हम उन अदृश्य हाथों को भूल जाते हैं जिनकी सहायता से हमें वह सफलता मिली । मेरी आत्म कथा में ऐसी अनेकों घटनाओं का विवरण है ।
अपने गृहस्थजीवन में हमने पुरुषार्थ और परमार्थ के नियत कर्तव्यों का पालन विधिवत किया, "उनकी इच्छा" और "उनसे मिली प्रेरणा "के कारण । कृष्णा को जब प्रसूति घर जाना होता था, सन्तान को जन्म देने के लिए, तब जाने से पहिले सुंदरकांड का पाठ, श्री अमृतवाणी का पाठ करके हम सब जाते थे । महापुरुषों और सिद्ध संतों के चित्र और उनकी वाणी के सुभाषित घर में टँगे रहते थे ।
इस संदर्भ में मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आ रही है । नवंबर १९५६ में हमारा विवाह सम्पन्न हुआ; हम दोनों ने बड़े चाव से अपने कमरे में लगाने के लिए गीताप्रेस गोरखपुर में मुद्रित देवी देवताओं के चित्रों में से दो चित्र चुने, एक रामजी का और दूसरा कृष्ण का । हमने उन्हें अपने बेड रूम के निजी मंदिर में बड़े प्रेम से प्रस्थापित भी कर दिया ।
कुछ माह उपरान्त एक अद्भुत घटना घटी ।
मैं उन दिनों कानपूर में हार्नेस फेक्ट्री में कार्यरत था और बहुत सबेरे घर से निकल कर देर शाम तक घर लौटता था । जब की यह घटना है उन दिनों मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी भी एम. ए. की परीक्षा में बैठने के लिए ग्वालियर अपने मायके गयी हुईं थीं ।
एक दिन मैंने फैक्ट्री से वापिस आकर देखा कि हमारे बेड रूम के मंदिर में श्रीकृष्ण का वह चित्र नहीं है । पूछताछ करने पर मेरी भाभी ने बतलाया कि उस दिन दोपहर में बेवख्त ही घर के द्वार पर दस्तक हुई । द्वार खोला तो देखा कि एक अपरिचित महिला बहुत सकुचायी और डरी हुई दरवाजे पर खड़ी थी । उसके साथ उसका एक चार पांच वर्ष का बहुत ही सुंदर बालक था, गूंगा था । बच्चा महिला का पल्लू पकडे हुए खड़ा था । दोनों ही देखने में किसी धनाढ्य, भद्र वणिज परिवार के लगते थे ।
भाभी ने आगे बताया कि अभी उसकी माँ अपना परिचय दे ही रही थी कि वह बालक माँ का हाथ छुड़ा कर घर के अंदर ऐसे घुसा जैसे कि बहुत पहिले से हमारे घर के चप्पे चप्पे से अच्छी तरह से वाकिफ हो । घर के अंदर घुस कर वह सारे खुले हुए कमरे छोड़ कर, सीधे हमारे बंद बेड रूम की ओर ही गया ।
घर के सभी सदस्य आश्चर्य चकित थे कि वह बालक बंद कमरे की ओर ही क्यों गया ? कमरा खुलते ही वह सीधे उसी ओर ही कैसे चला गया जहां मंदिर में श्रीकृष्ण जी का वह चित्र लगा हुआ था ? मंदिर के निकट पहुंच कर, बिना मुंह से कुछ बोले, केवल संकेत से ही उसने श्री कृष्णजी के उस चित्र विशेष को पाने के लिए जिद करना चालू कर दिया । जब तक उसने वह चित्र अपने हाथ में थाम नहीं लिया तब तक वह शांत नहीं हुआ । उसे पा लेने पर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा; उसने एक पल को भी उस चित्र से अपनी नजर नहीं हटायी, वह अपलक एक टक बड़े आनंद से कृष्णजी की मनमोहिनी छवि को अतीव श्रद्धा से निहारता रहा । उसे अपने साथ ले गया । फिर कभी वह दोनों नहीं दिखे ।
सारी घटना एक अमिट छाप छोड़ गयी, अदृश्य शक्ति के रहस्यमय चमत्कारी क्रियाओं की ।
ऐसे तो मुझे कई बार इस प्रकार के स्वप्न आये हैं कि मैं किसी शिखर पर मन्दिर में विराजे हनुमानजी के दर्शन कर रहा हूँ । एक बार तो स्वप्न देखा कि मेरे ऊपर किसी जानवर ने हमला किया है, मुझे इधर उधर भगा रहा है, मैं भय से काँप रहा हूँ, डर से घिग्घी बन्ध रही है, प्रार्थना कर रहा हूँ मेरे ईश्वर मुझे बचाओ । तभी देखता हूँ कि मेरे सामने काले रंग के हनुमानजी खड़े हैं मैं उन्हें "friend friend" कह कह कर उनसे रक्षा करने को कह रहा हूँ, और वे मेरी रक्षा कर रहे हैं; लेकिन उस नादान अनजाने गूंगे बालक की श्रीकृष्ण के चित्र के प्रेम और अनुरक्ति को क्या कहूँ ?
आज जब मन के दर्पण में पिछले साठ साल के जीवन के रहन सहन को आंका और परखा तो पाया कि रुचि, योग्यता सामर्थ्य और इच्छाशक्ति से सुख-शान्ति से पारिवारिक जीवन जीने का इच्छुक मैं "भोला "कभी अकेला रहने का आदी नहीं रहा । अकेले घर से बाहर रहना मुझे प्रिय नहीं रहा । सदा कोई न कोई स्वजन सम्बन्धी को साथ रखा । हाँ, लन्दन में पढाई के लिए परिवार को छोड़ कर अकेले रहना पड़ा, जो मजबूरी थी । किसी साहित्य या संगीत की गोष्ठी में जाना हो या किसी सम्मेलन में, चलचित्र देखने जाना हो या दर्शनीय स्थलों को देखने जाना हो, परिवार के साथ ही जाना स्वीकृत रहा, अकेले जाना मुझे मंजूर नहीं रहा ।
परिवार साथ हो तभी आनंद आता है । अपने बच्चों के साथ ही नहीं कुटुंब के सभी बच्चों से परिहासमयी वार्ता करना, आपबीती सुनाना, हंसना-हंसाना, नाचना-गाना, बच्चों में बच्चा बन जाना, शिशु के साथ किलकारी मारना मेरा जन्मजात स्वभाव रहा । आजीविका अर्जन के कार्यक्षेत्र में जब जब स्थानान्तर हुए, चाहे देश में या विदेश में, परिवार के साथ ही रहा । देश विदेश के भ्रमण से श्रीदेवी, राम, राघव, प्रार्थना और माधव को विविध प्रदेशों की सभ्यता और संस्कृति का बोध हुआ । विविध वेश-भूषा, रहन-सहन, खान-पान से परिचय हुआ जिससे उनकी विचारधारा संकीर्णता के घेरे से बाहर निकली, भेदभाव रहित सौहार्द पूर्ण व्यवहार की नीव पड़ी । परिवार की हँसी, खुशी, प्रगति, उन्नति, समृद्धि ही तो मेरे गृहस्थाश्रम के साफल्य की निशानी है ।
ऐसा नहीं है कि हमारे जीवन में कष्ट आये ही नहीं अथवा जटिल समस्याओं ने हमें नहीं घेरा । भारतीय सामाजिक प्रचलन के अनुसार जब किसी गृहस्थ को उलझनें सतत सताती हैं, तब उन सब समस्याओं के समाधान के लिए वह ज्योतिषियों का द्वार खटखटाता हैं । हम भी गए, पर अनुभव ने सिखाया कि इस विज्ञान का आदर करो पर इस पर निर्भर नहीं रहो ।
हमारे परिवार के कई ज्योतिषियों से घने पारस्परिक सम्बन्ध थे । हमारे बड़े भैया की इस विज्ञान में रुचि थी, उन्होंने अध्ययन किया, कोर्स किया, प्रमाण-पत्र पाया, इस नाते उनके साथी ज्योतिष भाई हमारे घर आते जाते रहते थे । उन सबकी मेरे जीवन के सम्बन्ध में की गयी भविष्यवाणियाँ सच निकली, केवल एक छोड़ कर, वह भी सन्तानोत्पत्ति के सम्बन्ध में । ग्रहों के अनुसार सबका निर्णय था कि मेरी सन्तान जीवित नहीं रहेंगी, जिसे सुन सुन कर मन ही मन एक भय पनप रहा था लेकिन कालांतर में प्रभु कृपा से उनका कथन खरा नहीं उतरा ।
हुआ कुछ ऐसा कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर विवाह के दो वर्ष बाद १५ अगस्त १९५८ में एक मृत कन्या का जन्म हुआ । इत्तफाक से उस दिन हमारे घर में दिन भर लखनऊ से आये राज ज्योतिषी बैठे थे । २९ वर्ष की उम्र में उसका गंगा-प्रवाह करने के बाद इस अनहोनी से मन और अधिक भयभीत हो गया, ज्योतिषियों के कथन तड़पाते रहे । यह प्रारब्ध और पूर्वजन्म के कर्मों का प्रभाव है, इसी भावना से मन शांत हुआ । फिर उसके बाद हमारी पांच संतान हुईं जो प्रभु के आशीर्वाद से आज भी अपने आचार, विचार, व्यवहार तथा अपनी कार्यक्षमता से हमें गौरवान्वित कर रही हैं । जीवन ने यह सूत्र सिखा दिया कि ईश्वर पर अचल आस्था रखने वालों को ज्योतिषियों और जन्मपत्रियों के निर्णयों पर तभी तक महत्व देना चाहिए जब तक वे सकारात्मक ऊर्जा को बढाने में सहायक हों अन्यथा उसकी अनदेखी और अनसुनी कर दें ।
यहां उल्लेखनीय महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ज्योतिषों के चक्कर में न फंस कर इस बात पर अडिग विश्वास रखो कि तुम्हारा इष्ट, तुम्हारा कुलदेवता जिसका तुमने आश्रय लिया है प्रति क्षण तुम्हारे अंग संग है और तुम्हे उचित मंत्रणा और आवश्यक प्रेरणा दे रहा है, उसकी छत्रछाया में कभी आश्रित का अकल्याण हो ही नहीं सकता ।
अपने सभी कार्य करते हुए "उसको" याद करते रहो, "उसका" नाम जपते रहो और उसका काम समझ कर अपना काम करते रहो । हमारे गुरुजन का कथन है कि सोते-जगते, खाते-पीते, उठते-बैठते, आते-जाते, यहाँ तक कि दफ्तर में काम करते समय भी एक पल को भी अपनी यह सहज एवं सरलतम साधना "नाम जाप" छोडो नहीं, सतत करते रहो ।
प्रियजन, असम्भव नहीं है उपरोक्त गुरु आज्ञा का पालन । मेरे जीवन का अनुभव है कि सद्गुरु की दी हुई नाम दीक्षा ने और इष्टदेव की परम कृपा ने जीवन में पग पग पर आयी हुई सभी बाधाओं, आपदाओं, पीड़ाओं, कष्टों से हमें बचाया है । दीक्षा के शुभ दिन से आज तक सद्गुरु से मिला 'नाम' का अभेद कवच सभी देहिक, दैविक, भौतिक तापों में हमारे परिवार की रक्षा करता रहा है ।
परमेश्वर की असीम अनुकम्पा, गुरुजनों के आशीर्वाद, पूज्यजनों की पुण्याई और हमारे एवं कृष्णा के पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप हमारी पाँचों सन्तान -- श्रीदेवी, राम, राघव, प्रार्थना, और माधव, तथा उनके जीवन साथी और हमारे पौत्र-पौत्रियां, सभी संस्कारी, सदाचारी, शीलवान, सुयोग्य और आस्तिक भावनाओं के धनी हैं । वर्षों से स्थान स्थान पर उन सबके साथ हम दोनों रह रहे हैं, गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थ की ओर जाते हुए अनासक्त भाव से रहने का प्रयत्न कर रहे हैं, जिसकी साधना में सब बच्चों का सहयोग मिल रहा है । वे हम दोनों के स्वास्थ्य की देख भाल, सुख-सुविधा, खान-पान, मनो-विनोद आदि का ज़रूरत से भी ज़्यादा ध्यान रख रहे हैं, यह उस परमपिता की अनंत कृपा नहीं तो और क्या है ?
जितने भी संकट आ घेरें, जितनी भी विपदाएं आयें,
जिसको प्यार मिला है इतना, उसको कोई और चाह क्यों ?
रविवार, 20 मार्च 2022
मेरा पहिला पंचरात्रि सत्संग
यह मेरा परम सौभाग्य रहा कि स्वामीजी महाराज ने नाम दीक्षा वाले दिन ही मुझे 'अधिष्ठान जी' भी प्रदान कर दिए और उन्होंने मुझे अगले दिन ग्वालियर में लगने वाले 'पंचरात्रीय साधना सत्संग' में सम्मिलत होने की अनुमति भी दे दी ।
१९५९ में मैंने पहिली बार ग्वालियर में आयोजित श्री रामशरणम् के पंचरात्रि सत्संग में भाग लिया । यह मेरे जीवन का यह पहिला साधना-सत्संग था और उस सत्संग का मेरा प्रत्येक अनुभव अनूठा था । यह सत्संग ग्वालियर में पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की छत्रछाया में हुआ था । सत्संग के मोटे मोटे नियम मुझे मेरे स्वजनों ने बता दिये थे और इसकी पृष्ठभूमि में मुझसे यह भी कहा था कि मैं वहां गाने के लिए भजन भी तैयार कर लूँ ।
आज की तरह उन दिनों भी प्रातः कालीन सभा और रात्रि की सभा में साधकों के भजन होते थे और गुरुदेव ही इशारा करके उस साधक को आमंत्रित करते थे जिसका भजन वह सुनना चाहते थे । श्री स्वामी जी महाराज के सानिध्य में होने वाले उस पंचरात्रि सत्संग की सभी बैठकों में मैं अपनी गायकी की प्रवीणता प्रदर्शित करने को उतावला रहता था, सोचता था कि स्वामी जी महाराज की दृष्टि मुझ पर पड़े और अपने आसन पर बैठे बैठे वह मुझे पुकार कर अपने निकट बैठा लें और मुझे भजन गाने का आदेश दें !!
नित्य प्रति हर सभा में मैं उतनी ही तैयारी के साथ जाता, उचक उचक कर स्वामी जी की ओर देखता लेकिन अवसर नहीं मिलता । प्रियजन, अपने आप को सर्व श्रेष्ठ समझने वाले अहंकारी व्यक्तियों की अंततः ऐसी ही गति होती है । सम्भवतः उन दिनों मेरे स्वर में अंतरात्मा की अगम्य गहराई में बसे भावों की प्रस्तुति में उतना माधुर्य नहीं रहा होगा, जितना स्वामीजी चाहते थे ।
आखिर एक दिन महाराज जी की कृपा दृष्टि पड़ ही गयी, महाराज जी की उंगली मेरी ओर उठी । मैं पुलकित हुआ, महाराज जी की उंगली उनके बगल में बैठे किसी और साधक की ओर घूम कर रुक गयी और उन्होंने किसी अन्य साधक भजन सुनाने का आदेश दे दिया । काफी देर बाद समझ पाया कि उस सभा में, पंडित राम अवतार शर्मा जी, श्री मुरारीलाल पवैया जी, श्री गुप्ता जी, श्री बंसल जी, श्री बेरी जी, श्री शिवदयाल जी तथा श्री जगन्नाथ प्रसाद जी जैसे महान साधकों के होते हुए, मेरा यह सोचना कि श्री स्वामी जी महाराज मेरे जैसे नये साधक को आगे बुलाकर अपने निकट बैठाएंगे, कितनी बड़ी मूर्खता थी ? एक दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ न था ।
ऐसा नहीं है कि मैं पाँचों दिन उपेक्षित ही पड़ा रहा । अंततः महाराज जी ने हमें मौका दिया पर काफी लम्बी प्रतीक्षा के बाद । यूं कहिये कि मन ही मन बहुत रोने धोने के बाद मुझ पर विशेष कृपा कर के हमारे इष्ट देव श्री राम ने ही मुझे वह अवसर प्रदान किया कि मैं नैवेद्य सरीखा अपना भजन उनके श्री चरणों पर अर्पित कर सकूं । मैं तैयार तो था ही, बड़े भाव से पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ, मैंने भजन गाया । स्वामीजी मेरी ओर देख कर थोड़ा मुस्कुराए, मुझे रोमांच हो आया, मैं गदगद हो गया, मेरी आँखे सजल हो गयीं । मुझे विश्वास हो गया कि नैवेद्य स्वरूप अर्पित मेरी भजन-भेंट मेरे गुरुदेव ने स्वीकार कर ली ।
एक और संस्मरण स्वामी जी के अपनत्व का --
नित्यप्रति साधकों को भोजन परोसने की सेवा करते देख मन में उमंग उठी कि मैं भी यह सेवा करूं । कभी काम किया नहीं था, कैसे कर पाता यह सेवा । मेरे गुरुदेव मेरे अंतःकरण की भावना को समझ गए और विनोद पूर्वक बोले मुरार और शिवदयालजी के बहनोई के नाते आप तो हमारे दामाद हैं, आपसे कैसे सेवा लें? ऐसे होते हैं सद्गुरु, साधक के मन को परख कर उनकी सहज-सम्भार करने वाले ।
पूर्णाहुति की अंतिम बैठक के बाद विदाई के समय मुझे गले लगाकर मेरी पीठ पर हाथ फेरते फेरते उन्होंने मेरे तन-मन और मेरे अन्तःकरण पर प्यार और आशीर्वाद का शीतल सुगंधमय चन्दन लेप लगाया था, उसकी गमक अभी भी मेरे आन्तरिक और बाह्य जीवन को पवित्र कर रही है । गुरु कृपा ही तो श्री रामकृपा है । गुरु कृपा में आनंद ही आनंद है ।
गुरुजन साधारण मानव को उसकी उसमें ही निहित क्षमताओं का ज्ञान कराते हैं और उसे अनुशासित जीवन जीने की कला बता कर उसका उचित मार्ग दर्शन करते हैं । मेरे सद्गुरु ने भी मुझे दीक्षा दे कर मुझ पर महत कृपा की, मेरा पथ प्रदर्शित कर मुझे सत्य, प्रेम और सेवा के मार्ग पर चलना सिखाया, सात्विक जीवन जीने की कला सिखाई, अनुशासन पालन करते हुए जगत में व्यवहार करना सिखाया ।
मैं कभी कभी सोचता हूँ कि मेरा क्या हुआ होता यदि मुझे मेरे "सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज " इस जीवन में मुझे नहीं मिलते और इतनी कृपा करके उन्होंने मुझे अपना न बनाया होता या मुझे अपने श्री राम शरणम् के "राम नाम उपासक परिवार" में सम्मिलित न किया होता ?
मेरी संन १९५९ की डायरी का एक पृष्ठ ---
मंगलवार - कार्तिक - शु. ३, वि. २०१६- तदनुसार ३. नवम्बर १९५९ ई.
ग्वालियर
हम 'जनता' से ग्वालियर आये । दोपहर बाद दादा के साथ, (शर्मा बिल्डिंग, लश्कर से परमेश्वर भवन), मुरार गये श्री स्वामी जी के दर्शन करने तथा पंच रात्रि सत्संग में सम्मिलित होने की आज्ञा प्राप्त करने ।
आज्ञा मिल गयी । आज सायंकाल श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने हमे "नाम दीक्षा" दी । कितना "सुख" मिला ? कौन वर्णन कर सकता है ?
गुरु दर्शन में ही तो है उस आनंदघन परम का दर्शन ।
मेरी डायरी का पृष्ठ ---
९ नवंबर १९५९---अक्षयनवमी
सत्संग से बिदाई
प्रातःकाल में बिदाई के समय गुरुदेव ने आरती की, सत्संग समाप्त हुआ । पूज्य दादा के साथ श्री गुरु महाराज को विदा करने स्टेशन गया । स्वप्नवत सत्संग की आनंदपूर्ण और सुखद घड़ियाँ समाप्त हुईं । कितनी विलक्षण प्रसन्नता तथा अद्भुत आनंद मिला है कि वर्णन नहीं कर सकता ।
परम पूज्यनीय, प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज के दर्शन मुझे उस पंच रात्रि सत्संग के बाद दुबारा नहीं हुए । एक वर्ष में ही महाराज अपने इष्ट परमप्रभु श्री राम के "परम धाम" सिधार गये । मैं कानपुर से हरिद्वार भी नहीं पहुँच पाया । मन मसोस कर रह गया ।
सद्गुरु स्वामीजी महाराज स्वामी जी महांराज ही नहीं वरन उनके बाद एक एक करके, गुरुदेव प्रेम जी महाराज तथा मेरे अतिशय प्रिय गुरुदेव डॉक्टर विश्वामित्तर जी महाराज हमारे जीवन के आध्यात्मिक अन्धकार को परमानंद की ज्योति से भरने को आये और चले भी गये । स्थूल रूप में हमसे दूर होते हुए भी उनमें से कोई भी हमसे एक पल को भी विलग नहीं हुआ । सद्गुरु स्वामीजी महाराज आज भी हमारे अंग संग हैं । वह हमारी मनोभावनाओं में, हमारे चिंतन और विचारों में इस क्षण भी उतने ही जीवंत और क्रियाशील हैं जितने वे आज से ६० वर्ष पूर्व मेरे दीक्षांत की घड़ी में थे । आध्यात्म के क्षेत्र में हमारे प्रथम मार्ग दर्शक थे, हैं, और जीवन पर्यन्त रहेंगे । उनके गुलाबी गुलाबी आभायुक्त श्रीचरण आज भी मेरे जीवन का सम्बल हैं उसी तरह जिस तरह भरत के लिए श्री राम की पादुकाएं थीं ।
सद्गुरु चरण सरोज रज जो जन लावें माथ ।
श्री हरि की करुणा-कृपा तजे न उनका साथ ।।
ऐसे प्रिय जन पर सदा कृपा करे "रघुनाथ" ।
सुख समृद्धि सद्बुद्धि भी कभी न छोड़े साथ ।।
शनिवार, 19 मार्च 2022
सद्गुरु से मिलन और नाम दीक्षा
महापुरुष कहते हैं कि सच्चे साधक का एक ध्येय, एक इष्ट और एक गुरु होना चाहिए । आसरा-आश्रय भी मात्र एक का ही लेना उचित है । सागर पार करने को केवल एक सुदृढ़ नौका चाहिए, अनेकों नौकाये हो कर भी काम नही आयेंगी । लेकिन क्या करें ? जब तक हमारी अपनी सद्वृत्तियों के अनुरूप हमें हमारी मंजिल तक ले जाने वाला या हमारा पथ प्रशस्त करने वाला सद्गुरु नहीं मिलता, तब तक हम डगमगाते रहते हैं ।
बचपन में और विद्याध्ययन के शुरूआती वर्षों में पारिवारिक संस्कारों के प्रभाव में सबके साथ नगर के हर हिंदू मदिर में जाना, उसमे स्थापित देवता की मूर्ति के सन्मुख प्रणाम करना, आरती में सब के साथ तालियाँ बजाना, शब्द याद न हो तों भी होठ हिलाकर यह जतलाना कि आरती गा रहा हूँ वाला नाटक बखूबी मैं करता रहता था । हमारे पूर्वज मूर्ति पूजक थे । वे गंगास्नान, देवालयों में दर्शन, आरती वंदन करते थे और समय समय पर, कठिनाइयाँ झेल कर भी कष्टप्रद एवं दुर्गम "तीर्थ यात्राओं" पर जाते थे । मैं उस समय मान्यताओं और मत मतान्तरों के जटिल जाल में इतना उलझ गया कि यह नहीं समझ पाया था कि उनमें से कौन सा रास्ता मेरे लिए कारगर होगा; मैं निज आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए इनमें से कौन सा मार्ग चुनूँ? पुरातन वैदिक विधि पालन करूँ या समय समय पर बदलती परिस्थिति के कारण बदले विधि विधान को निभाऊं ।
समय बताता है कि जीव अपने जीवन के अनुभवों से ही सीखता है, चुनता है । मैं अपना अनुभव सुनाऊँ ।
१९५० के दशक के उत्तरार्ध नवम्बर १९५६ में मेरा विवाह ग्वालियर के एक ऐसे धार्मिक परिवार में हुआ जिसका बच्चा बच्चा, श्री राम शरणम् के संस्थापक स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के सानिध्य से प्रभावित था । स्वामीजी महाराज की "नामयोग " साधना में, पानीपत की माता शकुन्तलाजी, गुहाना के पिताजी श्री भगत हंसराज जी, बम्बई के ईश्वरदास जी, दिल्ली के श्री भगवान दास जी कत्याल एवं मुरार के ही श्री राम अवतार शर्मा जी और श्री मुरारीलाल पवैया जी के साथ वे सत्संग एवं साधना-सत्संग में पूर्णतः समर्पित थे ।
परिवार के मुखिया दिवंगत गृहस्थ संत भूतपूर्व चीफ जस्टिस, म. प्र., माननीय शिव दयालजी ने घर को श्री राम शरणम् के सत्संग भवन सा बना रखा था । परिवार के सभी सदस्य, जितना उनसे बन पाता था, अपने दैनिक जीवन में भी 'पंचरात्रि' सत्संग के नियमों का पालन करते थे । प्रातः ५ बजे नाम जाप ध्यान आदि होता था और दिन भर के अपने कार्य निपटाने के बाद, रात्रिकाल में "अमृतवाणी जी" का तथा स्वामी जी के अन्य ग्रंथों का पाठ होता था । दैनिक रहनी सहनी, खान पान भी साधना-सत्संगों के समान होता था । प्रातः में दलिया दूध, भोजन अति सात्विक पर सरस, भोजन से पूर्व एवं उसके उपरान्त की प्रार्थना, सामूहिक प्रार्थना, आदि आदि, ।
संत शिरोमणि श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज इस युग के महानतम धर्मवेत्ताओं में से एक थे जो लगभग ६४ वर्षों तक जैन धर्म तथा आर्यसमाज की सेवा करते रहे । अपने प्रवचनों द्वारा वह जन जन की आध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ सामाजिक उत्थान के लिए भी प्रयत्नशील रहे । इन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखने पर तथा उनकी विधि के अनुसार साधना करने पर भी जब उन्हें उस आनंद का अनुभव नहीं हुआ जो परमेश्वर मिलन से होना चाहिए तो उन्होंने इन दोनों मतों के प्रमुख प्रचारक बने रहना निरर्थक जाना और १९२५ में हिमालय की सुरम्य एकांत गोद में जा कर उस निराकार ब्रह्म की (जिसकी महिमा वह आर्य समाज के प्रचार मंचों पर लगभग ३० वर्षों से अथक गाते रहे थे) इतनी सघन उपासना की कि वह निर्गुण "ब्रह्म" स्वमेव उनके सन्मुख "नाद" स्वरूप में प्रगट हुआ और उसने स्वामीजी को "परम तेजोमय, प्रकाश रूप, ज्योतिर्मय, परमज्ञानानंद स्वरूप, देवाधिदेव श्री 'राम नाम' " के प्रचार प्रसार में लग जाने की दिव्य प्रेरणा दी ।
सिद्ध संत स्वामी सत्यानंदजी महाराज की "नामोपासना" की नियम बद्ध अनुशासित पद्धति जो मेरे ससुराल के सदस्यों द्वारा अपनायी गयी थी, मुझे बहुत अच्छी लगी । इन सब आत्मीय स्वजनों की साधना के प्रभाव से, अपने परम सौभाग्य और सर्वोपरि "प्यारे प्रभु " की अनंत कृपा से, वर्षों भ्रम भूलों में भटकने के बाद मूर्ति पूजन तथा निराकार ब्रह्म की उपासना के बीच का यह सहज सरल साधना पथ मुझे भा गया ।
मेरा भाग्योदय हुआ, मुझ जैसे खोजी को सतगुरु का ठिकाना मिल गया, स्वामी जी महाराज से दीक्षित होने की इच्छा प्रबल हो उठी । मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी तो सद्गुरु स्वामीजी महाराज से १४ वर्ष की अवस्था में १९५१ से ही दीक्षित थीं हीं; मुझे भी मेरे कुलदेव महावीर हनुमानजी की कृपा से ही विवाहोपरांत मिल गया "राम परिवार", अनमोल पुस्तिका "उत्थान पथ "और सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज का दर्शन, फिर प्रसाद में उनसे मिली अनमोल निधि "नाम दीक्षा" ।
प्यारे प्रभु की विशेष कृपा से ३ नवम्बर १९५९ को मुझे अपने जन्म जन्मान्तर के संचित पुण्य के फलस्वरूप कृपा से परम दिव्य आकर्षक व्यक्तित्व वाले श्रद्धेय स्वामी श्री सत्यानन्द जी महाराज के प्रथम बार दर्शन हुए । क्योंकि मैंने अपने जीवन में कभी इतने निकट से, एकदम एकांत में स्वामी जी के समान तेजस्वी देव पुरुष के दर्शन नहीं किये थे, नवोदित सूर्य की स्वर्णिम किरणों के समान जगमगाते उस देवतुल्य महापुरुष के दिव्य स्वरूप ने मुझे इतना सम्मोहित कर लिया कि मैं अपनी सुध बुध ही खो बैठा, मुझे न तो समय का भान रहा न वस्तुस्थिति का ज्ञान । दर्शन मात्र से ही मुझे एक शब्दातीत आत्मिक शान्ति की अनुभूति हुई । इस प्रथम दिव्य मिलन में ही प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने सन्मुख सहमे से बैठे धृति धारणा हीन, धर्म-कर्म में अतिशय दीन, मुझ ३० वर्षीय नवयुवक को मुरार, ग्वालियर के, सौदागर सन्तर में अपने परम स्नेही साधक श्री देवेन्द्र सिंह बैरी के 'पूजा-प्रकोष्ठ' में परम मंगलमय राम नाम का 'मन्त्र रत्न' प्रदान कर दिया ।
इस दास पर विशेष अनुकम्पा कर, उस प्रकोष्ठ के एकांत में स्वामी जी महाराज ने वाणी, स्पर्श एवं अपनी दिव्य कृपा दृष्टि द्वारा मुझे दीक्षित कर के मेरा जन्म सार्थक कर दिया । मैं स्वामी जी महाराज की औपचारिक साधना पद्धति से पूर्णतः अनभिज्ञ था । उस पूजा प्रकोष्ठ में मेरे गुरुदेव थे और कोई नहीं था । मेरा प्यासा मन स्वामी जी की मधुर वाणी से नि:सृत अमृत वर्षा से सिंचित हो रहा था, मेरा रिक्त अंतरघट 'नामामृत' से शनै: शनै: भर रहा था । उनकी वाणी से नि:सृत मधुर 'राम नाम' ने मेरे रोम रोम में "राम" को रमा दिया था । मुझे अपने मस्तक पर श्री स्वामी जी महाराज के वरद हस्त का कल्याणकारी स्पर्श महसूस हुआ और उस दिव्य स्पर्शानुभूति से मेरी सम्पूर्ण काया रोमांचित हो गयी । मैं कृतार्थ हो गया ।
सच पूछो तो मेरा यह मानव जन्म सार्थक हो गया क्योंकि स्वामी जी जैसे सिद्ध महापुरुष से, "राम नाम" का मंगलकारी तारक मंत्र पाना स्वयमेव एक अनमोल उपलब्धि थी । सद्गुरु दर्शन से, मिलन से मुझे जो उत्कृष्ट उपलब्धि हुई वह अविस्मरणीय है ।
धन्य हो गया मैं ।
मैं यद्यपि स्वामीजी के सन्मुख रहा फिर भी उनके तेजस्वी मुखमंडल से निस्तरित विलक्षण ज्योति पुंज की चकाचौंध से ऐसा सकपकाया हुआ था कि मुझे उस पूजास्थल में बिराज रहे महाराज की ओर आँख उठा कर देखने का साहस ही नहीं हुआ । नाम दीक्षा के अंतराल में, मैं मंत्र मुग्ध सा उनके नव विकसित कमल कलिकाओं जैसे गुलाबी श्री चरणों की ओर लालची भंवरे के समान निहारता रहा । अतः उनके गुलाबी गुलाबी श्री चरणों के अलावा मैं और कुछ देख नहीं सका ।
एक चमत्कार - सन २००७ में, भारत से यू. एस. ए. वापस आने से पहले गुरुदेव श्री श्री विश्वामित्र जी महाराज के दर्शनार्थ श्री राम शरणम् गया । महाराज जी से आशीर्वाद प्राप्त कर, प्रकोष्ठ से बाहर निकला ही था कि ऐसा लगा जैसे महाराज जी ने कुछ कहा । पलट कर उनके निकट गया । महाराज जी अलमारी से निकाल कर कुछ लाए और उसे मेरे हाथों में देते हुए कुछ इस प्रकार बोले, "श्रीवास्तव जी, आपके हृदय में श्री गुरुचरणों की मधुर स्मृति सतत बनी रहती है । मैं बाबा गुरु के वही श्रीचरण आपको दे रहा हूँ ।"
महर्षि विश्वामित्र जी ने मुझे सद्गुरु चरणों का वह चित्र देकर, मानो मुझे जीवन का एक सुदृढ़ अवलंबन सौंपा । धन्य हुआ मैं सद्गुरु पा के । उस चित्र के अवलोकन से ऐसा लगा मानो ------
समय शिला पर खिली हुई है "गुरु"-चरणों की दिव्य धूप ।
आंसूँ पोछो, आँखें खोलो, देखो चहुँदिश "गुरु" का स्वरूप ।।
सद्गुरु कभी निकट आते हैं मिलकर पुनःबिछड जाते हैं ।
प्रियजन अब वह दूर नहीं हैं "वह" हर ओर नजर आते हैं ।।
वो अब हम सब के अंतर में बैठे हैं बन कर यादें ।
केवल एक नाम लेने से, पूरी होंगी सभी मुरादें ।।
राम कृपा से सद्गुरु पाओ आजीवन आनंद मनाओ ।
उंगली कभी न उनकी छोडो जीवन पथ पर बढ़ते जाओ ।।
कितना सत्य है यह सूत्र कि जिस व्यक्ति को उसका सद्गुरु मिल गया उसके जीवन का अन्धकार सदा सदा के लिये मिट गया और उसके सौभाग्य का भानु उदय हो गया । गहन अन्धकार में डूबे मेरे अन्तःकरण में "नाम" ज्योति प्रज्वलित हुई ।
आज इस पल भी मेरा जीवन उस सौभाग्य सूर्य के दिव्य प्रकाश से जगमगा रहा है । उनकी अनंत करुणा आज भी मुझे प्राप्त है । हृदय परमानंद में सराबोर है । मुझे आज इस पल भी उस दिव्य घड़ी के स्मरण मात्र से सिहरन हो रही है - वह शुभ घड़ी जब मेरे जैसे कुपात्र की खाली झोली में, स्वामी जी महाराज ने अपनी वर्षों की तपश्चर्या दारा अर्जित " राम नाम " की बहुमूल्य निधि डाल दी थी, उस घड़ी के असीम आनंद का वर्णन करने की क्षमता मुझमे नहीं है पर उनकी छत्र छाया में अब भोला-कृष्णा दम्पति की जीवन गाड़ी के दोनों दृढ़ पहिये उनके नामयोग की साधना के पथ पर चलने को सक्षम हो गए हैं । जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श मात्र से "लोहा""सोना" बन जाता है, उस प्रकार ही सद्गुरु के संसर्ग से आपका यह अति साधारण स्वजन -"भोला"- माटी का कच्चा घड़ा, आज परिपक्व हो अपने प्यारे सद्गुरुजन का एक सुदृढ़ कृपा पात्र बन गया है ।
शुक्रवार, 18 मार्च 2022
गृहस्थाश्रम में प्रवेश
जब परमपिता परमात्मा की अहैतुकी कृपा हो, जन्म जन्मातरों के पुण्य और सत्कर्मों का परिपाक हो, अहम और मम को गृहस्थाश्रम की वेदी पर चढाने की क्षमता हो, विश्वास और सन्तोष हो, तो गृहस्थाश्रम में स्वर्गिक आनंद मिलता है, आत्मिक सुख-शान्ति मिलती है । जीवन में पूर्णत: सफल होने के लिए प्रत्येक दंपत्ति को पूरी निर्भयता से, अविचल संकल्प तथा दृढ़ निश्चय के साथ, अपनी सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए, गृहस्थ जीवन की सुख-समृद्धि के लिए, निर्धारित कर्तव्य कर्म-धर्म अति प्रसन्न मन से करते रहना चाहिये ।
अपने सुख-शांतिमय दाम्पत्य जीवन के विषय में स्वयं अपने मुख से कुछ भी कहना अहंकार व दम्भ से प्रेरित हो अपने मुँह मियाँ मिटठू होने जैसा प्रयास ही कहा जायेगा । हम दोनों हैं तो साधारण मानव ही, अतः शंकाओं से घिरना, चिंता से घबराना, क्रोध करना और छोटी से छोटी बात पर दुखी होना हमारा भी जन्म सिद्ध अधिकार है । परन्तु परम प्रभु की अहेतुकी कृपा हम दोनों पर सदैव ऐसी बरसती रही है कि उससे प्राप्त आत्मशक्ति से जीवन की विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में एवं आपसी मतभेद होते हुए भी मानसिक संतुलन बना रहा और हमे इनसे जूझने की शक्ति मिलती रही ।
महापुरुषों का कथन है कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के बाद ऐसा जीवन जियो जिससे परिवार में "सद्गुणों" एवं 'सद्-धर्म" का प्रचार-प्रसार-विस्तार हो, कथनी और करनी में सबका कल्याण करने की भावना हो, अपने इष्ट का अनन्य आश्रय हो, परस्पर प्रगाढ़ प्रीति हो । हम दोनों ने सदा इन्हीं मूल्यों को अपने जीवन में उतारने का यथासम्भव प्रयत्न किया है ।
निज आत्मकथा में अब तक मैंने अपने ऊपर प्यारे प्रभु के द्वारा की हुई अनंत कृपाओं की संदर्भानुसार चर्चा की है जिनकी अनुभूति के रोमांचक क्षणों की स्मृति का वर्णन करते समय वर्षों पूर्व के अविस्मणीय क्षण और चिरन्तन दृश्य मेरे सन्मुख जीवन्त हो उठते हैं । आज स्मृति की बीथियों में विचरती हमारी आँखों के सामने हमारे दाम्पत्य जीवन के पिछले ६० वर्ष के वे मनोहारी चित्र जीवंत हो रहे हैं जो उस "महान-अदृश्य-चित्रकार" ने बड़े प्यार से हमारे जीवन के कैनवैस पर चित्रित किये और जिनका सुदर्शन हमे आज भी आनंदरस प्रदान किये जा रहा है ।
इनमें १९५६ के "२७ नवम्बर" के दिन गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर जो विशेष कृपा "उन्होंने" "भोला-कृष्णा" नव दंपत्ति पर की, वह अति महती थी, अनमोल थी ।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए वैदिक और लौकिक रीति से मन्त्रोच्चारण के साथ वैवाहिक प्रक्रिया सम्पन्न करने-कराने का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्व है । विवाह को जन्म-जन्म के सम्बन्ध का प्रतीक माना जाता है । दाम्पत्य जीवन और आजीविका अर्जन के सम्मेल में गृहस्थाश्रम के नियम-धर्म के प्रतिपालन से जीवन दिव्य बनता है । इसलिए मुझे गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट कराने की विधा में मेरे माता-पिता की सम्मति से मेरा विवाह-संस्कार ग्वालियर निवासी श्री शिवदयाल, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट की बहिन, स्वर्गीय श्री परमेश्वरदयाल की आयुष्मती कन्या "कृष्णा" के साथ २७-११-१९५६ को होना निश्चित हुआ ।
मेरे बाबूजी श्री बदरीनाथ जी स्वजन-सम्बन्धियों, बड़का बाबूजी श्री केदारनाथ, भैया श्री जगन्नाथ प्रसाद, श्री गजाधर प्रसाद, मेरे मित्र सतपाल और रमेश रस्तोगी, मेरे भतीजे रवि, छवि, शशि को लेकर ग्वालियर रवाना हुए । झांसी पर श्री शिवदयालजी के धर्म-भतीजे प्रकाश शर्मा ने बरात का स्वागत सत्कार किया, स्वादिष्ट भोजन कराया, फिर जब हम सब बाराती ग्वालियर पहुचे, तब आगवानी करके हमें बिरला गेस्ट हाउस में ठहराया गया, जिसे उस ज़माने में जनवासा कहा जाता था ।
सन्ध्या काल गो धूलि की बेला में, मैं दूल्हा बन कर, 'सिंधिया राज' की चार सफेद घोड़ों वाली शानदार बग्गी पर सवार होकर "बोले कि भाई 'बम', बोले के भाई 'बम'-भोले", "बम बम भोले" का कानपुरी नारा लगाते अपने इष्ट- मित्रों और सगे सम्बन्धियों सहित के साथ हर्षोल्लास के साथ परमेश्वर भवन की ओर चला । मेरे जीजाजी श्री कृष्णपाल सिंह तथा अन्य मान्य स्वजन हाथी पर सवार थे । बेंड बाजे की धुन के साथ घुड़सवार अपने करतब दिखाकर बरात की रौनक और उसकी उमंग-उल्लास में चार चाँद लगा रहे थे । बाराती उनका तथा आतिशबाजी का मज़ा ले रहे थे ।
मार्ग में पण्डित राम अवतार शर्मा, श्री मुरारीलाल पवैया आदि गणमान्य मित्रों का केसर युक्त दूध और मिष्ठान का स्वागत सम्मान स्वीकार करते हुए हम सब मुरार के 'कोतवाली सन्तर में स्थित परमेश्वर भवन के द्वार पर पहुँच गए ।
यह घर मेरे दिवंगत स्वसुर श्री परमेश्वर दयाल जी का निवास स्थान है । वह ग्वालियर राज्य के सीनियर एडवोकेट थे तथा राज्य के मजलिसे आम [लोक सभा] तथा मजलिसे कानून [लेजिस्लेटिव कौंसिल] के सदस्य भी थे । स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने खुल कर गांधीजी का सहयोग किया, हाथ ठेले पर लाद कर वह घर घर जाकर "खादी" बेचते थे । वह आजीवन हेतुरहित समाज सेवा करते रहें । अति गोपनीय रख कर उन्होंने कितने ही निर्धन विद्यार्थियों की पढाई की व्यवस्था की तथा अनेकों निर्धन कुमारियों के विवाह में आर्थिक सहायता की । उन्होंने निजी बल बूते से "मुरार" में पब्लिक लाइब्रेरी व रीडिंग रूम की स्थापना की परन्तु इन संस्थानों के साथ उन्होंने स्वयं अपना अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम नहीं जोड़ा ।
उनके निवासस्थान परमेश्वर-भवन के आगे विलक्षण मण्डप सजा हुआ था, वहां स्वागत-सत्कार हुआ, मन्त्रोच्चारण की गूंज के साथ द्वारचार हुआ, चांदी के बर्तनों में स्वादिष्ट पकवानों के अमृत-तुल्य स्वाद के साथ रात्रि भोज हुआ, फिर सब बराती मुझे नाऊ के साथ बैठक में बिठा कर जनवासे वापिस चले गए, क्योकि भाँवर का महूर्त दो बजे प्रातः का था ।
अब मेरा हाल सुनिये । अनजानी जगह, सभी अपरिचित, अकेला बैठक में बैठा, इधर उधर झाँका, लघुशंका के लिए उठा तो नगाड़ा बजने लगा, समझ न आये कि क्या करूँ, कहाँ जाऊं । महूर्त का समय निकट आया, सामने बिछे पाँवड़े पर चलकर घर के मण्डप की ओर बढा, मंगलगान के साथ पूज्य जनों ने परिछन किया, मंगलद्रव्य से स्वागत हुआ, मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा-पाठ प्रारम्भ हुआ ।
मण्डप में सुबह दो बजे प्रविष्ट हुई पीली साड़ी पहिने, घूंघट निकाले सजी धजी कन्या, जो मेरी सहधर्मिणी बनने वाली थी । फिर वैदिक-लौकिक रीति के अनुसार मन्त्रोच्चारण की गूंज के साथ विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ, पाणिग्रहण संस्कार हुआ, भाँवरें पड़ी, सिन्दूर-दान हुआ, आशीर्वचन के साथ हम दो जाने-अनजाने पंछी को विस्तृत आकाश में अपना नीड़ बनाने के लिए तैयार कर दिया गया । अभी तक एक दूसरे ने अपने चिर साथी को देखा नहीं था । फिर भी इस दाम्पत्य बन्धन से हम दोनों सहचर और सहधर्मी बने और हम दोनों के गृहस्थाश्रम का श्रीगणेश हो गया । दूल्हे के रूप में क्या कर्म-धर्म है, मैं इससे अनभिज्ञ था ।
दूसरे दिन २८-११-१९५६ की शाम को विवाहोपरांत आयोजित रिसेप्शन से पहिले मेरी बड़ी साली मनोरमा जीजी ने मुझे मेरी पत्नी कृष्णा से मिलवाया, परिचय कराया, कहा "ठीक से पहिचान लीजिये " । पहिचानना तो दूर की बात है, ठीक से देखा भी नहीं, मुलाक़ात हुई, पर बात नहीं हुई, आरज़ू मन मसोस कर रह गयी ।
इस प्रीतिभोज की आलीशन व्यवस्था, आवभगत देख कर, इसमें अजेय-अनिल द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देख कर सारे बाराती आल्हादित थे, इससे पहिले सुबह में वे ग्वालियर के दर्शनीय स्थल और आगरा भी घूम कर आये थे अतः बहुत प्रसन्न थे । मैं तो सुबह कुवँर कलेवे की रस्म का आनंद ले रहा था ।
प्रीतिभोज में पधारे मध्यभारत के भूतपूर्व राज प्रमुख महाराज जीवाजी राव सिंधिया और महारानी विजया राजे सिंधिया । उन से तथा ग्वालियर राज्य के गणमान्य प्रतिष्ठित स्वजनों से मेरी और मेरे पूज्यनीय पिताश्री एवं स्वजनों की भेंट हुई, फोटो भी खीचीं गईं । ग्वालियर बुधवार २८-११-५६ के दैनिक नवप्रभात में भोला-कृष्णा नवदम्पति की फोटो वहां के स्वजनों की शुभकामनाओं के साथ छपी ।
फोटो की बात करते करते सहसा मुझे अभी अभी उसकी भी कहानी याद आ गयी । आपको भी सुना ही दूँ । प्रियजन, जब हम विवाह के बाद पहली बार ग्वालियर गये, हमे पेलेस [महल] से खाने पर आने का निमंत्रण मिला । खाने की मेज़ पर राजमाता ने, वही उनके साथ वाला मेरा चित्र दिखा कर हंसते हंसते कहा था, "भोला बाबू यह फोटो कृष्णाजी को नहीं दिखाइयेगा, हम दोनों की ऐसी हंसी देख कर वह न जाने क्या सोचे" । राजमाता के इस कथन पर कृष्णाजी तो हंसी हीं, मेज़ पर बैठे सभी लोग हँस पड़े ।
एक और उल्लेखनीय बात याद आयी । हम भोजन कर ही रहे थे कि राजमाता के पास एक अति आवश्यक टेलीफोन काल आया जिसे सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, "भोला बाबू, आज के दिन आपका यहाँ आना हमारे लिए बड़ा शुभ रहा, इंदिरा जी का फोन था, नेहरू जी हमसे मिलना चाहते हैं, वह हमे ग्वालियर से लोक सभा का सदस्य बनवाना चाहते हैं ।" हम सब ने उन्हें खूब खूब बधाई दी । शायद उस बार वह पहली बार चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत कर "एम पी" बनीं । आगे का इतिहास दुहराने से क्या लाभ ? हाँ, एक बात अवश्य बताऊंगा कि उस महल के भोजन के बाद राजमाता विजयराजे सिंधिया के जीवन काल में मैं उनसे या उनके पुत्र माधव राव से एक बार भी नहीं मिला ।
सारी वेद रीति, लोक रीति, कुलरीति सम्पन्न होने ने अनन्तर २९-११-५६ को अंतरतम छू देने वाली मङ्गलमयी बिदा बेला आई । सभी आत्मीय जन विकल हो गए, मेरे पूज्य साले श्री शिवदयालजी ने अश्रुपूरित ममता सजोये आशीर्वचनों के साथ बिदा करते हुए मेरी जीवन संगिनी को मुझे सौंप दिया । फिर रेलवे स्टेशन पर कृष्णा के साथ ही मुझे सौंपा मनोरमा जीजी ने एक चश्मा और हिदायत दी कि सम्भाल कर रखियेगा, कृष्णा का चश्मा है । आशाओं और आशंकाओं से प्रकम्पित भावनाओं ने ज़ोर मारा, यह क्या --चश्मा -- अरे मेरी तो एक ही आकांक्षा थी कि जीवन संगिनी चश्मे वाली न हो । मेरे कुलदेव ने मुझे सद्बुद्धि प्रदान की, मैं मौन रहा, चश्मे की सहज सम्भाल की । फिर यह भाव प्रबल हुआ कि मुझे आशाओं से कहीं अधिक मिला तो इस नगण्य अनिच्छा को क्यों भाव दूं ? प्रकृति के विधान के साये में निकट आते हुए दो हृदय के बीच इसे क्यूँ स्थान दूं ?
जब झांसी स्टेशन के प्रतीक्षालय में अपनी चिर संगिनी की छवि निहारी, कुछ बातचीत हुई तो मन में शंका आशंका मिट गयी, मेरी जीवनसंगिनी मुझे काल्पनिक आशाओं से अधिक मनमोहक और सौम्य लगी । ऐसा लगा कि हम जन्मजन्मातरों से सद्भावनाओं, स्नेह के बन्धन में बंधे एक हैं । मन ही मन अपनी प्यारी अम्मा को धन्यवाद दिया, उनके प्रति अपना आभार व्यक्त किया जिन्होंने अपने हाथ का कंगन उतार कर शुभाशीष के साथ कृष्णा को पहिना कर मेरी सहधर्मिणी बनने के लिये चुना था । उनकी सूझ-बूझ को शत शत नमन ।
एक और पते की बात बताऊं, मैंने बातों ही बातों में कृष्णा से रामचरितमानस के शिव-पार्वती प्रसंग की चर्चा की और उसके परिवेश में कृष्णा को समझा दिया कि मुझे दुराव-छिपाव, झूठा व्यवहार पसन्द नहीं है, सत्य की राह पर चलना ही मेरा जीवन मूल्य है । मुझे गर्व है कि कृष्णा ने आज तक इसका ध्यान रखा, पालन किया, कभी कहने सुनने का मौका नहीं दिया । दाम्पत्य जीवन ही तो गृहस्थाश्रम के धर्म-कर्म की साधना का क्षेत्र है ।
अतीत के इन पन्नों को पलटते हुए दृश्यगत हुआ, विवाहोपरांत ससुराल से मिला अध्यात्म-पथ प्रशस्त करनेकी क्षमता रखने वाला अनूठा उपहार "उत्थान-पथ" ।
जब मैं अपनी नयी नयी बनी धर्मपत्नी को पहली बार ग्वालियर से विदा करवा कर ला रहा था, चलते चलते ससुराल पक्ष के किसी विशिष्ट व्यक्ति ने मेरे हाथ में एक पुस्तिका पकड़ाई थी जिसका नाम था "उत्थान पथ" । यह पुस्तिका हमारे राम परिवार के मुखिया धर्म पत्नी कृष्णा जी के पितृतुल्य बड़े भाई दिवंगत माननीय श्री शिवदयालजी, भूत पूर्व, चीफ जस्टिस ऑफ एम. पी. हाईकोर्ट ने प्रभु श्रीराम की प्रेरणा से रामचरितमानस की चौपईयो और श्रीमद भगवदगीता के श्लोकों में निहित सूत्रों का चयन करके गृहस्थों को दिव्य जीवन जीने की कला को सिखाने के लिए प्रकाशित की थी ।
उन्होंने यह मुझको ही नहीं अपितु सभी स्वजन-सम्बन्धियों को उपहार स्वरूप दी थी । इसे पा कर मुझे इस सर्वमान्य जीवन-मूल्य का आभास हुआ कि गृहस्थ के लिए जीवन-निर्वाह के साधन और आत्मोत्थान के साधन एक ही सिक्के के दो पहलू है ।
गुरुवार, 17 मार्च 2022
सिडको लैदर्स - एक और अनुभव
श्रीदेवी के विवाहोपरांत कानपुर पहुँचने पर अगस्त के महीने कानपुर में यू. पी. एस. आई. डी. सी. के अंतर्गत बनी जॉइंट वेंचर में सिडको लैदर्स लिमिटेड में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर आसीन हो मैंने अगस्त १९८५ से काम करना प्रारम्भ कर दिया जो लगभग चार वर्ष तक करता रहा ।
इसमें सिडको लैदर्स के अधिकारियों श्री जफर उल्ला साहिब और इरशाद साहिब के साथ बड़ी लगन, निष्ठा और पुरुषार्थ से मैंने दिन रात एक करके काम किया । लेकिन दुनियावी दांव-पेच और छल-कपट के सामने मेरी सत्यनिष्ठ और कर्तव्यपरायण जीवन पद्धति उनको रास नहीं आई । राजकीय नियमों को तोड़ कर, धोखा धडी, भ्रष्टाचार और अनुशासन हीन कार्य पद्धिति को मैं सहमति नहीं दे सका । मेरे अनुभव, मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से आत्मीय संबंध, चमड़े के क्षेत्र में पायी प्रसिद्धि और कार्य कुशलता का उन्होंने भरपूर लाभ उठाया । जब तक सिडको लैदर्स चलाने के लिये सब क्षेत्रों से धनराशि प्राप्त कराने और उसको एकत्रित कराने में मैं सहायक रहा तब तक उन्होंने मुझे मान-सम्मान दिया, प्रतिष्ठा दी, मेरा आदर-सत्कार किया, मेरे यश और पद का लाभ उठाया, फिर जब आर्थिक सम्पदा मिल गयी तब २८-२-१९८९ को मुझे दूध में गिरी मक्खी की भाँति निकाल दिया ।
परमात्मा प्रतिपल हमारे साथ है, इसका अनुभव हम सभी को जीवन में हर क्षण होने वाली विविध घटनाओं के साथ होता रहता है, पर उसे हम नजरंदाज़ कर जाते हैं ।
जब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना घटती है जहाँ हमारा सामर्थ्य, हमारा बल, हमारा विवेक, हमारा विचार सभी निष्फल हो जाता है तब उस समय कोई अनजान अदृश्य शक्ति हमें उस आपत्ति से निकाल कर हमारी रक्षा करती है, गिरने से पहिले ही हमारा हाथ पकड़ कर हमें सम्भाल लेती है, भयंकर आपदाओं की मार से बचा लेती है। ऐसी दशा में ही हमें उसअदृश्य परम दिव्य शक्ति में अपने इष्ट या सद्गुरु की कृपा का दर्शन होता है । उसमें हमें भगवान की, अपने अपने कुलदेव की छवि दिखाई देती है।
एक मात्र "वह"- हमारा प्यारा सर्वशक्तिमान, परमकृपालु परमात्मा ऐसा औघड उपकारी है जो हमारी पात्रता के अनुरूप हमे आवश्यक सभी प्रेरणाएँ तथा सुविधाएँ प्रदान कर देता है । अर्थोपार्जन के चालीस वर्षों के कार्यकाल में काजल की कोठरी में से कैसे बिना दाग लगाए मैं उसमें से बाहर निकल आया, यही उसकी अनंत कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है ।
प्यारे प्रभु की कृपा तो देखिये, आजीविका-अर्जन के कार्यकाल मे जब जब किसी प्रतिद्वंदी ने मुझे प्रगति की सीढ़ी से उतारने का प्रयत्न किया, परम सत्ता की अदृश्य शक्ति ने मुझे उससे भी अधिक ऊंची सीढ़ी पर आरूढ़ करके मेरा किसी अन्य विभाग में उसका विकास करने के लिए स्थानांतर कर दिया ।
इस भय और आशंका से कि कहीं किसी दूषित कार्य पद्धति के चक्र व्यूह में न घिर जाऊं, मैंने साठ वर्ष की आयु में ही आगे किसी भी प्रकार की नौकरी न करने का निश्चय ले लिया । मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे द्वारा भूत काल में जो कर्म हुए हैं, जो वर्तमान काल में हो रहे हैं तथा जो कर्म भविष्य में होंने वाले हैं, वे सब के सब ही "इष्टदेवों" की कृपा से, "उनकी" आज्ञा से और "उनकी शक्ति" के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं । वह "सर्वशक्तिमान यंत्री", मुझे संचालित कर रहे हैं ।
बुधवार, 16 मार्च 2022
सरकारी नौकरी का अंतिम पड़ाव - कोचीन
गुरुजन के आशीर्वाद एवं प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा के कारण, हमारे पूरे परिवार का यह दृढ विश्वास है कि ईमानदारी के साथ, सच्ची लगन से, पूर्ण मनोयोग से, अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं का यथोचित उपयोग करते हुए, अपने निर्धारित काम करते रहने वाले को उसके "इष्ट" कभी निराश नहीं होने देते । प्यारे प्रभु, समय आने पर, उनकी सभी जायज़ आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते हैं । सच पूछिए तो भगवत कृपा से आज तक मुझे अपने 'प्यारे प्रभु' के अतिरिक्त किसी और से कुछ भी माँगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी और मेरे ही क्यूँ मेरे सभी प्रियजनों के भी सारे न्यायसंगत कार्य सिद्ध होते गए ।
टेफ्को कम्पनी छूटने के बाद, जब तक मेरी आगे की पोस्टिंग के बारे में, एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन कौंसिल का निर्णय पारित नहीं हुआ तब तक मैं कानपुर में अपने पैतृक घर ११ /२२६ सूटर गंज में ही रहा । देखा आपने हमारे "प्यारे प्रभु" ने अपने इस प्रेमी सेवक 'भोला" को सरकारी नौकरी के अंतिम पड़ाव में उसको अपने पैतृक घर में ही पहुँचा दिया और श्री प्रेमजी महाराज की आज्ञानुसार नियमित सत्संग लगाने की व्यवस्था भी कर दी ।
हमारा यह घर पूरे मोहल्ले का सबसे सुंदर घर था । उस एरिया के बाकी सब घर किराये पर उठाने की दृष्टि से बनाये गए थे । जहां एक एक प्लाट पर ६ से ८ छोट छोटे फ्लेट बने थे वहीं उतनी ही जमीन पर हमारा वह दुमंजिला घर बना था । हमारे घर का front elevation भी उस नगर में उन दिनों बन रहे अन्य मकानों से बहुत भिन्न और बड़ा ही आकर्षक था । सुनते हैं आस पास के नगरों से शौकीन लोग हमारे घर का नक्शा देखने को आया करते थे।
बलिया में "हरबंस भवन" और पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर में खानदानी ऊंचे ऊंचे २४ नक्काशीदार सागौनऔर देवदार की लकड़ी के भव्य खम्भों पर खड़ी विशाल मर्दानी कचहरी और दो बड़े बड़े आंगनों वाले ज़नानखाने के २० कमरे होते हुए कानपुर में मकान बनाने की क्या ज़रूरत है, ऐसा सभी बुज़ुर्गों का विचार था । लेकिन फिर भी सब स्वजन-सम्बधियों की बातें अनसुनी करके, अम्मा ने वह घर कानपुर में बाबूजी के पीछे पड़कर ज़बरदस्ती बनवा ही लिया था । आज भी विरासत में मिला यह घर हमारी पैतृक सम्पदा है ।
गयाना से वापसी के बाद हमारी पोस्टिंग, ११ वर्षों तक देश के विभिन्न नगरों - नयी दिल्ली, कोचीन, आगरा, जालंधर, कानपुर, कोचीन आदि में होती रही । हमारे परिवार के लिए ये स्थानांतर कितने कष्टप्रद रहे होंगे, आप अनुमान लगा सकते हैं । परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हमारे परिवार के किसी भी सदस्य ने ऐसे तबादलों के कारण कभी कोई क्षोभ प्रगट नहीं किया और न किसी ने कभी कोई एतराज़ ही किया । हम भी और अपने पाँचों बच्चों की टीम के साथ स्वदेश-विदेश भ्रमण करते रहे । हंसते गाते मौज मनाते सर्वत्र आनंद ही आनंद लूटते रहे ।
हमारी एहिक प्रगति और आध्यात्मिक उत्थान की गतिविधि के पहिये साथ साथ चलते रहे । जब हमारे पैतृक ऑफिस से यह आदेश पारित हो गया कि हमारी पोस्टिंग जॉइंट डायरेक्टर के पद पर ई. आई. ए. कोचीन हो गयी है, हम सपत्नीक तिरुपति बालाजी का दर्शन करते हुए कोचीन पहुंचे ।
कोचीन ऑफिस ज्वाइन करने के एक सप्ताह बाद ही अपने सहकर्मी जॉइंट डायरेक्टर श्री स्वयंप्रकाश और उनकी पत्नी के साथ दक्षिण भारतीय मीनाक्षी मन्दिर के दर्शनार्थ चल दिए। हम चारों में न कोई आडम्बर था न दिखावा, सहज सुगम योजना के अनुसार वहां से त्रिवेंद्रम, कन्याकुमारी और श्री रामेश्वरम तीर्थ स्थानों के दर्शन करके तीर्थ यात्रा का स्वर्गिक आनद लेते हुए पन्द्रह दिन में वापिस आ गए। उसके बाद एक सप्ताह वहां और रहे फिर कानपुर वापिस आ गए ।
हमारी प्यारी बेटी श्रीदेवी का विवाह संस्कार यू. एस. ए. के तिरुपति मंदिर, पिट्सबर्ग में १०-५-८५ को सम्पन्न होना निश्चित था । अतएव उसकी तैयारियां करने के लिए हमने छुट्टियां ले लीं । अन्ततः स्वेच्छा से सरकारी नौकरी से २०-४-१९८५ को जॉइंट डायरेक्टर, एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन एजेंसी, कोचीन के पद से सेवा निवृत हो कर निश्चिन्त हो कर अमेरिका गया ।
आजीविका अर्जन के लिए मैंने छत्तीस वर्ष सरकारी नौकरी की । १९५० में अस्थायी लिपिक से अर्थोपार्जन के क्षेत्र में प्रवेश करके १९८९ में उत्तर प्रदेश के एक सेन्ट्रल पी. एस. यू. के सी. एम. डी. के विशिष्ट पद से रिटायर हुआ । इसमें मेरा सामर्थ्य कुछ नहीं, केवल मेरे प्यारे प्रभु की अनंत कृपा का प्रसाद रहा, जिसके फलस्वरूप मैं अपने जीविकोपर्जन के सभी साधन, "राम काज" समझ कर, अपनी पूरी क्रिया शक्ति लगाकर सम्पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ निर्भयता से करता रहा ।
प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा आजीवन मुझ पर बनी रही और मैंने अपने आपको अपने किसी भी कर्म का कर्ता समझा ही नहीं । जीवन में पल भर को भी यह भुला ना पाया कि वह "सर्वशक्तिमान यंत्री", मुझे संचालित कर रहे हैं ।
मंगलवार, 15 मार्च 2022
प्रतिनिधि नियुक्ति -- दिल्ली, आगरा, जालन्धर, कानपुर
स्वदेश आने पर हमने विदेश मंत्रालय को छोड़ पुनः अपने पैतृक विभाग एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन कौंसिल में जॉइंट डायरेक्टर के पद पर अधिष्ठित हो पहिली जून १९७८ से राजेन्द्र नगर, दिल्ली के ऑफिस में काम करना प्रारम्भ कर दिया । स्नेही स्वजन प्रमोद गीता के सहयोग से अशोक विहार फेज़ ३, नयी दिल्ली में यथोचित किराए के मकान में हम रहने लगे। जैसे ही घर गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आई, हमारा फिर ट्रांसफर हो गया ।
मैं फिर से प्रतिनिधि-नियुक्ति पर २-८-७९ से ११-६-८१ तक भारत लैदर कॉर्पोरेशन, आगरा में कार्यरत रहा जहां लैदर उद्योग के विकास और उससे निर्मित वस्तुओं के बाज़ार के लिए "मान मछेरी" प्रोजेक्ट तैयार किया, जो सर्व सम्मति से मान्य रहा ।
परम प्रभु की अहैतुकी कृपा से व्यापार वाणिज्य मंत्रालय ने पंजाब टैनरी लिमिटेड और पंजाब फुटवियर लिमिटेड जालन्धर, इन दोनों इकाइयों का मैनेजिंग डायरेक्टर और जनरल मैनेजर के पद पर आसीन करके मुझे प्रतिनिधि-नियुक्ति पर जालन्धर, पंजाब भेज दिया । १२-६-८१ से २३-११-८२ तक मैंने उसके विकास का, उसके प्रशासनिक और आर्थिक पहलुओं के उन्नयन का उत्तरदायित्व सम्भाला ।
जालन्धर में, कम्पनी की ओर से हमारी रहने की व्यवस्था मोतासिंह नगर में हो गयी, जहां हमारी भेंट हुई स्वामी सत्यानंदजी महाराज के एक अति प्रिय साधक प्रोफेसर महावीर अग्निहोत्री जी से एवं उनके भाई श्री बलदेवजी से, जो घर के पास चार कदम की दूरी पर ही रहते थे । उनके यहां रविवार को साप्ताहिक सत्संग होता था । प्रोफेसर साहेब के पिताजी के निवास स्थान गुरुदासपुर में, स्वामी सत्यानंदजी जी महाराज अक्सर आते जाते थे, राम राम जपने की प्रेरणा देते रहते थे । गुरुदेव प्रेम नाथ जी महराज भी प्रोफेसर साहेब पर बहुत कृपालु थे, उनका बहुत सम्मान करते थे । ऐसे वरिष्ठ साधक बड़े भाई-तुल्य प्रोफेसर महावीरजी के सम्पर्क में आने पर वर्षों से 'श्री राम शरणं' से भटका हमारा मन पुनः 'गुरु मंत्र' में लग गया । उनके सत्संग में हमें श्रद्धेय श्री प्रेम नाथ जी महाराज के निकट आने का, उनके सन्मुख भजन की स्वरांजलि प्रस्तुत करने का सौभाग्य मिला । हमारे जीवन में प्रेमाभक्ति की एक अविरल धारा प्रवाहित हो गई ।
जालन्धर में अमृतवाणी सत्संग में सम्मिलित होने के फलस्वरूप हमारा परिचय श्रीरामशरणम के सिद्ध साधकों और उनके परिवारों से हो गया, जिन्होंने बरसाया निःस्वार्थ भाव से अनंत प्यार, बढाया हमारा भक्ति भाव, कराया आनंद-रस का पान । उनमें से कुछ परिवार -- श्री राणा परिवार, श्री केवल कृष्ण परिवार, नरेंद्र साही परिवार, प्रदीप भारद्वाज परिवार आज भी निरंतर प्रगाढ़ प्रेम की वर्षा कर रहे हैं । उनके अपार स्नेह को, आदर-भाव को, आत्मीय सम्बन्ध को और भजन-सन्ध्या में राम-रस बरसाने को कैसे व्यक्त करूँ, कैसे अपना आभार प्रकट करूँ, किन शब्दों में मोल चुकाऊं ? केवल सत्संग की महिमा गाऊँ और मुझे कुछ भी न आता, दाता राम दिए ही जाता ।
हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक रुचि को निरख कर और परख कर हमारे ड्राईवर श्री ज्ञानसिंह हमें ले गये जालन्धर के निकट स्थित गाँव के आश्रम में और दर्शन कराये योगप्रवर बाबा मोहनदासजी के । ये हठयोगी बाबा नवरात्रि भर समाधिस्थ रहते थे, इनकी योगसिद्धि का प्रभाव भी अद्भुत था । हमने इन्हें न तो कभी दान दिया न दक्षिणा, न कभी इन्होंने हमसे माँगा, न हम उनके कभी शिष्य बने और न कभी किसी आयोजन को व्यवस्थित करने में साझीदार बने । फिर भी पाया उनका असीम प्यार, लाड-दुलार, पाया उनके आशीष भरे वरद हस्त का अहसास और पाया उनके मन्दिर के सन्मुख बैठ कर मन्दिर का महाप्रसाद । उनके सामीप्य में जो अनिर्वचनीय आत्मिक आनंद मिला उसे अपना या अपने परिवार के पूर्वजन्मो के संचित पुण्यों का प्रताप कहूँ या जन्म जन्मातर का उनसे पुराना कोई सम्बन्ध कहूँ या आध्यात्मिक चेतनाओं को जागृत रखने की अपने आराध्यदेव की कृपा कहूँ, यह हमारी समझ के बाहर है ।
आजीविका अर्जन का कार्य लगन से करते हुए, भजन-सत्संग से प्रभु को रिझाना हमारा और हमारे परिवार का सहज स्वभाव रहा है । हमारा सदा का अनुभव रहा है कि समय समय पर जीवन में सम-विषम भाव से उत्पन्न समस्याएं अपनी जटिलता लिए हुए पग पग पर खड़ी रहतीं हैं, विघ्न बाधाओं से भरी घटनाएं भी घटित होती रहती हैं, ऐसे में सर्वशक्तिमान प्रभु की कृपा अनेकों रूप धारण करके आत्मशक्ति जागृत करती है, निराश मन में आशा का संचार करती है, आगे बढ़ने का सही मार्ग प्रशस्त करती है ।
सन्त शिरोमणि सद्गुरु स्वामी सत्यानंदजी महाराज के निर्वाण दिवस, १३-११-८१ को धनतेरस के दिन, कुछ ऐसी ही परिस्थिति आ खड़ी हुई । चीफ एक्ज़ीक्यूटिव की हैसियत से पंजाब टेनरी और फुटवियर की तकनीकी और आर्थिक इकाइयों के विकास और उनकी प्रगति के लिए मैं योजना तैयार कर रहा था, उद्योग मंत्रालय में इस पर विचार विमर्श हो रहा था, कि अनायास ही राजनीतिक दबाब से हताहत हो, मुझे पंजाब सरकार के उद्योग विभाग, चंडीगढ़ में धनतेरस के त्यौहार पर स्तीफा देना पड़ा । उस समय श्रीदेवी टाटा बरॉज, बम्बई में कार्य रत थी और रामजी आई. आई. टी. दिल्ली में और राघव बी. एच. यू. आई. टी. में, प्रार्थना और माधव केंद्रीय विद्यालय, जालन्धर में पढ़ रहे थे । सभी बच्चे दीपावली की छुट्टियों में घर आये थे । उनसे अपना सुख दुःख बाँटा फिर तत्काल ही हम परिवार सहित अपने सद्गुरु के निर्वाण दिवस पर आयोजित सत्संग में पहुँच गए, वहां, भजन-कीर्तन किया, प्रसाद ग्रहण किया, सब साधकों को दस दिन के अंतराल में पंजाब टेनरी छोड़ कर जाने की सूचना भी दे दी ।
अब प्रश्न था, अब अगली पोस्टिंग कहाँ होगी, कहा करूँ कित जाऊं? जब मैं अपने पैतृक विभाग ई. आई. सी. दिल्ली के ऑफिस पुनः कार्यरत होने की अर्जी देने पहुंचा तो अद्भुत घटना घटी, चमत्कार सा हुआ । उद्योग मंत्रालय, व्यापार-वाणिज्य मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय के परिचित उच्चस्तरीय वरिष्ठ अधिकारियों से ज्ञात हुआ कि टेनरी फुटवियर कॉर्पोरेशन, कानपुर के चेयरमेन और मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर मेरी नियुक्ति करने के मुद्दे पर केबिनेट में विचार-विमर्श हो रहा है । केबिनेट में मेरे प्रमाण-पत्र, योग्यता और कार्यक्षमता को, विभिन्न विभाग के कार्यकाल की गतिविधियों को आंका और परखा जा रहा है । कौन कर रहा है, कौन करवा रहा है, क्या हो रहा है, क्या निर्णय होगा, मैं इन सबसे अनभिज्ञ था । मेरी तकनीकी दक्षता, कार्यकुशलता, नीतिबद्धता, कर्तव्यनिष्ठता एवं सत्याचरण और सरकारी नौकरी के कार्यकाल के उत्तम रेकॉर्डों के आधार पर मुझे चुन लिया गया ।
परम प्रभु और मेरे कुलदेवता की ऐसी कृपा हुई कि भारत के राष्ट्रपति के आदेशानुसार मुझे दो वर्ष की अवधि के लिए टेनरी और फुटवियर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड, कानपुर, जिसका अतीत के इतिहास में नाम फ़्लेक्स (FLEX ) था, का चैयरमेन और मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त कर दिया । मेरी इस नियुक्ति से मैं ही नहीं, मेरे सभी सम्बन्धी, हितैषी, अभिन्न मित्र गौरवान्वित हो गए ।
है न मेरे प्रभु की अपार कृपा, उनकी विचित्र संयोजना । मैंने न कोई प्रयास किया, न किसी की चापलूसी की, न किसी को रिश्वत दी, न कोई लिखा-पढ़ी की । उद्योग मंत्रालय की मेहरबानी से मैं अपने ही शहर कानपुर में टेफ्को कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर आसीन हो गया । अपने प्रभु की असीम अनुकम्पा का महाप्रसाद समझ कर मैंने इस पद को स्वीकार किया, और उनकी आज्ञा को मान कर १-१२-८२ से इसका कार्य-भर सम्भाला ।
कितनी विचित्र है प्रभु की लीला । बचपन में स्कूल आते जाते, अपने घर के पोर्टिको से फ्लैक्स कम्पनी के कार्यकर्ताओं को आते जाते जब देखता था तब मन में विचार उठता था इसमें काम करने का, स्वप्न देखता था इसका अधिकारी बनने का । मैं नही जानता था कि मेरे कुलदेवता, मेरे आराध्यदेव मेरे ऊपर इतने दयालु होंगे कि बिना मांगे ही मुझे इस पद पर आसीन करेंगे । सांसारिक वैभव, मान-प्रतिष्ठा, राजसी ठाठ, टेफ्को हाउस नामी बड़ा बंगला, नौकर-चाकर, बाग़-बगीचा, बाहरी ताम-झाम, द्वारपाल, क्या क्या न दिया मेरे प्रभु, तुमने सबको अनुभव करा दिया कि जो प्रभु के आश्रित रहता है, उसकी झोली बिना मांगे ही भरते रहते हैं ।
वाह रे मेरे प्रभु, कौन कौन गुण गाऊँ मैं तेरे, सामर्थ्य से अधिक दिया, सांसारिक व्यवहार और परमार्थ को साथ साथ चलाया, व्यवहार से सुख और परमार्थ से परम सुख दिया, सांसारिक कार्य-कलाप करते हुए परमार्थ की साधना करते रहने का अनमोल वरदान दिया ।
जालन्धर छोड़ने और कानपुर में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद को ग्रहण करने से पूर्व जब मैं श्रीराम शरणं, दिल्ली में प्रेमजी महाराज का आशीर्वाद लेने गया तब उन्होंने "कानपुर में सत्संग लगाओ" का आदेश दिया । आदेश देते समय यह भी चेतावनी दी कि सत्संग में अपनी कम्पनी के अनइच्छित लोगों को मत बुलाना । यह चेतावनी मेरे बहुत काम आयी।
कभी कभी जब सत्संग के बहाने मेरे पास आकर मेरे मित्र और सम्बन्धी अक्सर मुझे याद दिलाते रहते कि मेरे मातहत मकान बना रहे थे और मेरा कहीं कोई अपना मकान नहीं था । शुभचिंतक बताते कि मातहतों की बीवियों के पास रत्नजडित आभूषण हैं लेकिन हमारी बीवी के पास विवाह में मिले आभूषणों के अतिरिक्त और कोई ढंग का नया आभूषण नहीं । जन सहानुभूति जताते, कहते "पांच पांच बच्चों को पढाना है, दो दो लड़कियों का उद्धार करना है और भोला बाबू तुम इस कुर्सी पर बैठ कर भी दौलत कमाने की जगह, 'नाम ' की कमाई में जुटे हो"। तब प्रेमजी महाराज का आदेश कवच का काम करता, मुझे अपने धर्म पथ पर अडिग रहने की आत्म शक्ति प्रदान करता ।
टेफ्को हाउस में अभी तक जहां राजनैतिक मौज-मस्ती होती थी, वहां अब साप्ताहिक अमृतवाणी सत्संग होने लगा । प्रसिद्ध भजन गायक हरिओम शरणजी सपत्नीक आये, श्रीमती नीलम साहनी आईं, डागर बंधु और विनोद चैटर्जी आये । संगीतप्रेमियों और संगीत मर्मज्ञों के मधुर स्वरों की सरगम से टेफ्को हाउस का वातावरण सात्विक ऊर्जा से भर गया । आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन होने लगे। स्वामी चिन्मयानन्दजी, जालन्धर के योगप्रवर बाबा मोहनदासजी, इसकोन के भक्त एवम प्रेमी गणों ने टेफ्को हाउस में पधार कर, आशीर्वाद दे कर हमारा जीवन आत्मिक आनंद से भर दिया । साधिका शांता दयाल, अंजना, वीरा प्रधान, मधुरिमा, मेघना, कल्पना, मधुलता विद्द्यार्थी, साधक संतू, श्री विचित्र नारायण निगम, गूबा कम्पनी के मालिक विजय भाई आदि के सहयोग से एच. बी. टी. आई. मरचेंट चैम्बर, प्रयाग नारायण शिवाला, तुलसी उद्द्यान, फूलबाग कानपुर में भजन-सन्ध्या के आयोजन होने लगे ।
हमारे इस कार्यकाल में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल माननीय चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह ने हमारे बंगले टेफ्को हाउस में आने की और भजन सनने की इच्छा प्रकट की । राजकीय स्तर पर सारी तैयारियां हुईं । परम प्रभु ने अद्भुत लीला रची । राज्यपाल तो नहीं आए, कानपुर के जागेश्वर मन्दिर में विराजे जागेश्वर नाथ स्वयं पधारे । ऐसी अनहोनी हुई, जो कभी सम्भव नहीं थी । कहीं किसी मन्दिर से प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति किसी गृहस्थ के घर जाती है ? जागेश्वर मंदिर के देवता श्री जागेश्वर नाथ पधारे, तीन दिन रहे, भजन-सेवा स्वीकार की। पूजा,अर्चन, वन्दन, कुछ नहीं आता है हमें, यह तो उन्हें पता ही था । शबरी के झूठे बेरों का आस्वादन करने आये उसके आराध्यदेव । हमें कृतकृत्य करने आये श्री जागेश्वरनाथ । उसकी अनंत कृपा है, अनोखी लीला है । उनकी माया वही जाने ।
जब मैं ई. आई. ए. से प्रतिनिधि नियुक्ति (डेप्यूटेशन) पर टेफ्को कानपुर में कार्यरत हुआ तब मेरे परम हितैषी कर्तव्यनिष्ठ उच्चाधिकारियों ने सचेत किया था कि टेफ्को की दुर्दशा का कारण उसमें फैला हुआ भ्रष्टाचार है, जो मिस्त्री और कर्मचारी से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों के बीच पनप रहा है, उससे सावधान रहना ।
अतएव इसके विरुद्ध मैंने पहिला कदम उठाया, बन्दूक धारी अंगरक्षकों से स्वयं को मुक्त किया, दूसरा कदम तकनीकी सुधार की ओर बढाया, तीसरा कदम आर्थिक संकट से इसे उबारने की कोशिश की । टेफ्को के विकास और सुधार के लिए सख्ती बरती, योजना बनाई, उन्हें कार्यान्वित करने की ओर ज्यों ही कदम बढाया, त्यों ही उद्योग मंत्रालय के सचिव गणों ने फैक्ट्री के विभिन्न विभागों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया ।
मैं असहाय था, न मुझे रिश्वत देना आता था, न लेना, न मुझमें मंत्रालय के अधिकारियों को निःशुल्क उपहार देने का सामर्थ्य था, न कम्पनी के खाते से उन्हें उपहार देना मुझे मंजूर था । न तो मैंने ऊपरी कमाई की और न मंत्रियों को पार्टी फंड के लिए दी । फलस्वरूप उनके छल-बल के सामने, मंत्रालय की कूटनीतियों के सामने घुटने टेक देने पड़े । अंजाम आप जानते ही हो, ९-११-८४ को स्तीफा दे कर मैं अपने पैतृक ऑफिस इ. आई. ए. दिल्ली वापिस चला गया ।
यह परम सत्ता की अदृश्य शक्ति की अपार कृपा ही थी, जिससे मुझे कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझने की क्षमता मिली और विषम से विषम कठिनाइयों में भी मैं अपने धर्म पथ से विलग नहीं हुआ । मुझे तो इन सभी क्रिया कलापों में अपने ऊपर प्यारे प्रभु की अनंत कृपा की वर्षा के दर्शन होते हैं, परमानंद का आभास होता है ।
यह अहैतुकी "कृपा" उसे ही मिलती है जो सब प्रकार से अपने इष्ट पर निर्भर हो, जिसे किसी और का आश्रय न हो । जैसे माँ अपने नादान शिशु को उंगली पकड़ कर उसे इधर उधर भटकने से रोकती है, उसे पथ भ्रष्ट नहीं होने देती, वैसे ही हमारा "प्यारा प्रभु" ऐसे कर्तव्य परायण जीव का पग पग पर मार्गदर्शन करता रहता है । और, जिस जन पर उसका इष्ट ऐसी कृपा दृष्टि डालता है उसका तो बस कल्याण ही कल्याण, मंगल ही मंगल होता है ।